Tuesday, November 26, 2024
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बच्चों के सीखने में स्कूल की भूमिका : स्मृति चौधरी

स्कूल की इमारत में पहला कदम रखते समय प्रत्येक बच्चा अधिक चैतन्य, ज्यादा जिज्ञासु, कुछ नया सीखने को इच्छुक, उन चीजों से कम डरने वाला जिन्हें वह नहीं जानता, चीजों को जानने समझने में अधिक चतुर, रचनात्मक ऊर्जा से भरा हुआ, धैर्यवान और स्वतंत्र होता है। समाज के सभी व्यक्ति अभिभावक हैं, शिक्षक भी अभिभावक ही होता है। इसलिए मेरी बातों को शायद आसानी से समझ जाएंगे कि बिना औपचारिक स्कूली निर्देशों के सिर्फ आसपास की दुनिया को ध्यान से देखते हुए लोगों के संपर्क से हमारे बच्चे या छात्र तमाम जटिल और अमूर्त बातें सीख लेते हैं। वे बातें जो न तो स्कूल उन्हें कभी सीखा पाएगा और न ही कोई शिक्षक। बच्चे स्कूल जाने वाली उम्र में एक कुशल सीखने वाले होते हैं, चीजों को बार-बार करके देखना, गलतियां करना फिर अपनी गलतियों को सुधार कर वापस चीजों को पुनः कर करके देखना और सीखना उसकी आदत में शुमार होता है। लेकिन स्कूल और शिक्षक उसे एक डेस्क पर बैठा कर सिखाते हैं कि सीखना और जिंदगी जीना दोनों अलग बातें हैं। बच्चों से कहा जाता है कि तुम सब स्कूल सीखने के लिए आते हो, जैसे बच्चों ने पहले खुद कुछ सीखा ही न हो। जैसे स्कूल केवल सीखने के लिए ही है और स्कूल के बाहर सीखना सम्भव ही न हो। हम सब बच्चों को जबरदस्ती सिखाते हैं कि सीखना और जिंदगी जीना दोनों में कोई संबंध ही नहीं है। हमारे कुछ वाक्य जैसे अगर हम तुम्हें पढ़ना नहीं सिखाएंगे तो तुम उसे कभी सीख नहीं पाओगे। तुम हमारे बताये अनुसार नहीं करोगे तो तुम कभी नहीं सीखोगे। तुम्हारी जिज्ञासाएं, तुम्हारी जरूरतें, तुम्हारी भलाई, तुम्हारी बुराई सिर्फ हम ही जानते हैं। इसलिए हम सब बताएंगे कि तुम्हें क्या करना है, क्या सीखना है, क्या सोचना है आदि। इससे होता यह है कि बच्चा जल्दी ही सवाल पूछना बंद कर देता है। उसका मन निर्णय लेने में संशययुक्त हो जाता है। उसका अपने ऊपर से आत्मविश्वास समाप्त हो जाता है। उसे दूसरों का दामन पकड़ कर किए जाने वाले काम ही ठीक लगने लगते हैं, क्योंकि उसमें कोई उसकी बुराई नहीं खोजता, उसे नहीं टोकता और उसे भला बुरा भी नहीं कहता। ऐसा करके हम अनजाने में ही उसके स्वयं करके सीखने एवं उसके निर्णय लेने की क्षमता को समाप्त कर देते हैं। स्कूल और शिक्षक अपने बच्चों या छात्रों से सही उत्तर पाने की चाह में अनजाने में ही उसे झूठ बोलना, बहाने बनाना, चकमा देना, नकल करना सीखा देते हैं; जिससे वह सीखने की बजाए तथ्यों को, चीजों को रटने लगता है और वह आलसी बनना सीख जाता है। स्कूल जाने से पहले वह घंटों बिना किसी इनाम की लालसा किए काम करता था, दुनिया को समझता था, अपनी क्षमताए बढ़ाता था, खुद ही सक्रिय भूमिका में रहता था परंतु अब सबकी उम्मीदों पर खरा उतरने के लिए वह कठोर वास्तविकता से पलायन कर, झूठे सपनों में रहता है क्योंकि यहां तो हमारे बिना वह कुछ सीखने की सोच भी नहीं सकता और ऐसा ही स्कूली डांट फटकार से भी उसको महसूस होने लगता है।
