Saturday, May 18, 2024
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लेख/विचार

कोरोना वैक्सीन कोवीशील्ड पर उठते सवाल

कोरोना वैक्सीन बनाने वाली ब्रिटिश कम्पनी एस्ट्राजेनेका ने ब्रिटिश हाईकोर्ट में लिखित रूप से यह स्वीकार किया है कि उसकी वैक्सीन के गम्भीर साइड इफेक्ट्स हैं। इसके बाद भारतीय कम्पनी सीरम इंस्टीट्यूट द्वारा बनायी जाने वाली वैक्सीन कोवीशील्ड पर भी सवाल उठने लगे हैं। क्योंकि पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ने जिस फार्मूले पर कोवीशील्ड नामक वैक्सीन बनायी है, उसे एस्ट्राजेनेका तथा ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी द्वारा तैयार किया गया था। लोकसभा चुनाव के बीच लन्दन से अचानक आई इस खबर ने भारत की जनता के होश उड़ा दिये हैं। विपक्षी दल जहाँ इसे सरकार के खिलाफ चुनावी मुद्दा बनाने की पुरजोर कोशिश में हैं वही भाजपा और उसके सहयोगी दल इस विषय से पूरी तरह बचने का प्रयास कर रहे हैं। राजनीतिक निहितार्थ कुछ भी निकाले जा रहे हों लेकिन इस मामले को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। वह भी तब जब वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स अत्यन्त गम्भीर हैं तथा इससे लोगों की मृत्यु भी हुई है। जानकारों के मुताबिक इस साइड इफेक्ट्स को थ्रोम्बोसाइटोपेनिया सिंड्रोम के साथ थ्रोम्बोसिस (टीटीएस) नाम से जाना जाता है। इससे शरीर के विभिन्न हिस्सों में खून के थक्के बन जाते हैं तथा प्लेटलेट्स की संख्या कम हो जाती है। प्लेटलेट्स वह छोटी कोशिकाएं होती हैं जो रक्त को जमने नहीं देती। इनका कम हो जाना काफी खतरनाक होता है। अमेरिका की सेंटर फॉर डिजीज कण्ट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार टीटीएस दो तरह के टियर में होते हैं।

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मदर्स डे

“इसको कहा था कि ऑफिस से छुट्टी ले ले लेकिन मेरी सुनती कहां है?” रेवती गुस्से में बड़बड़ा रही थी। “छह बजे लड़के वाले आ जाएंगे इसे देखने और अभी तो इसका तैयार होना भी बाकी है और कम से कम एक नाश्ता तो अपने हाथ का बना कर रखें क्या सब बाजार का ही खिलाएंगे?” रेवती अपने पति शंकर की ओर देखते हुए बोली।
शंकर:- “कहा तो था मैंने कि जल्दी घर आ जाना, रुको! मैं फोन करता हूं उसे। आजकल ट्रैफिक भी बहुत ज्यादा रहता है कहीं फस गई होगी।”
शंकर:- “हेलो! बेटा कहां हो? घर आने में कितनी देर है? तुम्हें पता है सब फिर भी लेट कर रही हो? चलो जल्दी घर आ जाओ।”
मुस्कान:- “जी पापा! बस निकल ही रही थी, आज काम भी जरा ज्यादा था बस आधे घंटे में आ रही हूं।”
शंकर:- “हां! ठीक है ।”
(शंकर रेवती से):- “आ रही है आधे घंटे में”
रेवती:- “भगवान करे सब ठीक से निपट जाए। आज छुट्टी ले लेती तो अच्छा होता। खैर।”
करीब पौने घंटे में मुस्कान घर आई।
मुस्कान:- “सॉरी – सॉरी जरा लेट हो गई। बस! अभी दस मिनट में रेडी हो जाती हूं।” रेवती के चेहरे पर नाराजगी के भाव थे।
मुस्कान:- “मम्मी ढोकले का गोल रेडी है ना अभी बना देती हूं।”
मुस्कान:- “अरे मम्मी! क्यों गुस्सा कर रही हो सब कुछ समय पर हो जाएगा। उन्हें आने में अभी एक घंटा बाकी है तब तक सब हो जाएगा।” रेवती बिना कुछ बोले किचन में चली जाती है। करीब आधे घंटे बाद मुस्कान पटियाला सलवार कमीज पहन कर बाहर आती है। कानों में झुमके, आंखों में काजल, गले में पतली चेन, हाथों में कड़े डालकर बहुत प्यारी लग रही थी। वो सादगी में भी बहुत अच्छी दिख रही थी।
रेवती:- “अरे! लिपस्टिक क्यों नहीं लगाई और वह पेंडेंट सेट रखा था वो पहनना था बेटा! इतना सिंपल कोई तैयार होता है क्या?”

