Friday, April 19, 2024
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देशद्रोहियों के लिए हर भारतवासी हो अदालत

भारत दुनिया का सबसे बड़ा गणतन्त्र है जिसमें सवा अरब से अधिक आबादी निवास करती है। एक हिम शैल, तीन सागर, छः ऋतुएँ, तीन दर्जन राज्य, दर्जनों धर्म/पंथ, सैकड़ों भाषायें, हजारों बोलियाँ, साठ डिग्री सेल्सियस के रेंज में तापमान, हजारों त्यौहार, संस्कृति, रहन-सहन तथा मरुस्थल व मेघालय यहाँ की विशेषतायें हैं। मतभेद एवं वैचारिक विविधता किसी व्यक्ति, क्षेत्र, सम्प्रदाय या विधान के लिए होना स्वाभाविक है। रोष तब पैदा हो जाता है जब मतभेद अपनी मातृभूमि भारत के लिए उत्पन्न होता है। जिन पाठशालाओं से विकास पुरुष निकलने की अपेक्षा की जाती है वहाँ से ’कन्हैया’ निकलता है। जहाँ बंदेमारम् गूँजना चाहिए वहाँ श्भारत तेरे टुकड़े होंगेश् गूँजता है। ’इन्कलाब जिंदाबाद’ की जगह ’हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ का नारा लगता है और आजादी के इकहत्तर साल बाद भी हम बेशर्म होकर यह तय करने में दशकों गुजार देते हैं कि ये सारे प्रायोजित नारे एवं कृत्य ’देशद्रोह’ के अन्तर्गत आते हैं या नहीं। हम उन कपूतों की तरह हैं जिनकी माँ को सरेआम-सरेराह गाली दी जाये और हम मन में मत्रोच्चार का अंदेशा पाले रहें।
जनमत से बनी हुई सरकारें सदैव जनमत के नफे-नुकसान की गणित में उलझी रहती हैं इसलिए सरकारों से ज्यादा उम्मीद करना खुद को छलने जैसा है। आजादी के आठवें दशक का दौर चल रहा है। जनता को अब तय करना ही होगा कि श्देशद्रोहश् क्या है! जिस तरह ’हत्या’ शब्द सुनते ही धारा 302 और फाँसी या आजीवन कारावास की सजा दिलो-दिमाग में तत्क्षण आ जाती है वैसे ही ’देशद्रोह’ से सम्बंधित धारणा शीशे की तरह साफ होनी चाहिए। देशद्रोह से सम्बंधित नारे, स्लोगन, तख्तियाँ या किसी भी तरह के मौखिक, सांकेतिक या भौतिक कृत्य इतना स्पष्ट होने चाहिए कि करने वाला, सुनने वाला या देखने वाला पूर्णतया परिचित हो। कहने का आशय यह है कि भारत की समस्त आबादी इसको जानती हो, समझती हो।
ईमानदारी से विचार करें तो शायद ही कोई ऐसा होगा जो ’देशद्रोह’ को न समझता हो। जान बूझकर अनजान बनना या निजी स्वार्थ के लिए दुरुपयोग करना अलग बात है। इस बात से तो शायद कोई भी इन्कार नहीं कर सकेगा कि कन्हैया जैसे होनहार स्टूडेंट, आतंकवादियों के वकील, बम एवं पत्थर बरसाने वालों के लिए सहानुभूति रखने वाली संसद और न्यायालयी प्रशासन ’देशद्रोह’ को न समझते हों। और यदि सच में नासमझ हों तो इन्हें स्वतः कार्यमुक्त हो जाना चाहिए। देशद्रोह में सहयोग करने वाले व्यक्ति व संस्था को भी देशद्रोही के दायरे में कठोरता से रखा जाना चाहिए।
अब हाथ पर हाथ रखकर बैठने का समय नहीं है। सरकारों की ओर भिक्षुक नयन से निहारने का वक्त चला गया। खुद जागकर जगाने का समय आ गया है। शहीदों की कुर्बानी को याद करने का समय आ गया है। देश को सँवारने – सजाने की जरूरत है। अलगाववादियों को मिटाने की जरूरत है। गद्दारों को अब तो महापुरुष न बनायें। परम्परागत और गुलाम – सोच से आगे बढ़ना होगा।
देशद्रोह को समझने के लिए मुझे नहीं लगता कि मजिस्ट्रेट, न्यायाधीश या न्यायमूर्ति जैसे उच्च पदस्थ लोगों की आवश्यकता होनी चाहिए। देश के खिलाफ कोई भी मौखिक बयानबाजी या दुष्कृत्य देशद्रोह है जिसे हर भारतवासी को समझना पड़ेगा। ऐसे द्रोहियों या गद्दारों के लिए हर भारतवासी को खुद न्यायालय बनना होगा। प्रशासनिक औपचारिकता के लिए पुख्ता सबूत रखकर स्वयं जल्लाद बनना होगा। फिर न कोई कन्हैया होगा न कोई पत्थरबाज। अवधेश कुमार ’अवध’