हम उसे यह भी सिखाते हैं कि जीवन एक युद्ध है, एक जीतेगा तो एक हारेगा। हमने उसके जीवन को हार-जीत के खेल के मैदान में बदल दिया है, जहां किसी की मदद लेना या मदद करने को हमने नकल करार दे दिया है। इस पूरी व्यवस्था में हमने बच्चे को उदासीन, आलसी और ऐसा मनुष्य बना दिया है जो कक्षा-कक्ष में केवल अपने प्रतिद्वंदी देखता है न कि अपने हमउम्र सहपाठी जिनके साथ उसे समाज में जीवन जीना है। क्या आप सब मेरी इस बात से सहमत नहीं हैं कि ऐसा करके हम सब ने उसकी मानवीय संवेदनाएं छीनकर उसे मशीन बना दिया है?बच्चों के लिए स्कूल ऐसी जगह बन गया है जो उबाऊ है, अमानवीय है, जहां सब कुछ नकली अभिनय है, शिक्षक के सम्मान से लेकर कक्षा के वातावरण तक। जहां शिक्षक और बच्चे ईमानदारी से संवाद करने को भी स्वतंत्र नहीं है, हर कोई अपने शक और चिंताओं के साए में है। अगर हम अपने बच्चों को समाज के लिए अच्छे, संस्कारी, समझदार, जुझारू एवं आत्मविश्वासी नागरिक बनाना चाहते हैं तो स्कूलों को ऐसी जगहों में बदलना होगा जहां बच्चों को मिलजुल कर काम करने, एक दूसरे की मदद करने, एक दूसरे की गलतियों से परस्पर सीखने के अवसर मिलें, अनुभव मिलें। स्कूल ऐसी जगह बने जहां बच्चों को गलतियां करने के अवसर मिलें, अपनी गलतियों को पहचानने के अवसर मिलें, और उन्हें सुधारने के अनगिनत मौके। कोई क्या जानता है और समझता है इसे हम न तो जानते हैं और ना ही कभी जान पाएंगे, परीक्षा और प्रश्नों के द्वारा तो बिल्कुल ही नहीं जान सकते।
यह दुनिया जटिल है। तेजी से बदल रही है। स्कूल में किसी निश्चित ज्ञान के भंडार को सीख कर सारी जिंदगी उसका उपयोग कर पाना, एक निरर्थक कल्पना है। सच्चाई तो यह है कि दुनिया के सबसे ज्वलंत प्रश्न और समस्याओं का निवारण स्कूलों के पास है ही नहीं। जीवन में शांति, सहिष्णुता, सौहार्द और मानवीय मूल्यों के महत्व पर कितने पाठ्यक्रम हैं आज। बच्चों के लिए अगर कोई बात दुनिया में जीने के लिए आवश्यक होगी तो बच्चे उसका पता करके उसे स्वंय ही सीख लेंगे। किसी भी बात को केवल तभी सीखा जाता है जब उसकी जरूरत महसूस होती है। आज से बीस साल बाद जब स्कूली शिक्षा पूरी करके दुनिया में बच्चा स्वंय कदम रखेगा, तब जिस ज्ञान, कौशल और क्षमता की उसे आवश्यकता होगी, उसमें उसे स्कूलों में उपलब्ध करा ही नहीं पा रहे हैं या करा ही नहीं सकते। बच्चे जिज्ञासावश जो चुनेंगे उसमें से कुछ बातें खराब भी होंगी परंतु कुछ अच्छी बातें भी‌ तो सीखने के अवसर उन्हें मिलेंगे। जब वे उन्हें खुद से चुनेंगे तो अपने गलत चयन को वे अवश्य पहचानेंगे और उसे अवश्य बदलेंगे और यही बात सबसे महत्वपूर्ण है। अगर कोई कभी गलती ही नहीं करेगा तो उसे सुधारना कैसे सीखेगा? अगर दूसरे लोग उसकी गलती को सुधारते रहेंगे तो वह स्वयं कैसे सीखेगा? जिस बच्चे को चयन करने का कभी अवसर ही न मिला हो, वह सही चयन करने और निर्णय लेने की क्षमता पर कैसे विश्वास कर पाएगा?
प्रदर्शन उठता है कि क्या हम बच्चों को भीरु, आज्ञाकारी, कायर भेड़ों जैसा बनाना चाहते हैं या फिर मुक्त इंसानों जैसा।
लेखिका विज्ञान अध्यापिका, सहारनपुर, उत्तर प्रदेश