कोरोना काल में पूरी दुनिया में डॉक्टर भगवान् के रूप में लोगों को नज़र आये है और ऐसा हो भी क्यों न?अपनी जान को दांव पर लगाकर दूसरों को निस्वार्थ भाव से जिंदगी उपहार देने वाले भगवान ही तो है। मगर सरकारी आँकड़ों के अनुसार भारत के 1.3 बिलियन लोगों के लिये देश में सिर्फ 10 लाख पंजीकृत डॉक्टर हैं। इस हिसाब अगर देखा जाये तो भारत में प्रत्येक 13000 नागरिकों पर मात्र 1 डॉक्टर मौजूद है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस संदर्भ में 1:1000 अनुपात को जायज़ और जरूरी मानता है, यानी हमारे देश में प्रत्येक 1000 नागरिकों पर 1 डॉक्टर होना अनिवार्य है। लेकिन ऐसा करने के लिए भारत को वर्तमान में मौजूदा डॉक्टरों की संख्या को कई गुना करना होगा।
जहाँ एक ओर शहरी क्षेत्रों में 58 प्रतिशत योग्य चिकित्सक है, वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह आँकड़ा 19 प्रतिशत से भी कम है। योग्य चिकित्सकों के अभाव में देश में में झोलाछाप डाक्टरों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है।
लेख/विचार
पाश्चात्य वाद व हिंसात्मकता को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होती वेब सीरीज प्रस्तुतियां
किशोरावस्था मिट्टी का वह कच्चा घड़ा है कि एक झटका भी उसके फूटने के लिए काफी है। जिस तरह आज इस आधुनिकता के दौर का युवा वर्ग वेब सीरीज का दीवाना बनता जा रहा है, उसे देखकर यह कहना बिल्कुल भी गलत न होगा कि जब भविष्य के कर्णधारों का ही भविष्य अंधकारमय होगा तो राष्ट्र के उज्ज्वल भविष्य की कल्पना करना महज एक दिलासा देना होगा। यह जग-जाहिर है कि अगर ऊर्जा को सही जगह का भान न कराया जाए तो अनियंत्रित ऊर्जा विध्वंसकारी हो जाती है। इस सत्यता को झुठलाया नहीं जा सकता है कि परमाणु ऊर्जा विध्वंसक की श्रेणी में प्रथम है, मगर जिस प्रकार परमाणु ऊर्जा से विद्युत आपूर्ति की कल्याणकारी योजनाओं का संचालन किया जा रहा है, वह एक नियंत्रित पहल है। आज-कल यह वेब सीरीज भी उसी अनियंत्रित ऊर्जा को बढ़ावा देने में मुख्य भूमिका अदा कर रहा है, जो भविष्य की आने वाली पीढ़ियों को भी पाश्चात्य व हिंसा के दलदल में ढकेलने का काम कर रही हैं।
किशोरावस्था अर्थात् जब शारीरिक बदलाव का दौर जारी हो, ऐसे में वेब सीरीज की लत, धुम्रपान की लत से भी ज्यादा खतरनाक होती है। वेब सीरीज में दिखाए गए कार्यों को यह युवा वर्ग अपनी असल जिंदगी में भी शामिल करने लगता है। एक शोध के अनुसार, वेब सीरीज में दिलचस्पी दिखाने वाले युवा वर्ग के आचार-विचार में काफी परिवर्तन देखा गया है, यथा चिड़चिड़ापन, क्रोध व अवसाद जो युवा वर्ग में हिंसात्मक रवैये का मूल साक्ष्य है।
हैरान करती है तिब्बत की स्वतंत्रता पर वैश्विक चुप्पी
