Tuesday, November 19, 2024
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किसान आन्दोलन और सत्ताए चिंता जनक संवाद हीनता?

सत्ताधारीदल एसा प्रतीत होता है की वे किसान बिल 2020 को किसानो को सर्ही औ सटीक तरीकों से समझाने में चूक रहे है।किसान बिल के फायदों और उससे भविष्य होने वाली तरक्की तथा विकास के मकसद को आन्दोलन करता किसानो व् उनके संघटन तक संचारित नहीं कर पाए है।आन्दोलन को खत्म करने में सत्ताधारी नेता सम्यक नीति और कार्य योजना नहीं निर्मित कर पाए। दूसरी तरफ कृषक नेता कृषि बिल की अहमियत को पारदर्शी तरीके नहीं समझ पाए, या फिर वे किसी के दिशा निर्देश पर ही अमल करते नजर आ रहे है अन्यथा आन्दोलन क्रमिक भूख हड़ताल तक नहीं पहुँचता।सत्ता दल ने इस आन्दोलन को गंभीरता से लेकर कई दफे वार्ता आयोजित की है।किसान संगठन दलों की हठधर्मिता भी समझ से परे हैएया तो वे इस बिल के तथ्यों को समझ नहीं पाए है अथवा किसी के हाथों की कठपुतली की तरह आन्दोलन पर अमादा है।देश का दुर्भाग्य यही है जो मेह्नतकस किसान अनाज और अन्य उपज उत्पादित कर देश की भूख मिटाता है।उसी की गर्दन कटी जाती है। और आम उपभोक्ता यानि जनता की जेब काटी जा रही है।सरकार कह रही है कि किसानो को उनकी लगत का ढाई गुना दिलवाएंगे।संसद से कानून भी पास करवा दिया गया।अब खेती कोर्पोरेट की जागीर होगीएयह याद् रखने योग्य बात है कि हिंदुस्तान के समस्त आर्थिक प्रभाग को डुबाने का प्रयास किया है केवल कृषि छेत्र ही ऐसा है जो बिना नुकसान के फायदे में चल रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं की कृषक बिल 2020 के तीनों अधिनियम से किसान को अपने भविष्य की चिंता सताने लगी है और इसी चिंतन के चलते किसान विरोध स्वरूप सड़कों पर आ गयाए सत्ता यानी सरकार न जाने किन मुद्दों एवं कारणों से बिल को वापस लेने में कतरा रही है। और नीति निर्णायक फैसले करने में जानबूझकर देर करने के पक्ष में जिससे आंदोलन शनै शनै धीमा पड़ जाए और सरकार को अपने कदम पीछे ले जाने की जरूरत ना पड़े। भारत के इतिहास कृषक जैसी परिश्रमी,कर्मठ और ईमानदार कौम को पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर आंदोलन करने की जरूरत पड़ी एवं सर्वथा शांत रहकर कर्म करने वाली इस कृषक जाति को सड़क पर मजबूरन आकर अपना दिल्ली के हुक्मरानों को आक्रोश जताना पड़ा, दूसरी तरफ प्रथमतः केंद्रीय सरकार के दो सशक्त मंत्री क्रमशः कृषि मंत्री आलोक तोमर एवं केंद्रीय रेल मंत्री पीयूष गोयल ने किसानों से वार्ता करने लगभग पांच या छह बार आमने सामने आकर कृषक बिल 20 के प्रावधानों पर गंभीर विमर्श कर बीच का रास्ता निकालने का प्रयास किया, सरकार एम.एस.पी पूर्व की भांति यथावत रखने पर सहमति दिखा चुकी है, पर किसान संगठनों के नेताओं ने स्पष्ट तौर पर अपने इरादे स्पष्ट करते हुए कह दिया की तीनों कृषक बिलों को सरकार वापस लेगी तभी कोई वार्ता संभव हो कर आंदोलन वापस लिया जाएगा। केंद्रीय सरकार के कई प्रवक्ता यह कह चुके हैं विपक्षी नेताओं की भूमिका आंदोलन के पीछे संदिग्ध है वे देश के भोले.