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विश्व पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) पर विशेष: आखिर क्यों धधक रही है पृथ्वी?

न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी तथा मौसम का निरन्तर बिगड़ता मिजाज गंभीर चिंता का सबब बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विगत वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में अभी तक ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। दरअसल वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं।
प्रकृति पिछले कुछ वर्षों से बार-बार भयानक आंधियों, तूफान और ओलावृष्टि के रूप में यह गंभीर संकेत दे रही है कि विकास के नाम पर हम प्रकृति से भयानक तरीके से जिस तरह का खिलवाड़ कर रहे हैं, उसके परिणामस्वरूप मौसम का मिजाज कब कहां किस कदर बदल जाए, कुछ भी भविष्यवाणी करना मुश्किल होता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनियाभर में मौसम का मिजाज किस कदर बदल रहा है, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उत्तरी ध्रुव के तापमान में एक-दो नहीं बल्कि बड़ी बढ़ोतरी देखी गई।

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जयंतिया समुदाय का जन – जीवन

जयंतिया हिल्स का भौगोलिक स्वरूप पर्वतराज हिमालय से जुड़ा हुआ है। राजनीतिक रूप से यह मेघालय राज्य का एक जिला है जो जुलाई 2012 से ईस्ट जयंतिया हिल्स और वेस्ट जयंतिया हिल्स नामक दो जिलों से नामित है। प्राकृतिक रूप से यह उपोष्णकटिबंधीय वनों से आच्छादित है। मेगालिथिक (मोनोलिथ) पत्थरों का संग्रह अतीतकालीन समन्वय का वर्तमान साक्ष्य एवं माँ दुर्गा का नार्तियांग में अवस्थित मंदिर तथा जयंतियापुर की कहानी में जयंतिया हिल्स का समग्र परिचय विद्यमान है। सांस्कृतिक प्रयोगशाला की संज्ञा से सुशोभित पूर्वोत्तर भारत सात राज्यों का समूह है जिसमें से एक राज्य अ-सम असम की गोद में बांग्लादेश का पड़ोसी बनकर मेघालय अवस्थित है। मेघों का आलय, मेघालय अति प्राचीन क्षेत्र है जो 1972 से पहले असम का स्वायत्त क्षेत्र और उससे भी पहले अभिन्न भाग हुआ करता था। वर्तमान में इसकी राजधानी शिलॉंग (प्राचीन नाम शिवलिंग) है। मेघालय में प्रमुख तीन पहाड़िया हैं यथा, खासी हिल्स, गारो हिल्स और जयंतिया हिल्स (पूर्वी एवं पश्चिमी)। पूर्व जयंतिया हिल्स का जिला मुख्यालय ख्लेहरिहट और पश्चिम जयंतिया हिल्स का जिला मुख्यालय जोवाई है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, पूर्व जयंतिया हिल्स की जनसंख्या 1,22,939 तथा क्षेत्रफल 2040 वर्ग किलोमीटर है। पश्चिम जयंतिया हिल्स अपेक्षाकृत बड़ा है। इसकी कुल जनसंख्या 2,72,185 तथा क्षेत्रफल 3819 वर्ग किलोमीटर है। एक प्रबल मान्यता के अनुसार यहाँ के लोग इंडो-मंगोलॉयड जाति के हैं। इनकी भाषा मोन-खमेर से संबंधित एक पृथक ऑस्ट्रिक भाषा है। इनके सामाजिक उत्पत्ति के बारे में एक स्वदेशी सिद्धांत भी है जिसके अनुसार ये एक सामान्य जाति के थे जो उत्तरी भारत, बर्मा, भारत-चीन और कालान्तर में दक्षिण चीन के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिए थे।