ईराक ने 1990 में जब कुवैत को अपना बताकर उस पर अधिकार जमाया था। तब अमेरिका ने आनन-फानन में ईराक पर कार्रवाई करते हुए न केवल कुवैत को मुक्त करा लिया था बल्कि एक समय अन्तराल के बाद परमाणु हथियार रखने का इल्जाम लगाकर ईराक का तख्ता पलट करते हुए उसे नेस्तनाबूद करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी थी। वहीँ दूसरी ओर चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार जमाए हुए 70 वर्ष बीत गये हैं। परन्तु अमेरिका सहित विश्व का कोई भी सक्षम देश इस बारे में कुछ भी बोलने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। शायद इसी कारण चीन के हौसले बढ़े हुए हैं और वह खुलेआम परमाणु परीक्षण करके पूरे विश्व को चुनौती दे रहा है। गौरतलब है कि 40 के दशक में तिब्बत पूर्ण स्वतन्त्र राष्ट्र था। अक्टूबर 1950 में चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी तिब्बत में दाखिल हुई और बर्बरतापूर्वक पूरे तिब्बत को अपने अधिकार में ले लिया। उसके बाद एक देश का विश्व से स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो गया। 10 मार्च 1959 को तिब्बत में चीन के खिलाफ जबरदस्त विद्रोह हुआ। परन्तु चीन ने उस विद्रोह को सख्ती से कुचल दिया था। तब से लेकर आज तक तिब्बत की स्वतन्त्रता को लेकर किये गये प्रत्येक आन्दोलन को चीन बर्बरतापूर्वक कुचलता चला आ रहा है। परन्तु हैरान करने वाली बात यह है कि मानव अधिकारों की बात करने वाले विश्व के बड़े-बड़े देश चीन द्वारा तिब्बती नागरिकों पर किये जा रहे अमानवीय अत्याचार के मूक दर्शक बने हुए हैं। तिब्बत के नाम पर संयुक्त राष्ट्र की चुप्पी भी समझ से परे है।
Read More »बेकाबू हो चली आग की लपटों में तेल की आहुति बनाम आत्मनिर्भरता
आज के इस आपातकाल दौर में जब आम जनता खुद के पेट की तपिश को ही मिटाने में अक्षम है, तो देश तो दूर की बात है साहेब, उससे उसी की आत्मनिर्भरता के बारें में बात करना बेमानी होगी। जहाँ आम जनता एक तरफ भौतिक तत्वों की मारी है तो दूसरी तरफ अभौतिक तत्व उसे तिल-तिल कर मरने को मजबूर कर रहे हैं , ऐसे में वह निर्भर बने भी तो कैसे ? कुदरत की माया देखें कहावत है कि आग लगते ही हवा का तीव्र हो जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही है। जहाँ एक तरफ सब पर भारी कोरोना महामारी ने आम जनता की तीन मुख्य जरूरतें रोटी, कपड़ा और मकान को प्रतिबंधित करने में कामयाब रही, तो वहीं दूसरी तरफ प्रकृति ने ओलों, तूफानों, चक्रवातों व भूकम्पों के द्वारा आम जनता को खूब सताया। इन बेकाबू हो चली आग की लपटों में तेल की आहुति ने आम जनता के वर्तमान को भी निगल लिया ऐसे में भविष्य का निर्माण भला यह करे भी तो कैसे ? पेट्रोल व डीजल तेल की कीमतों में लगातार हो रही तीव्र वृद्धि ने भी आगे आकर आम जनता की मूल वृद्धि में भी आखिरी कील ठोक दी । देश में पिछले एक माह से पेट्रोल और डीजल के दाम जिस रफ्तार से अग्रसर हैं कि आम जनता के उपयोग से मीलों दूर निकल चुकी है। इस तीव्र वृद्धि ने अब तक के सारे रिकार्डों को बौना साबित करते हुए आपातकाल की इस धधकती ज्वाला में तेल की आहुति देने का काम किया है।
Read More »महिलाओं के काम पर पड़े हैं बहुत नकारात्मक प्रभाव -डॉo सत्यवान सौरभ
