परम्परागत लोकनाट्य विधाओं में सर्वाधिक पुष्ट एवं समृद्ध लोकनाट्य रामलीला को ही माना जाता है। सात दिन से लेकर एक माह तक की अवधि में मंचित होने वाली रामलीलाएं भारत की प्राचीन संस्कृति के सार्वभौमिक स्वरुप का दर्शन कराने में सर्वथा सक्षम हैं। बशर्ते कि मंचन करने और कराने वाले लोग रामलीला को उसके मूल स्वरूप में प्रस्तुत करने की क्षमता एवं दृढ इच्छा रखने वाले हों। रामलीला अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम के जीवन से जुड़ी घटनाओं का मात्र नाट्य रूपान्तरण नहीं है बल्कि भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के उच्च आदर्शों की गाथा है। यह गाथा है उच्च मानवीय मूल्यों की। यह गाथा है उच्च आदर्शवादी समाज की। यह गाथा है आदर्शों के उच्चतम शिखर पर दृढ़ता से खड़ी राजनीति की। यह गाथा है आदर्श परिवार की। यह गाथा है मर्यादा की सीमाओं में बंधे ईमानदार एवं दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व की।
रामलीला का प्रारम्भ किस समय अवधि में हुआ इसका ज्ञान शायद ही किसी को हो। हाँ यह अवश्य कहा जा सकता है कि लोकगीतों में रामकथा का गायन जितना पुराना है, रामलीला को भी उतना ही प्राचीन मानना चाहिए। क्योंकि लोकगीतों एवं लोकनाट्यों का अन्तः सम्बन्ध नाकारा नहीं जा सकता है। यदि यह कहा जाये कि लोकनाट्य लोकगीतों का ही नाट्य रुपान्तरण हैं तो अतिसंयोक्ति नहीं होगी। सुदूर ग्रामीण अंचलों में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ते रामकथा पर आधारित लोकनाट्य आज भी देखने को मिल जायेंगे। चित्रकूट क्षेत्र में ‘राउत’ जन समुदाय द्वारा खेले जाने वाले नाटक रामकथा पर ही आधारित हैं। उत्तरांचल का लोकनाट्य ‘रम्मान’, गुजरात का ‘भवाई’, महाराष्ट्र का ‘ललित’ तथा बंगाल का ‘जात्रा’ इसके प्रमुख उदाहरण हैं। ‘श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण’ को रामकथा का सबसे प्राचीन ग्रन्थ माना गया है। लवकुश द्वारा रामकथा का गायन भी तभी किया गया था। उसके बाद से रामकथा का गायन किसी न किसी रूप में निरन्तर होता चला आ रहा है। जो कि संस्कृत के छन्दब( श्लोकों तथा लोकभाषा दोनों ही रूपों में प्रचलित हुआ। रामलीला की प्रतिष्ठा भी इसी के साथ-साथ होती चली गयी। महाभारत तथा हरिवंश पुराण में राम के चरित्र को लेकर नाटक का उल्लेख मिलता है। संस्.त साहित्य में महाकवि भास का ‘प्रतिमा’ और ‘अभिषेक’, कालिदास का ‘हनुमान्नाटक’, भवभूति का ‘उत्तर-रामचरितम’ और ‘महावीर चरितम’, मुरारि का ‘अनर्घराघव’, मायूराज ;अनंगहर्षद्ध का ‘उदात्तराघव’, राजशेखर का ‘बाल रामायण’, केरल नरेश कुलशेखर वर्मा का ‘आश्चर्य चूड़ामणि’ तथा जयदेव का ‘प्रसन्न राघव’। रामकथा पर आधारित ये सभी नाटक मंच के लिए ही लिखे गए थे। इस तरह से गोस्वामी तुलसीदास जी के पूर्व भी भारतवर्ष में रामलीला की समृद्ध परम्परा रही है। तुलसीदास जी ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘रामचरितमानस’ के आधार पर रामकथा का मंचन प्रारम्भ कराके रामलीला को एक नया स्वरुप प्रदान किया था। रामलीला का यही स्वरूप आज भारत के कोने-कोने में लोकप्रियता के चरम पर है। तुलसीदासजी के पहले से हो रही रामलीलाएं भी अब तुलसी.त ‘रामचरितमानस’ के ही आधार पर मंचित होती हैं। उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जनपद के कुँवरपुर ग्राम की पांच सौ वर्ष से भी अधिक पुरानी रामलीला इनमें से एक है।
परम्परागत रूप से मंचित होती आ रही रामलीलाओं के इतिहास को आप यदि खंगालना शुरू करेंगे तो पाएंगे कि इन् रामलीलाओं ने समाज को सदैव दिग्भ्रमित होने से बचाया है। विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारत भूमि पर असंख्य बार किये गए आक्रमणों और अत्याचारों से लड़ने की शक्ति और सामर्थ्य समाज को सदैव रामलीला से ही प्राप्त हुआ है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में रामलीला की महती भूमिका के अनगिनत उदहारण प्राप्त होते हैं। आज भले ही रामलीला हिंदुत्व और अतिसय भक्ति के प्रदर्शन का माध्यम बनती जा रही हो। धन के अपव्यय की प्रतिस्पर्धा का केन्द्र