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केंचुआ खाद: खेती के लिए एक मूल्यवान स्रोत

केचुए (earthworms) का खाद एक प्राकृतिक खाद है जो किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है। यह खाद किसानों को उनकी खेती में वृद्धि करने में मदद करती है और संतुलित खेती प्रणाली को बनाए रखने में सहायक होती है।
केचुए का खाद कैसे बनता है?
केचुए का खाद उनकी खाने को खाकर उत्पन्न होता है। वे मिट्टी में गहरे जाकर अपना खाना खाते हैं और उसे पाचन करते हैं। उनका खाना मुख्यत: नीचे लये अवशेष, जैसे कि पत्तियां, खरपतवार, और अन्य कचरे को शामिल करता है। इस प्रक्रिया में, उनका खाना मिट्टी में मिल जाता है और वे उसे अपने अंगों के माध्यम से पाचते हैं, जिससे एक प्राकृतिक खाद बनता है।
केचुए के खाद के लाभ:
पोषण सामग्री का उत्पादन: केचुए का खाद खेती में मिट्टी को सुगम और पोषण से भरपूर बनाता है, जिससे फसलों को आवश्यक पोषक तत्व मिलते हैं।
मिट्टी की गुणवत्ता: केचुए का खाद मिट्टी की गुणवत्ता को बढ़ाता है और उसकी फसलों के लिए उपयोगी गुणों को बनाए रखता है।
वायु परिसंचरण: केचुए का खाद मिट्टी के वायु परिसंचरण को बेहतर बनाता है, जिससे मिट्टी का जीवन बढ़ जाता है और फसलों को अधिक आवश्यक ऑक्सीजन प्राप्त होता है।

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होम्योपैथीः विज्ञान और स्वास्थ्य का संगम

होम्योपैथी, आधुनिक चिकित्सा के क्षेत्र में एक अद्वितीय स्थान रखती है। यह चिकित्सा पद्धति न केवल विज्ञानिक शोधों पर आधारित है, बल्कि प्राकृतिक और वैज्ञानिक सिद्धांतों पर भी आधारित है। होम्योपैथी का मूल मंत्र ‘समीलिया समीलिबस क्यूरेंटर’ है, जिसका अर्थ है ‘जैसा रोग, वैसा उपचार’। इस आधार पर, होम्योपैथी चिकित्सक रोगी के लक्षणों को ध्यान में रखते हुए उपचार करता है।
विज्ञानिक अनुसंधान और होम्योपैथी: होम्योपैथी का विज्ञानिक अनुसंधान उसकी महत्वपूर्ण विशेषता है। इसके पीछे विज्ञानिक और शोधात्मक दृष्टिकोण होता है जो न केवल उपचारों की प्रभावकारिता को बढ़ाता है, बल्कि उसकी समीक्षा करता है और बेहतर उपचारों की खोज करता है। नए और प्रभावी उपचारों के विकास में विज्ञान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
होम्योपैथी और सामाजिक स्वास्थ्य: होम्योपैथी न केवल व्यक्तिगत स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि समाज के स्वास्थ्य के लिए भी। इसका उपयोग सामाजिक स्वास्थ्य के संरक्षण में और ज्ञान के साथ सामाजिक परिवार और समाज को जोड़ने में किया जा सकता है।
होम्योपैथी की गहराई में जानें: होम्योपैथी एक अद्वितीय चिकित्सा पद्धति है जो विज्ञान, प्राकृतिक उपाय, और सामाजिक संपर्क का संगम है।

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मात्र उपवास और कन्या भोज नहीं है नवरात्र

चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा यानी नव संवत्सर का आरम्भ। ऐसा नववर्ष जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि में एक नई ऊर्जा का संचार हो रहा होता है। एक तरफ पेड़ पौधों में नई पत्तियां और फूल खिल रहे होते हैं तो मौसम भी करवट बदल रहा होता है। शीत ऋतु जा रही होती है, ग्रीष्म ऋतु आ रही होती है और कोयल की मनमोहक कूक वातावरण में रस घोल रही होती है। देखा जाए तो प्रकृति हर ओर से नवीनता और बदलाव का संदेश दे रही होती है।
सनातन संस्कृति में यह समय शक्ति की आराधना का होता है जिसे नवरात्र के रूप में मनाया जाता है। नौ दिनों तक देवी माँ के विभिन्न रूपों की पूजा की जाती है। लोग अपनी श्रद्धा और सामर्थ्य के अनुसार इन दिनों उपवास रखते हैं और कन्याभोज के साथ माता को प्रसन्न करने का प्रयास करते हैं।
दरअसल यह सनातन संस्कृति की महानता है कि इसमें अत्यंत गहरे और गूढ़ विषयों को जिनके पीछे बहुत गहरा विज्ञान छिपा है उन्हें बेहद सरलता के साथ एक साधारण मनुष्य के सामने प्रस्तुत किया जाता है। इसका सकारात्मक पक्ष तो यह है कि एक साधारण मनुष्य से लेकर एक बालक के लिए भी वो विषय गृहण करना इतना सरल हो गया कि वो उनके जीवन का उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। लेकिन इसका नकारात्मक पक्ष यह हुआ कि वो गहरे विषय हमारी दिनचर्या तक ही सीमित रह गए और उनके भाव, उनके लक्ष्य हमसे कहीं पीछे छूट गए।
नवरात्र को ही लीजिए आज यह केवल उपवास रखने और कन्या भोज कराने तक ही सीमित रह गए। इसके आध्यात्मिक वैज्ञानिक और व्यवहारिक पक्ष के विषय पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।
इसके वैज्ञानिक पक्ष की बात करें तो नवरात्र साल में चार बार मनाई जाती हैं, चैत्र नवरात्र, शारदीय नवरात्र और दो गुप्त नवरात्र। हर बार दो ऋतुओं के संकर काल में यानी एक ऋतु के जाने और दूसरी ऋतु के आने के पहले। आज विज्ञान के द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि ऋतु संकर के समय मानव शरीर बदलते वातावरण से तारतम्य बैठाने के लिए संघर्ष कर रहा होता है और इस दौरान उसकी पाचन शक्ति, उसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होती है।

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गर्मी से लड़ने की बारी, कैसे करें तैयारी

गर्मी की शुरुआत हो चुकी है। पारा धीरे धीरे अपना स्तर बढ़ा रहा है। ऐसे में यह जरूरी है कि हम भी अपने शरीर की सुरक्षा और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सतर्कता बरतें। ठण्ड के मौसम के बाद बढ़ती गर्मी बदलते मौसम के साथ साथ कई ऐसी बीमारिया भी दस्तक देती हैं जो हमारी दिनचर्या को प्रभावित कर देती हैं। गर्मी के मौसम में सेहत को लेकर कई तरह की चुनौतियां होती हैं। तेज धूप और गर्म हवा से स्किन का बुरा हाल तो होता ही है साथ में डिहाइड्रेशन, उल्टी, दस्त जैसी परेशानियों का भी सामना करना पड़ता है।
दरअसल कुछ ऐसी बीमारियां होती हैं जो मौसम के बदलने से होती हैं जैसे सर्दियों में फ्लू, कोल्ड-कफ सामान्य हैं। मानसून आते ही डेंगू, मलेरिया आदि बीमारियां होती। गर्मियों में डायरिया, फूड पॉइजनिंग की संभावनाएं बढ़ जाती है। ये बीमारियां वातावरण में जलवायु के परिवर्तन के दौरान संक्रमण काल के कारण वेक्टीरियाओं की सक्रियता से पनपती हैं। ऐसे में मौसम की मार इंसान के लिए मुसीबत का सबब भी बन जाती है।
गर्मियों में हीट स्ट्रोक, हीट रैश, अत्यधिक गर्मी से थकावट, अत्यधिक पसीना, सिर दर्द, चक्कर, हृदय गति तेज होना आदि सामान्य तौर पर देखा जाता है। हिहाइड्रेशन, फूड प्वाइजनिंग, सनबर्न , घमौरी, डायरिया का खतरा बढ़ जाता है। गर्मियों में सबसे बड़ी समस्या आमतौर पर डिहाइड्रेशन है जिसमें हमारे शरीर में पानी का संतुलन बिगड जाता है। शरीर में पानी की कमी और पानी का शरीर से बाहर निकलना बढ़ जाता है – पसीने के रूप में या पेट की खराबी से।
ऐसे में ज्यादा से ज्यादा तरल पदार्थों का सेवन करना चाहिए।