कोरोनावायरस महामारी का महिलाओं के काम पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। खासकर अकेली महिलाओं, विधवाओं, दैनिक मजदूरी करने या असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा कानूनों के तहत कोई सुरक्षा नहीं मिली है। उनके सामने कामकाज के दोहरे बोझ के साथ ही वित्तीय संकट भी आ खड़ा हुआ है। सबसे दुखदायी बात ये कि उन्हें दूर-दूर तक आशा की कोई किरण भी नज़र नहीं आ रही।
इस पुरुषवादी दुनिया में आम तौर पर घर की साफ-सफाई, चूल्हा-चौका, बच्चों की देख-रेख और कपड़े धोने के साथ रसोई का काम महिलाओं के जिम्मे होता है। हालांकि अब कामकाजी दंपतियों के मामले में यह सोच बदल रही है। लेकिन फिर भी ज्यादातर परिवारों में यही मानसिकता काम करती है। नतीजतन इस लंबे लॉकडाउन में ज्यादातर महिलाएं कामकाज के बोझ तले पिसने पर मजबूर हैं। भारतीय महिलाएं दूसरे देशों के मुकाबले रोजाना औसतन छह घंटे ज्यादा ऐसे काम करती हैं जिनके एवज में उनको पैसे भी नहीं मिलते। जबकि भारतीय पुरुष ऐसे कामों में एक घंटे से भी कम समय खर्च करते हैं और ज्यादा रुतबा रखते हैं।
भारतीय सेना की तरह पुलिस पर भरोसा क्यों नहीं है? -प्रियंका सौरभ
देश भर में हम आये दिन पुलिस द्वारा हिरासत में लिये गए लोगों की मृत्यु और यातना की घटना को सुनते हैं जिसके फलस्वरूप पुलिस की छवि पर दाग लगते है। यही नहीं अपराधी प्रवृति के लोगों में पुलिस के प्रति क्रूरता जन्म लेती है। उत्तर प्रदेश और हरियाणा में अभी-अभी पुलिस वालों के साथ हुई मुठभेड़ और पुलिस वालों का इस तरह शहीद होना भारत की विघटित होती आपराधिक न्यायिक प्रणाली की ओर इशारा करते हुए देश में पुलिस सुधार की आवश्यकता को उजागर करता है। देश में अधिकांशतः राज्यों में पुलिस की छवि तानाशाहीपूर्ण, जनता के साथ मित्रवत न होना और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने की रही है।
रोज़ ऐसे अनेक किस्से सुनने-पढ़ने और देखने को मिलते हैं, जिनमें पुलिस द्वारा अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया जाता है। पुलिस का नाम लेते ही प्रताड़ना, क्रूरता, अमानवीय व्यवहार, रौब, उगाही, रिश्वत आदि जैसे शब्द दिमाग में कौंध जाते हैं। देश भर में आज पुलिस व्यवस्था में सुधार के साथ ही न्यायिक प्रक्रियाओं के उचित उपयोग का मुद्दा भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि प्रायः यह देखा जाता है कि रिमांड के संदर्भ में याचिका स्वीकार करते हुए न्यायिक दंडाधिकारी उसकी प्रासंगिकता पर विचार नहीं करते हैं और वे पुलिस के प्रभाव से प्रभावित होते हैं।
पशुपालन से बेरोजगार बन सकते हैं आत्मनिर्भर -डॉo सत्यवान सौरभ
कोरोना संकट के कारण बाहरी प्रदेशों से बहुत से लोग वापस आए हैं और उन्हें रोजगार उपलब्ध करवाना देश के सामने बड़ी चुनौती है ऐसे में पशु पालन स्वरोजगार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हाल ही में आत्मनिर्भर भारत अभियान प्रोत्साहन पैकेज के अनुकूल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडल समिति ने 15,000 करोड़ रुपये के पशुपालन बुनियादी ढांचा विकास फंड (एएचआईडीएफ) की स्थापना के लिए अपनी मंजूरी