इस सम्पूर्ण ब्रह्मांड में अगर किसी ग्रह पर जीवन है तो वह हमारी पृथ्वी है जिसकी अद्भुत व अद्वितीय रचना का श्रेय प्रकृति को जाता है। प्रकृति ने हमारी पृथ्वी को सम्पूर्ण संसाधनों की समस्त समृद्धि से इस प्रकार सजाया है कि पृथ्वी की सजीवता सदैव सुदृढ़ बनी रहे। प्रकृति ने पृथ्वी के समस्त जीवों को समान अधिकार प्रदान कर रखा है वह किसी भी जीव के साथ भेद-भाव नहीं करती। उसी जीव-जगत का एक अभिन्न व अनोखा अंग मानव है जो सम्पूर्ण जीव-जगत में अपनी बुद्धि के द्वारा इस जीव-जगत की श्रेष्ठ पात्रता को हासिल किया है।
मानव को श्रेष्ठ मानव का दर्जा उसके विकल्प चयन ने दिया। कहा जाता है कि मानव विकल्पों में ही जीता है वह विकल्पों का प्रतिनिधित्व भी करता है यही कारण है कि मानव हृदय का साधक बनने के बजाय बुद्धि के स्वामित्व की लालसा में बुद्धि का दास बन गया। बुद्धि और हृदय की इस जंग में बुद्धि ने काफी हद तक अपना लोहा मनवाया परंतु इस जंग में हृदय के घातक वार ने बुद्धि को सदा लहूलुहान किया।
अतः कहा जा सकता है कि मानव और प्रकृति का सम्बन्ध बुद्धि और हृदय के माफिक है जहाँ बुद्धि मानव को और हृदय प्रकृति को इंगित करता है। यही बात जयशंकर प्रसाद जी ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘कामायनी’ में भी कहा है कि हृदय और बुद्धि की जंग में बुद्धि को भौतिक व उपभोगवाद का परिचायक माना जाता है और हृदय को संचालक नियंता का स्थान प्राप्त है। परंतु मानव अपनी आवश्यकतापूर्ति व लालची स्वभाव के चलते अपनी बुद्धि के बल पर हृदय अर्थात् प्रकृति का नियामक व नियंता बनने के प्रयास में अपनी ही जीवनदायिनी प्रकृति को असंतुलित करने को अमादा है। इस मानव और प्रकृति की जंग का दुष्परिणाम सम्पूर्ण जीव-जगत को भुगतना पड़ रहा है।
उपभोक्तावादी संस्कृति के इस दौर का हर मानव अपनी लालची प्रवृत्ति के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध उपभोग कर प्रकृति के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा करने को अमादा है। यही कारण है कि प्रकृति से प्रतिवर्ष 10000-20000 जैव प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं। भूमिगत जल के अंधाधुंध प्रयोग से जल स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। इस वैश्विक जलवायु परिवर्तन में भी मानवीय जाति का पूर्णतः योगदान है जिस कारण प्रकृति में असंतुलन की स्थिति उत्पन्न हो गई है इसीलिए आज अनेक प्राकृतिक आपदाएं हमारे सम्मुख चुनौती बनकर खड़ी हैं।
अन्ततः यह बात तो साफ है कि मानव अपनी बुद्धि से चाहें जितने आविष्कार कर ले पर वह हृदय रूपी प्रकृति पर आधिपत्य नहीं बना सकता। अतः हमें ध्यान देना होगा मानव और प्रकृति का सम्बन्ध हमेशा पाता-दाता का होता है क्योंकि हम हमारे सारे आविष्कार प्रकृति प्रदत्त साधनों से ही करते हैं।
प्रकृति किसी के साथ भेद-भाव और पक्षपात नहीं करती सबके लिए समान रूप से अपना द्वार खुला रखती है परंतु जब भी प्रकृति के साथ अनावश्यक छेड़छाड़ व खिलवाड़ होगा तब प्राकृतिक असंतुलन बढ़ेगा जिसका भयानक दुष्परिणाम समस्त जीव-जगत को भुगतना पड़ेगा। यह दुष्परिणाम भूकंप, बाढ़, सूखा, सैलाब या फिर तूफान किसी भी रूप में हो सकता है। अतः प्रकृति से मित्रवत भाव रखते हुए विकास की सीढ़ियाँ चढ़ना एक सुदृढ़ व सुंदर विकल्प है।
रचनाकार – मिथलेश सिंह ‘मिलिंद’