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कहानी: दुआओं का असर

विशाल ने अपनी बेटे कार्तिक के जन्मदिन पर अपने सभी रिश्तेदारों को आमंत्रित किया हुआ था। सभी उसके शानो शौकत देखकर हैरान थी कि कैसे इतना सब कुछ उसने हासिल किया । कुछ लोगों ने उसकी पत्नी को ही उसकी तरक्की का श्रेय देते हुए कहां की यह सब उसे उसकी पत्नी के प्रेम, परिश्रम और विश्वास की बदौलत ही मिला है। कुछ ने कहा कि विशाल तुम बहुत भाग्यशाली हो जो तुम्हें इतनी अच्छी पत्नी मिली जिसने तुम्हारी अधूरी पढ़ाई को पूरा करने हेतु इतना प्रेरित किया और हर कदम तुम्हारा इतना साथ दिया जिसके बदौलत तुम आज बैंक के मैनेजर बन गए हो। पर विशाल ने इसके जवाब में कहा कि इसका पूरा श्रेय हमारी माता जी को जाता है और ये उन्हीं के दुआओं का असर है कि मुझे प्रियंका जैसी नेक दिल पत्नी मिली जिसने मुझ जैसे पढ़ाई में इतने कमजोर इंसान को इतनी सफलता हासिल करने को प्रेरित किया।
व्हील चेयर पर बैठी शारदा देवी अपने बेटे की ये बातें सुनकर वहां उपस्थित मेहमानों के समक्ष अत्यंत हर्ष महसूस कर रही थीं।
शारदा देवी का विवाह खेलने खाने की उम्र में ही हो गया था। उन्हें तीन बेटे थे और बेटी एक भी नहीं थी कम उम्र मी मां बनने से तथा संयुक्त परिवार के जिम्मेदारियों को निभाते निभाते वह अक्सर बीमार रहने लगी थीं । वह अपने बहुत बड़े परिवार में इकलौती बहुत थीं।

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आलू भंडारण में सीआईपीसी स्प्रे का उपयोग

किसान आलू भंडारण देसी तरीके करते रहे हैं। इसमें एक समस्या यह है की आलू में होने वाला नुकसान 10 से 40 फ़ीसदी तक बढ़ जाता है। इससे किसानों को मिलने वाले लाभ लगभग नगन्य हो जाते हैं।
संस्थान के वैज्ञानिकों ने इन पारंपरिक प्रक्रिया में कुछ बदलाव किया जिससे आलू के नुकसान को 10 प्रतिशत से भी कम किया जा सकता है।
इन सुधारों में छप्पर लगाना, आलू को ढेरों और गड्ढो में पुआल से ढककर रखना, छिद्र युक्त पीवीसी पाइप लगाना, क्लोरोफॉर्म जैसे अंकुरण रोधी रसायन से उनका उपचार करना आदि प्रयोग शामिल हैं।
इन सुधारों को अपनाते हुए कृषक तीन से चार माह तक आलू का भंडारण कर सकते हैं।
बीज के लिए आलू का भंडारण एक फसल से दूसरी फसल तक बीज को बचाकर रख पाना बहुत जरूरी है। यह अवधि 7 से 8 महीने की होती है। बीज को शीतग्रह में रखना सबसे अच्छा माना जाता है।

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