शहरों में मीठे – नमकीन से यादों के अनगिनत मकान अधिकतर किराए के हुआ करते हैं, जिनमें रहने वाले लोग जाने- अनजाने में कभी न भूल सकने वाले लम्हें जोड़ जाते हैं या फिर टूट-टूट के बिखरती रिसती कहानियों को छोड़ जाते हैं जिनकी साक्षी बनती हैं इन कमरों की बेजान दीवारें, जो न केवल ध्यान से सुनती हैं उन बातों को जो बोल दी गयी और जो चाहकर भी न बोली गयी बल्कि अपनी खुली आँखों से इन दृश्यों को देखती भी हैं अपने अनुभवों में सहेज लेने के लिए।
इन पलों में अपने घर को छोड़कर आये लोगों की मजबूरी एवं बेबसी के साथ -साथ स्वयं को यहां की परिस्थिति में ढ़ालकर एक-एक दिन को जीने की जुगत लगाते लोगों के प्रयास भी कैद हो जाते हैं। ये लोग जब ज़िन्दगी में आगे बढ़ चुके होते हैं और कभी पीछे मुड़कर देखते हैं तो बरसों पहले कैद हो गए ये लम्हें उनके शरीर में सिहरन पैदा कर जाते हैं। जिन लोगों ने इन किराए के मकानों में रहकर जूझते हुए अपना मकाम पा लिया होता है वो उन यादों को सुखद स्मृति की तरह याद करते हैं और लोगों से बाँटते हैं किंतु जो लोग इन मकानों में बरसों-बरस गुजार देने के बाद भी ज़िन्दगी के रेस में खुद को पीछे पाते हैं उन लोगों को ये यादें काटने को दौड़ती हैं, जब कभी कोई स्मृति आँखों के सामने तैर जाती है तो हृदय द्रवित हो जाता है, पीड़ा के मारे मन कराह उठता है और उनके हृदय में पश्चाताप की अग्नि एक बार फिर धधक उठती है। दूर गांव से आये अभ्यर्थियों का जीवन भी कुछ इस प्रकार ही है, जब बिना कुछ प्राप्त किये वापस लौटना होता है तो यही यादें नासूर बन जाया करती हैं, किराए के घर से हमेशा के लिए नफरत हो जाती है (तब तक के लिए जब तक ज़िन्दगी शरीर रूपी किराए के घर से आज़ाद न हो जाये) और हाँ उस शहर से भी…..।
नित्या सिंह साहित्यकार