बन रही हो। अथवा मनोरंजन के साधन के रूप में देखी जाती हो। परन्तु समाज को दिशा देने की उसकी क्षमता में कोई कमी नहीं आयी है। नित-निरन्तर नवीन वैज्ञानिक अविष्कारों से आच्छादित होते जा रहे विश्व के किसी भी देश या समाज ने रामलीला के जीवन आदर्शों से इतर किसी अन्य आदर्श विचारधारा का आविष्कार अभी तक नहीं कर पाया है। जब भी कभी समाज के नैतिक पतन तथा अवमूल्यन पर चिन्तन और मनन करने की आवश्यकता पड़ेगी। तब समाज को रामकथा या रामलीला के आदर्शों और मर्यादाओं का आधार ग्रहण करना ही पड़ेगा। जब-जब मानवता को तार-तार करने का कलुषित प्रयास होगा तथा विकृत मानसिकताएं राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती देंगी। तब-तब सतत संघर्ष की प्रेरणा रामलीला से ही प्राप्त होगी।
आज रामकथा का मंच से कहीं अधिक प्रभावी प्रदर्शन दूरदर्शन के विभिन्न चैनलों पर देखने को मिल रहा है। आधुनिक कैमरों और कम्प्यूटर के सामंजस्य से दिखाए जाने वाले दृश्य जहाँ वास्तविकता के एकदम निकट होते हैं वहीँ विभिन्न ग्रन्थों और लोक कथाओं से प्राप्त की गयी शोधपरक जानकारी का नाट्य-रूपान्तरण सदियों पुरानी घटना को और भी अधिक नवीन तथा रोचक बना रहा है। परन्तु रामकथा के उच्च आदर्शो को समाज में प्रवाहित करने की जो क्षमता रंगमंचीय रामलीला में है वह दूरदर्शन या ऐसे किसी अन्य माध्यम में प्रतीत नहीं होती है।
अतः रामलीला के मूल स्वरुप को अक्षुण्ण बनाये रखने की महती आवश्यकता है। प्रबुद्ध वर्ग की रामलीला से होती जा रही विरक्ति के कारण इसका संचालन धीरे-धीरे उन हाथों में पहुँच रहा है जो इसे मनोरंजन का साधन बनाना चाहते हैं। जिससे रामलीला के मूल स्वरुप का क्षरण होना स्वाभाविक है। अतएव प्रबुद्ध वर्ग को इसे अपना सामाजिक दायित्व समझकर इसके संरक्षण एवं संवर्धन हेतु अपनी सतत भूमिका सुनिश्चित करनी ही चाहिए। वर्ष 2005 में यूनेस्को द्वारा रामलीला को विश्व की अमूर्त धरोहर घोषित किया गया था। अतः सरकारी स्तर पर रामलीला के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विशेष कार्य-योजनायें बननी चाहिए थीं परन्तु दुर्भाग्य से किसी भी सरकार ने आज तक ऐसा कुछ भी नहीं किया। यद्यपि संगीत नाटक अकादेमी, नयी दिल्ली, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या तथा आदिवासी लोक कला परिषद, भोपाल की ओर से रामलीला के संरक्षण एव संवर्धन हेतु किये जा रहे प्रयास अति सराहनीय हैं। उसमें भी अयोध्या शोध संस्थान की इस दिशा में सतत प्रयत्नशीलता की जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम है। परन्तु इसके साथ ही सरकार को रामलीला के विकास हेतु विशेष कार्य- योजना बनाकर इसके लिए अलग से बजट देना चाहिए।
रामलीला का मंचन दो तरह से होता है। एक अव्यवसायिक कलाकारों के द्वारा दूसरा व्यावसायिक कलाकारों के द्वारा। रामलीला की निरन्तरता में व्यावसायिक कलाकारों का ही विशेष योगदान होता है। अतः सरकार को चाहिए कि वह इन व्यावसायिक कलाकारों को विशेष रूप से संरक्षण प्रदान करे। ताकि नयी पीढ़ी रामलीला की ओर आकर्षित हो सके। इसके लिए कम से कम पच्चीस से तीस रामलीला कलाकारों को केन्द्र तथा राज्य सरकार द्वारा प्रतिवर्ष पुरस्.त किया जाना चाहिए। साथ ही सभी रामलीला कलाकारों का सरकार की ओर से कम से कम दो लाख रुपये का स्वास्थ्य बीमा एवं दस लाख रुपये का जीवन सुरक्षा बीमा होना चाहिए। रामलीला कलाकारों के बच्चों को शिक्षा तथा अन्य क्षेत्रों में विशेष प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। 60 वर्ष या इससे अधिक आयु वाले रामलीला के निर्धन कलाकारों के लिए पेंशन की सुविधा होनी चाहिए। अभी तक केन्द्र और राज्य के संस्.ति मन्त्रालयों की ओर से कलाकारों को प्रदान की जाने वाली पेंशन की नियमावली में सभी विधाओं के कलाकारों को शामिल किया जाता है। इसका बजट भी बहुत कम होता है और औपचारिकतायें बहुत अधिक होती हैं। अतः रामलीला के कलाकारों के लिए अलग से पेंशन का बजट जारी किया जाना चाहिए। तभी यूनेस्को द्वारा विश्व की अमूर्त धरोहर घोषित रामलीला का सतत रूप से संरक्षण एवं संवर्धन संभव हो सकेगा।