भाले किसानों को भड़काने और बरगलाने का प्रयास कर आंदोलन में आग में घी डालने का प्रयास कर रहे हैं। इस आंदोलन को जहां विपक्षी राजनीतिक दलों का खुलकर समर्थन है। वही देश के लिए मेडल लाने वाले खिलाड़ियों, फिल्म उद्योग के कई कलाकारों का भी खुलकर समर्थन है। राष्ट्रीय स्तर पर इस मुद्दे पर विचार किया जाए तो सत्ताधीशों के अलावा विपक्ष को भी राजनीतिक ध्रुवीकरण से उठकर निष्पक्ष होकर देश के अन्नदाताओं के लिए आसान सा बीच का मार्ग तलाशना चाहिएएइस परिप्रेक्ष्य में यदि विपक्ष के राजनीतिक दल अपने वोटो के लिए राजनीतिक ध्रुवीकरण कर रही है। तो यह किसानों के साथ पक्षाघात होकर आंदोलन की दिशा को बिगाड़ने तथा दिशाहीन करने का प्रयास होगा जो सर्वथा निंदनीय ही होगा।इसके विपरीत प्रधानमंत्री ने मीडिया में आकर कहा था कि कृषि कानून 2020 उनके सर्वोपरि हित के लिए और किसानों को आंदोलन के लिए अंदरूनी तौर पर भड़काया जा रहा है। केंद्र सरकार या अच्छे से जानती है की बिल को रद्द करने का मतलब सरकार को पीछे हटना पड़ेगा और देश में जो प्रधानमंत्री का मैजिक या जादू है उसका निश्चित तौर पर कम होना होगा। मोदी सरकार ने विगत 7 साल के कार्यकाल जो अलोकप्रिय कानून देश में लागू किए हैंए उससे जनता के बीच आक्रोश तथा असंतोष है। मोदी सरकार इन सब से खासा परहेज कर रही हैं।देश के कृषक अनाज पैदा करने वाले संघर्षशील नागरिक हैं।इनके द्वारा उत्पन्न किया गया अनाज आम नागरिकों का पेट भरता है,बल्कि इससे पर्यावरणकी सुरक्षा तथा पशु पक्षियों का भी पेट भरा करता है। ऐसे में सरकार को कृषकों के साथ राजनीति या आंदोलन को दबाना अत्यंत अलोकतांत्रिक तथा प्रजातांत्रिक कर्म ही होगा। स्वतंत्रता के बाद इतिहास रहा है बहुत कम मौके पर किसान खेतों से उठ कर सरकार के सामने आया और आंदोलन की स्थिति बनी थी। हमेशा ही किसान और सरकार आमने सामने मांगों को लेकर टकराने से परहेज करते रहे हैं। हरियाणा, पंजाब और कर्नाटक। केरल के किसानों को छोड़ दिया जाए तो अमूमन किसान आर्थिक स्थिति से सदैव संघर्ष रत रहा है और आर्थिक तंगी से जूझता भी रहा हैए ऐसे में यदि सरकार किसानों की अधिकांश मांगो को पूरा कर इनके साथ राजनीतिक दांव ना आजमाए तो सरकार के गौरवशाली इतिहास में और स्याह प्रसंग जोड़ने से बच जाएगा। बीते हुए दिनों में राजधानी दिल्ली के आसपास सीमा क्षेत्र में एकत्र हुए बड़ी संख्या में किसानों ने बहुत तेज और आक्रामक तेवर अपना लिए थे। कृषक संघों के वैधानिक प्रतिनिधियों ने साफ तौर पर कह दिया हैकि वे अब दो टूक फैसला चाहते हैं और वह किसी भी कीमत पर पीछे नहीं हटेंगे, पहले जो कृषक एम.एस.पी का कानूनी अधिकार मिलने पर सहमत थेण् अ अब वे सभी कानूनों को निरस्त करने की मांग पर अड़े हुए हैं। सरकार जब किसानों का भला चाहती और उसी के अनुपालन में कानून बनाती हैपर यहाँ किसानों से सहमती नालेने की सर्कार से चुक जरुर हुयी है।इसे में व्यापक आन्दोलन की स्तिथि निर्मित ही नहीं होती, जब जिनके लिए कानून बनाया गया है वही नहीं चाहता तो इस कानून के मायने किसी भी स्तर पर दूरगामी तथा फलदायक नहीं होंगे। ऐसे में किसको की मांग तर्क सम्मत एवं जायज नजर आती है। फिर इस तरह के कानून में सुधार करने की गुंजाइश सदैव बनी रहती है।यह भारत जैसे कृषि प्रधान देश का दुर्भाग्य होगा कि अन्नदाता जैसी कर्मठ इमानदार कौम को अपने निस्वार्थ हक के लिए सड़क पर आना पड़ेएअब तो वे क्रमिक भूख हड़ताल पर भी बैठ चुके है। केंद्र को किसानो को राजनीतक पार्टी या विपक्ष के रणनीतिकार न समझ कर सम्पूर्ण संवेदनशीलता के साथ नए कानून के फायदे और नुकसान को समझाकर उनसे वार्ता कर मसले का हल निकाल लेना चाहिए।