केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में बदलाव और विस्तार से कहीं अधिक चर्चा इस समय दिग्गजों को बाहर करने की हो रही है। यद्यपि इस्तीफा देने वाले ज्यादातर मन्त्रियों ने स्वास्थ्य कारणों से त्यागपत्र देने की बात कही है। लेकिन राजनीतिक विश्लेषक इसके पीछे कोरोना महामारी में तन्त्र की विफलता तथा बंगाल चुनाव में भाजपा को मिली करारी हार मान रहे हैं। मंत्रिमण्डल विस्तार में चुनावी राज्यों और जातीय समीकरणों को साधने की कोशिश भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। उत्तर प्रदेश से सबसे अधिक सात सांसदों को मंत्रिमण्डल में शामिल किया गया है। इनमें से एक ब्राह्मण, तीन ओबीसी तथा तीन अनुसूचित जाति के हैं। मंत्रिमण्डल विस्तार से एक दिन पूर्व चार राज्यों के राज्यपाल भी बदले गये थे।
कोरोना की पहली लहर में अचानक लगे लॉकडाउन के कारण प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा तथा दूसरी लहर में सरकारी आंकड़ों के अनुसार लगभग चार लाख लोगों की मौत से मोदी सरकार के प्रति आमजन की नाराजगी जायज है। जिसका खामियाजा भाजपा को अगले साल होने वाले यूपी सहित पांच राज्यों के विधान सभा चुनावों में भुगतना पड़ सकता है। हाल ही में सम्पन्न हुए उत्तर प्रदेश के पञ्चायत चुनाव परिणामों में इसकी झलक भी देखने को मिल चुकी है। भाजपा शायद इसकी काट सोशल इंजीनियरिंग में देख रही है। तभी मंत्रिमण्डल विस्तार में प्रधानमन्त्री और उनके रणनीतिकारों का पूरा फोकस जातीय समीकरण बनाने पर रहा। मोदी की नयी टीम में अन्य पिछड़ा वर्ग के 27, अनुसूचित जाति के 12, अनुसूचित जनजाति के 8 तथा अल्पसंख्यक वर्ग के 5 मन्त्री हैं। जबकि महिला मन्त्रियों की कुल संख्या अब 11 हो गयी है। इस तरह से नये मंत्रिमण्डल में प्रधानमन्त्री समेत कुल 78 मन्त्री हो गये हैं। इसे अब तक का सबसे बड़ा मंत्रिमण्डल बताया जा रहा है। जो कि प्रधानमन्त्री के उस नारे के सर्वथा विपरीत है जिसमें उन्होंने ‘मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस’ की बात कही थी। इसे ही यू टर्न कहा जाता है। राजनीति में नारे देना और फिर उनसे मुकर जाना कोई नयी बात नहीं है। जनता अन्ततोगत्वा सरकार के काम पर ही उसे दुबारा सत्ता सौंपती है। सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव के बाद अब आमजन को नारों, वादों, भ्रामक आंकड़ों तथा लच्छेदार बातों से बहुत दिनों तक भरमाया नहीं जा सकता है। कोरोना की दूसरी लहर से उपजे अनगिनत सवालों से यह बात सबको अच्छी तरह से समझ में भी आ गयी है। अब तो सरकार का काम जमीन पर दिखाई देना चाहिए। कहा जा रहा है कि प्रधानमन्त्री ने जून माह में सभी मन्त्रालयों के कामकाज की समीक्षा की थी। साथ ही यह भी गणित लगाया कि अगले वर्ष उत्तर प्रदेश और गुजरात सहित देश के पांच राज्यों में होने वाले चुनावों में पार्टी अच्छी छवि के साथ मैदान में कैसे उतरे। इसी कारण उन्होंने न केवल अपने उक्त नारे के विपरीत मंत्रिमण्डल का जमकर विस्तार किया बल्कि उन दिग्गज चेहरों को भी दर किनार कर दिया जिनसे सम्भवता वह अपने मन मुताबिक काम नहीं करा पा रहे थे। मोदी मंत्रिमण्डल में अब राजनाथ सिंह के अतिरिक्त कोई ऐसा नेता नहीं बचा है जिसे भारी-भरकम कद वाला कहा जा सके। इसीलिए अब कई विशेषज्ञ यह कहने लगे हैं कि भाजपा अटल-आडवाणी युग से निकल कर मोदी-शाह युग में प्रवेश कर चुकी है। बताया तो यहाँ तक जा रहा है कि निकाले गये कई मन्त्रियों को आखिरी समय तक यह पता ही नहीं था कि उनसे त्यागपत्र माँगा जा सकता है। कोरोना की तीसरी लहर में आम ही नहीं खास आदमी तक जिस तरह से बदइन्तजामी का शिकार हुआ उससे सरकार की चहुँ ओर किरकिरी हो रही है। इसका ठीकरा डॉ.