भी दी है । डेयरी सेक्टर के लिए पशुपालन आधारभूत संरचना विकास निधि के तहत 15,000 करोड़ रुपए का बजट पेश किया गया है। डेयरी क्षेत्र में प्रोसेसिंग मे प्राइवेट इन्वेस्टर्स को बढ़ावा दिया जाएगा। डेयरी प्रसंस्करण, मूल्य संवर्धन और मवेशियों के चारे के लिए के बुनियादी ढांचे में निजी निवेशकों को जगह दी जाएगी। पशुपालन में निजी निवेश को बढ़ावा देने के लिए 15,000 करोड़ रुपए का एनीमल हसबेंडरी इंफ्रास्ट्र्रक्चर डेवलपमेंट फंड जारी किया गया है।
Read More »प्रतिभाओं का हनन–एक चर्चा
हमारे देश में प्रतिभाओं की भरमार है किंतु विडम्बना यह है कि प्रतिभाएं कराह रही है कई कई कुरीतियों, सरकारी नीतियों, समाज में व्याप्त विसंगतियों, राजनैतिक दखलंदाजी, दबाव, अनैतिक व्यवहार, दुराचार, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी व भाई-भतीजावाद के अनुचित दबाव से। यह उन प्रतिभाओं व हमारे देश समाज के लिए शुभ संकेत नीं है। दुर्भाग्यशाली हैं हम कि स्वार्थ व स्वान्तः सुखाय की अति के वशीभूत हो इन विसंगतियों को आंख मूंदकर स्वीकार कर रहे है, अपनी अंतरात्मा की अनसुनी करते हुए इसे अपने स्तर पर उचित भी ठहरा रहे हैं।
सबसे पहली विडम्बना देखिए कि किसी विशेष सामाजिक उद्देश्य-दुर्बल, पिछड़ी जाति की समता- को लेकर बनाई गई समयबद्ध सरकारी सुविधाजनक रोजगार आरक्षण व्यवस्था की उद्देश्य प्राप्ति व समय सीमा समाप्त हो जाने के उपरांत भी वह व्यवस्था राजीनीतिक व सियासी हथकंडों में फंसी समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही।कोई भी सरकारी तंत्र सत्तामोह या कहें निहितस्वार्थी सामाजिक विरोध के चलते यह कदम उठाने से कतरा रही है। जबकि सरकारी रोजगार में यह विषमता आज पूर्णतयः समाप्त ही नहीं हो गयी है बल्कि अब तो इसने सामान्य प्रतिभाओं का अतिक्रमण तक कर लिया है। प्रारम्भिक स्तर से उच्च स्तर तक सरकारी सुविधाएं प्राप्त यह वर्ग अब प्रतिभा हनन की आंख की किरकिरी बनता जा रहा है।
योगी, विकास के मामले में न्यायपालिका की भूमिका में क्यों..
दिखावे की राजनीति बंद कर ईमानदार पहल करें
भारतीय लोकतंत्र में आजकल एक नए तरह के चलन या रिवाज पैदा हो गया है। जो काम जिसका है वो काम वो न करके कोई दूसरा करने लगा है। कैसे लगता है जब कोई एक दूसरे के कार्यो में हस्तक्षेप करें। पर अब ऐसा ही होता है। कार्यपालिका के रहनुमा न्यायपालिका की भूमिका का निर्वहन कर रहे है और कार्यपालिका के ही कर्ताधर्ता न्यायपालिका को अपने हिसाब से चलाने का कुत्सित प्रयास करने लगे है।
दरअसल यहां बात कानपुर के कुख्यात अपराधी विकास दुबे द्वारा पुलिसकर्मियों की हत्या के बाद प्रदेश सरकार की जवाबी कार्रवाई के संदर्भ में हो रही है। कानपुर के चौबेपुर में हुई मुठभेड़ में शहीद हुए पुलिस कर्मियों की शहादत का बदला लेने के लिए योगी सरकार के आदेश पर कानपुर प्रशासन ने कुख्यात अपराधी विकास दुबे के घर को गिराने के साथ कार्रवाई शुरू कर दी है।
चीनी उत्पाद का बहिष्कार आसान नहीं…
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