Wednesday, April 24, 2024
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‘‘निष्ठुर प्रथाएं’’

kanchan-pathakलाॅ, विधि या कानून सभ्यता के विकास के साथ-साथ रूढ़ियों, प्रथाओं और परम्पराओं को परिवर्तित कर स्वयं को विकसित करता रहा है इस क्रम में समय के साथ बहुत से बेकार नियम और कानून नष्ट होकर नए उपयोगी व व्यवहारिक कानून बनते चले आए हैं और आगे भी बनते रहेंगे। मानवीय क्रियाकलापों को अनुशाषित रखने के लिए यह युक्ति, रूपान्तरण की यह प्रक्रिया आवश्यक भी है। सदियों से चले आ रहे गलत और अन्यायपूर्ण रिवाजों को दैवी नियम या धर्म शास्त्र का आदेश कह कर अपने स्वार्थ के लिए चलाते जाना न केवल राष्ट्र के कानून व्यवस्था की त्रुटि है बल्कि उस समाज के बुद्धि जीवियों और राजनीतिक अग्रगण्यों की भी निष्फलता और ह्रदयहीनता है। सड़े गले रिवाज किसी कष्टकारी बीमारी की तरह है जिसका इलाज कराने के बजाय ढ़ोते रहना मूर्खता भी है। हाल का तीन तलाक मुद्दा ऐसी हीं एक बीमारी, एक बेकार और निष्ठुर प्रथा है जिसे जितनी जल्दी हो सके सामाजिक तथा नैतिक विधिशास्त्र के अन्तर्गत खत्म करके विधि को स्वयं को बेदाग और न्यायपूर्ण बनाना चाहिए। धर्मग्रन्थ का हवाला देकर इसे चलाते जाना मक्कारी है क्योंकि कोई भी धर्म मानव व समाज की भलाई के लिए होता है आखिर धर्म की चाबुक से स्त्रियों की खाल उधेड़ कर कोई समाज तरक्की कर सकता है क्या ? धर्मग्रन्थ की आयतों का अपने स्वार्थ और सहूलियत के हिसाब से अर्थ निकाल लेना कहाँ की बुद्धि मत्ता है ? अगर समझना हीं है तो इनका अर्थ एक मनुष्य बनकर मानवता की दृष्टि से समझें और सड़े हुए रिवाजों को परिवर्तित, संशोधित या समाप्त कर मानव और समाज के सदियों पुराने घुटन को खत्म कर नई ताजी सांसें प्रदान करने में सहायता करें सजैसा कि वित्त मंत्री ने भी कहा कि – अगर समानता का भाव न हो तो पर्सनल लाॅ में सुधार किया जाना एक सतत प्रक्रिया है सताज्जुब है कि एक तरफ जहाँ दुनियाँ के 22 इस्लामिक देशों समेत करीब 33 देशों में तीन तलाक जैसे अभिशापित कानून को खत्म कर दिया गया है वहीँ भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष और सभी नागरिकों को जीने का समानाधिकार प्रदान करने वाले देश में स्त्री के लिए यह शोषणकारी कानून अभी तक जारी है। एक बेहतर समाज का निर्माण करना प्रत्येक मानव का धर्म होता है और मानवीयता के धर्म से बढ़कर कोई धर्म नहीं स पर यहाँ की ‘‘मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड’’ सरकार को अपने धार्मिक मामलों में दखलंदाजी न करने को चेता रहा है। मुँहजबानी तलाक से बढ़कर एक स्त्री की बेईज्जती और क्या होगी कि जहाँ तीन शब्दों के हथियार से पुरुष जब चाहे उस पर मानसिक प्रहार कर उसके समूचे अस्तित्व को एक पल में नकार देता है। मानवीय दृष्टिकोण से संसार के सभी प्राणियों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार है पर विडम्बना देखिए कि स्त्रियों को न तो धर्म और न ही विज्ञान समानाधिकार दे पा रहा मानसिक संकीर्णता का आलम देखिए कि आज टेक्नोलाॅजी की तरक्की का इस्तेमाल भी स्त्री का खून चूसने में किया जा रहा है, बिना सफाई का कोई मौका दिए आजकल इन्टरनेट, फोन, एस.एम.एस पर भी तलाक दे दिया जाता है मानो औरत की स्थिति एक मूक पशु से ज्यादा कुछ नहीं। उस पर तुर्रा ये कि शरीयत ऐसे तलाक को जायज ठहराता है।
मैं तो कहती हूँ कि हर मनुष्य अगर खुद को सुधार ले, खुद की कमियों को स्वीकार ले तो समाज तो खुद-ब-खुद सुधर जाएगा। आज बात अगर उस कमी की की जा रही है जो मुस्लिम समुदाय में है कि जहाँ आदमी एक झटके में तीन तलाक बोलकर औरत को चोटिल, अपमानित और हतप्रभ करके निकल जाता है तो हिन्दू समुदाय की औरतों का दर्द भी उनसे कम नहीं बल्कि ज्यादा हीं कहा जायेगा जो पहले तो दहेज के कोड़ों का आघात झेलकर (जबकि दहेज लेना, देना कानूनन एक दण्डनीय अपराध है) एक अनजाने के साथ वैवाहिक सफर पर निकलती है और अगर कहीं दुर्भाग्यवश सब कुछ ठीक नहीं रहा तो तलाक की लम्बी प्रक्रिया के तहत अदालत के चक्कर लगाते-लगाते उसका पूरा जीवन हीं खत्म हो जाता है पर मुक्ति नहीं मिल पाती। पुरुष तो कहीं न कहीं छुपाकर या दिखाकर सम्बन्ध बना हीं लेता है पर एक औरत का पूरा जीवन एक जीते जागते दर्द, अपमान और करुणा की कहानी बनकर रह जाती है … ना खुदा हीं मिला ना विसाल-ऐ-सनम।
तो बात फिर वहीँ आती है कि मजहब या समुदाय चाहे कोई भी हो गलत प्रथाओं का अंत होना हीं चाहिए स ऐसे गलीच तथा संवेदनाहीन प्रथाओं को खत्म करने के लिए समुदाय विशेष के बु(िजीवियों को आगे आना चाहिए स जिस प्रकार दहेज जैसी सदियों से चली आ रही घृणित प्रथा को कानूनी अपराध घोषित कर दण्ड की व्यवस्था की गई है उसी प्रकार तीन तलाक प्रथा को भी खत्म कर इसके खिलाफ दण्ड की व्यवस्था की जानी चाहिए पर सबसे पहले स्त्री चाहे किसी भी मजहब की हो उसे पुरुष के साथ समानाधिकार की व्यवस्था हो, उसकी शिक्षा और स्वाबलंबन के लिए पुरुष के समान हीं मौके दिए जाएँ क्योंकि एक स्त्री अगर शिक्षित और स्वाबलंबी होगी तो उसे इन सब चीजों से फर्क तो पड़ेगा पर बहुत ज्यादा नहीं …।

Written by: Kanchan Pathak, Mumbai