अब जब नींद खुलती है तो एक ही ख्याल आता है कि नौकरी कब तक चलेगी और सैलेरी कब मिलेगी। सैलेरी में देर-सवेर हो जाये, लेकिन नौकरी नहीं जानी चाहिए।
मंदी के दौर में हर व्यक्ति अपनी नौकरी बचाने में लगा हुआ है। आज न कोई इम्पलाॅयी ओवर टाईम काम करने के लिए मना करता है और न ही एक्सट्रा वर्क लोड मिलने पर न-नुकुर। ‘बाॅस हमेशा सही होता है,’ इस कथनी पर आर्थिक सुस्ती ने सब को अमल करना सीखा दिया है। हर इम्पलाॅयी हर हाल में बाॅस की गुड लिस्ट में शामिल होने का प्रयास में लगा हुआ है। वो अपने काम को बेहतर लगातार बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा है ताकि मंदी के दौर में उसकी नौकरी हाथ से फिसलने से बच सके।
लेकिन ये क्या साम, दाम, दंड, भेद, मंदी के दौर में कुछ काम नही आ रहा। जो जितना अधिक एक्सपीरियंस है, उस पर खतरा उतना ही अधिक गहराया हुआ है। अरे जानाब! हाल ऐसा बना हुआ है कि इम्पलाॅयी सैलेरी में कटौती किए जाने पर भी रो-धोकर कर काम करने के लिए तैयार हो जा रहा है, उसे केवल नौकरी जाने का डर सता रहा है। हालांकि मंदी के इस दौर में फ्रेशर्स की बल्ले-बल्ले है। लागत बचाने के चक्कर में कंपनियां ज्यादा से ज्यादा फ्रेशर्स को नौकरियां दे रही हैं।
चूंकि नौकरियों की गणना का कोई निश्चित तरीका नही है, ऐसे में इस बात का अंदाजा नही लगाया जा सकता कि संकट कितना गहरा है। लेकिन जिस तरह मैन्युफेक्चरिंग में 35 लाख से ज्यादा, आटो सेक्टर में 40 लाख से ज्यादा एवं आईटी सेक्टर में 40 लाख से अधिक नौकरियों पर संकट मंडरा रहा है। उस हिसाब से कहा जा सकता है कि बेरोजगारी का स्तर अपने चरम पर पहुंच चुका है। जीडीपी में बढ़त के बाद भी नौकरी में लोगो को कोई खास बढ़त नही मिल पा रही है।
सरकार,शायद ये भूल चुकी है कि जनता एक बार मंदिर-मस्जिद का मुद्दा भूला सकती है, लेकिन जो मुद्दा उनके पेट से जुड़ा हो उसे कभी नही भूल सकती। आज नोटबंदी और जीएसटी, उस पुराने जख्म की तरह बन चुके हैं, जो कि भरने का नाम नही ले रहे। अर्थव्यवस्था की सुस्ती ने भारतीयो की जो दशा बनाई है,शायद वो उसे कभी नही भूला पायेगा और न भूल पायेगा सरकार की गलतियों को। अगर सरकार अपनी भूल से सीख लेकर अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए अपनी कमर कस लेती है तब तो वो सत्ता में दुबारा वापिसी कर पायेगी वरना दरकिनार हो जायेगी।