इन्दौर। बचपन में धर्म के संस्कार पड़ते हैंए युवावस्था में धर्म होता है। संसार में सब प्रकार के जीव होते हैं धर्म करने वाले भी होते हैं और कर्म करने वाले भी होते हैं। कोई जीव पुण्य कर्म का फल भोगता है और कोई जीव पाप कर्म का फल भोगता है। एक व्यक्ति वह है जो पहले पुण्य कर्म का फल भोगता है बाद में पाप कर्म का फल भोगता है। दूसरा व्यक्ति वह है जो पहले पाप कर्म का फल भोगता है फिर पुण्य कर्म का फल भोगता है। तीसरा व्यक्ति वह है जो पहले भी पाप कर्म का फल भोगता है और बाद में भी पाप कर्म का फल भोगता है। चौथा व्यक्ति वह है जो पहले भी पुण्य कर्म का फल भोगता है और बाद में भी पुण्य कर्म का फल ही भोगता है। बचपन खेलने में निकल गयाए जवानी भोगने में निकल गई और बुढ़ापा अस्पताल में निकल रहा है। युवाओं को गृहस्थी चलाने के लिये धन आवश्यक है और पुण्यार्जन के लिये धर्म आवश्यक है। आठ साल की उम्र के बाद ही बालक धर्म करने के योग्य होता है। आठ साल से पहले का बच्चा भोजन कर सकता है लेकिन भजन नहीं कर पाता है। आठ साल के पहले का बच्चा भगवान के अभिषेक एवम् मुनिराज को आहार देने के योग्य नहीं है। संघस्थ अनिल भैया ने डॉ0 महेन्द्रकुमार जैन ष् मनुज को बताया कि ये प्रवचन गणाचार्य विरागसागर महाराज के परम प्रभावक शिष्य महातपस्वी आचार्य विमदसागर महाराज ने आज सुदामानगर इंदौर में एक धर्म सभा में दिये। उन्होंने आगे कहा कि. इसी प्रकार बुढ़ापे में जिनके हाथ कांपने लगे हैं वह भी अभिषेक करने के योग्य नहीं हैं। अति बाल और अति वृद्ध दोनों अभिषेक के योग्य नही हैंए इसलिये धर्म जवानी में प्रारम्भ करना चाहिये। वृद्ध अवस्था में भगवान के अभिषेक देखना चाहिये और णमोकार जाप करना चाहिये। वृद्ध अवस्था में जब हाथ कांपते हैं अभिषेक करते समय कलश छूट जाता है। वृद्धावस्था में भारी धर्म नहीं हो सकता है, हल्का फुल्का ही धर्म हो सकता है। वृद्धावस्था में महाउपवास एवम् महातप नही हो सकता है क्योंकि तप करने के लिये शरीर में बल आवश्यक है। वृद्धावस्था में धर्म करने की उत्कृष्ट भावना होती है क्योंकि बचपन में और जवानी धर्म किया ही नहीं। युवावस्था में ही धर्म करना चाहिये। महापुरुषों का कभी बुढ़ापा नहीं आता है।