हर्षवर्धन के सर फोड़कर सरकार ने देश की स्वास्थ्य सेवाओं में आमूल-चूल परिवर्तन करने का सन्देश देश-दुनियाँ को देने की कोशिश की है। रमेश पोखरियाल निशंक की शिक्षा मन्त्रालय से छुट्टी का मूल कारण विशेषज्ञगण यह बता रहे हैं कि एक तो वह नयी शिक्षा निति लागू करने में पूरी तरह विफल रहे, दूसरा कोरोना संकट के समय केन्द्रीय बोर्ड की 10वीं और 12वीं की परीक्षा पर वह अन्त तक सही निर्णय नहीं ले पाये। छात्रों को आखिरी तक नहीं पता चल पाया कि उनकी परीक्षा होगी या नहीं। रवि शंकर प्रसाद को हटाने के पीछे की वजह ट्वीटर विवाद बताया जा रहा है। जानकारों के मुताबिक रवि शंकर प्रसाद द्वारा विश्व की इतनी बड़ी कम्पनी को चुनौती देने से वैश्विक स्तर पर भारत की किरकिरी शुरू हो गयी थी। इस सन्दर्भ में अमेरिका ने तो यहाँ तक कह दिया था कि भारत गलत कर रहा है। संयुक्त संसदीय समिति की निगरानी में भारत सरकार डेटा प्रोटेक्शन लॉ तैयार कर रही है। लेकिन इस कानून के बनने से पहले ही रविशंकर प्रसाद ट्वीटर से दो-दो हाँथ करने लगे थे। वहीँ न्यायपालिका द्वारा सरकार के कामकाज पर लगातार उठते सवाल भी उनको बाहर करने के प्रमुख कारणों में से एक है। भारत की पर्यावर्णीय चुनौतियों को सही ढंग से हैंडल न कर पाने की कीमत प्रकाश जावड़ेकर जैसे कद्दावर नेता को चुकानी पड़ी। पता चला है कि पिछले एक वर्ष से अधिक समय में पर्यावरण मन्त्रालय ने कोई खास काम ही नहीं किया है। बाबुल सुप्रियो और देबोश्री चैधरी को बंगाल में पार्टी की हार का खामियाजा भुगतना पड़ा तो सन्तोष गंगवार को योगी सरकार की आलोचना मंहगी पड़ी। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी सिद्धान्ततः काम के पक्षधर हैं। लगभग हर मन्त्रालय में उनका सीधा दखल रहता है। मन्त्रीगणों को हर सप्ताह व्हाट्सऐप पर प्रधानमन्त्री को अपनी प्रगति रिपोर्ट देनी होती है। प्रधानमन्त्री के साथ कदम से कदम मिलाने में जो पीछे रह गया उसे पीछे छोड़कर आगे बढ़ने पर वह अधिक विश्वास रखते हैं। किसी को बाहर करने से वोट बैंक पर क्या असर पड़ेगा इसका हिसाब-किताब अमित शाह के पास रहता है। इस तरह किसी को हटाने और जोड़ने में उसकी योग्यता, क्षमता और राजनीतिक नफा-नुकसान का गणित पार्टी के दो ही लोग मिलकर लगा ले लेते हैं। हालाकि कोरोना की दूसरी लहर से उपजे हालातों तथा हाल ही में सम्पन्न हुए विधानसभा और पञ्चायत चुनावों के नतीजों को लेकर भाजपा अध्यक्ष जे.पी.नड्डा ने पार्टी के महासचिवों तथा विभिन्न मोर्चों के अध्यक्षों के साथ दो दिनों तक विचार-विमर्श करने के बाद अमित शाह तथा नरेन्द्र मोदी को पूरी स्थिति से अवगत कराया था। उसके बाद ही नये मंत्रिमण्डल की रूपरेखा बनी और परिणाम सबके सामने है। इतिहास साक्षी है कि जो सत्ता में है वह बने रहने के लिए और जो नहीं है वह पाने के लिए हर वह तिकड़म लगाता है जिसे वह जरुरी समझता है। शायद इसे ही राजनीतिक धर्म कहा जाता है।