सौंदर्य की प्रतिमूर्ति है मातृ रूप! एक दर्द ये भी जो किसी को नहीं दिखता वो स्त्री है सृजन करके हमें जीवन दिया अपने रूप का त्याग स्वीकार किया अपने यौवन को तुम्हें समर्पित किया आपकी आपके कुल की प्रतिष्ठा की रक्षा हेतु स्वयं को प्रताड़ित किया अपनी इच्छाओं का दमन किया आपने उसे क्या दिया घृणा अपने अंतर्मन से पूछो तुम्हारी आत्मा तुम्हें धिक्कारती है।
पुरुष को कभी किसी स्त्री को हीन भाव से देखने का अधिकार नहीं है किसी भी परिस्थिति में वो सृष्टि है प्रेम की प्रतिमूर्ति सहजता सौम्यता सहिष्णुता सरलता संभवतः ये गुण उसके प्रादुर्भाव किस समय ही उसे प्राप्त हो गए थे हमने कभी उसको समझना नहीं चाहा एक स्त्री पुरुष से क्या चाहते हैं सम्मान इसके अतिरिक्त उसकी कोई अभिलाषा नहीं होती क्या हम यह कहें कि अब हम मानसिक रूप से इतने विक्षिप्त हैं कि हम उसे सम्मान और प्रेम की दृष्टि से देखना ही नहीं चाहते या यह कहें कि हमारे पास वो दृष्टि अब रही नहीं।
वह देव तुल्य है वह सृष्टि है वह भक्ति है वह अनुरक्ति है वह वह वात्सल्य प्रेम करुणा अनुराग आशीर्वचन और हमको ममत्व अपनत्व प्रेम सब कुछ देती है।
इसलिए अब उठो जागो और उसकी सत्ता को स्वीकार करो मातृशक्ति सर्वोपरि है हम में आज जो शक्ति है वो उसी के द्वारा पोषित हुई अपने अहंकार के घने जंगलों से निकलकर उसे प्रणाम करो ।।
प्रफुल्ल सिंह “बेचैन कलम” युवा लेखक/स्तंभकार/साहित्यकार