लेकर अभिलाषाएं अनंत यहां,
कर लिया दुर्लभ जीवन यहां।
मन मूक मुद्रा लेकर जहां,
मन ठगा हुआ मानव है यहां।
आशा अभिलाषा में बंधा हुआ,
जाने वह विस्मित कहां हुआ।
ख़ुद ख़ुद को खोकर ठगा रहा,
गैरों पर मढ़ता दोष रहा।
तू कर्म की चिर निद्रा में सोया,
ख़ुद राह में अपने कांटे बोया।
सर्वज्ञ समझने की भूल किया,
ख़ुद मेट दिया सब लेखा-जोखा।
कीचड़ में पंकज रहकर खिला,
नहीं दोष कमल ने कभी दिया।
अपनों को तुझ पर ‘नाज़’ रहा,
तू अपने कुटुम्ब का अरदास रहा।
-डॉ० साधना शर्मा (राज्य अध्यापक पुरस्कृत) इ० प्र० अ० पूर्व मा०वि० कन्या सलोन, रायबरेली