स्वामी विवेकानन्द ने कहा था, ‘जब तक महिलाओं की स्थिति में सुधार नहीं होगा तब तक देश आगे नहीं बढ़ सकता क्योंकि पक्षी अपने एक पंख से आकाश में नहीं उड़ सकता।’
महिलाएं हमारे देश की आबादी का आधा हिस्सा हैं। इसलिए राष्ट्र के विकास में महिलाओं की भूमिका और योगदान को पूरी तरह से सही परिप्रेक्ष्य में रखकर ही राष्ट्र निर्माण को समझा जा सकता है।
प्रागैतिहासिक युग से नवजागरण युग तक महिलाओं की प्रगति यात्रा अनेक सफलताओं और विफलताओं से भरी है। निःसंदेह, घर से बाहर आने और कामकाजी बनने से महिलाओं को एक नई पहचान मिली है जिससे उनका हौसला भी बड़ा है। विशेष उपलब्धियों, क्षमताओं, विशिष्ट कार्यशैली और प्रतिभा के बल पर महिलाएं विभिन्न क्षेत्रों में अपनी स्वतंत्र पहचान बना चुकी हैं।
महिला साक्षरता की दर बढ़ी है। उन्हें गृहलक्ष्मी के साथ-साथ कार्यलक्ष्मी बनने के भी अवसर मिले हैं। घर की रानी अब हुक्मरानी बन चुकी है। 73वें संविधान संशोधन के जरिए पंचायती राज्य संस्थाओं में एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित करने का कदम भी बहुत कारगर सिद्ध हुआ है।
तुलसीदास ने जिस पराधीनता को नारी के सबसे बड़े दुःख के रूप में देखा उसे आज की नारी ने गांव, कस्बे, नगर और महानगर सब जगह उतार फेंका है। आजकल की युवतियां किसी की परिणीता बनने के सपने नहीं देख रही है। उच्च शिक्षा प्राप्त युवतियां शादी के मुकाबले कैरियर को चुन रही हैं। हालांकि छोटे शहरों में युवतियों को आत्मनिर्भरता के अवसर बहुत कम हैं लेकिन ये युवतियां जहां भी हैं, अपने हस्ताक्षर बना रही हैं। झारखंड की नारी राहत तसनीम ने ‘कौन बनेगा करोडपति’ में एक करोड़ रूपये जीते, हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र की लड़कियां आईएएस में चयनित हो रही हैं, कामनवेल्थ गेम्स में गांव-कस्बों की लड़कियां झंडे गाड़ रही हैं। आंकड़े बताते हैं कि युवतियां अपने परिश्रम से सिर्फ अपने किस्मत ही नहीं बदल रही हैं बल्कि आने वाले समय की तस्वीर भी बदल रही है। पंचायतों में भी महिलाओं की भूमिका तारीफे काबिल है। राजस्थान की एक महिला सरपंच ने अपने ही परिवार के खिलाफ निर्णय ले डाला। ऐसी महिलाओं की दास्तान और इनकी कामयाबी हो सकता है कभी किसी बड़ी खबर का हिस्सा न बने, इन्हें कोई ईनाम भी न मिले, टीवी के किसी चैनल पर इनका चेहरा कभी दिखाई न दे, लेकिन उनकी सफलता का पिरामिड हर दिन ऊंचा होता जा रहा है।
लेकिन इस तस्वीर के दूसरे पहलू को भी हम नजरअंदाज नहीं कर सकते। मानव समुदाय की आधी आबादी का निर्माण करने वाली महिलाएं समाज के कुल कामकाज का दो तिहाई कामकाज निपटाती हैं मगर उनको समाज की कुल आमदनी का दसवां हिस्सा ही मिलता है। गरीबी और अशिक्षा में वे बहुत आगे हैं। बहुत बड़ी संख्या में वह बेरोजगार हैं। शारीरिक शोषण और दासता उनकी नियति बन चुकी हैं। राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाएं एक कमजोर अल्पसंख्यक हैं। अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष, महिला दशक, दक्षेस बालिका वर्ष और महिला सशक्तिकरण वर्ष के बावजूद महिलाओं की स्थिति में क्या बदलाव आया है- यह किसी से छुपा नहीं है। 21वीं सदी में इसे विडंबना कहें या सामाजिक विवशता कि महिलाओं की स्थिति अभी भी आशाओं और आश्वासनों पर टिकी है। यह दो पंक्तियां याद आती हैं-
‘जाने क्यों हम अभी यही खड़े हैं।
चलने को तो हम बहुत तेज चले हैं।’
वास्तव में सशक्तिकरण का यह अर्थ कदापि नहीं है कि जो शक्तिहीन और दुर्बल है उन्हें हमेशा दया और कृपा का पात्र समझा जाए तथा उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की जाए। स्वतंत्र भारत का इतिहास हमारे सामने सवाल रखता है- क्या सरकारी प्रयासों और आरक्षण के प्राविधानों मात्र से महिलाओं की स्थिति में वास्तविक और गुणात्मक सुधार हुआ है ? संभवत नहीं। इसलिए इसीलिए इस दिशा में नए विकल्प खोजने की आवश्यकता है। महिला सशक्तिकरण का वास्तविक अर्थ है।महिलाओं को इस योग्य बनाना कि वे अपनी सुविधाओं, अपनी योग्यताओं एवं क्षमताओं को प्रत्यारोपित कर सकें और अपनी निजी जिंदगी के प्रत्येक क्षेत्र को स्वशक्ति द्वारा संचालित कर सकें। सही अर्थ में महिलाओं को सशक्त नहीं सामर्थ्य बनाने की जरूरत है। इसके लिए तीन स्तरों पर प्रयास जरूरी है
1. राजनीतिक स्तरः महिला कानूनों का सही क्रियान्वयन बहुत जरूरी है। सरकारी प्रयास ‘टारगेट ओरिएंटेड’ न होकर ‘रिजल्ट ओरिएन्टेड’ होने चाहिए। इसके लिए वास्तविक सरकारी कार्यक्रम एवं योजनाएं बनाना जितना जरूरी है उतनी ही इस बात की आवश्यकता है कि उन प्रयासों के परिणामों की भी व्याख्या की जाए। सरकारी प्रयासों की असफलता का यह एक बहुत बड़ा कारण है। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि महिला समस्याओं का राजनीतिकरण न किया जाए।
2. सामाजिक स्तर: हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी। पुरुषों को समझना होगा कि नव – स्वतंत्र महिला के साथ कैसा व्यवहार किया जाए। उन्हें अपनी पितृसतात्मक प्रवृत्तियों में आवश्यक बदलाव लाने की जरूरत है। नारी संगठनों को भी नारी विरोधी मूल्यों के बुनियादी परिवर्तन के लिए ठोस वैचारिक भूमि पर और रचनात्मक स्तर पर अपने आंदोलनों को बढ़ाने की जरूरत है। बुनियादी परिवर्तन नीचे से सामाजिक शिक्षण द्वारा और ऊपर से नेताओं के चारित्रिक परोपकार द्वारा ही लाया जा सकेगा। पहला काम माता-पिता और शिक्षक करें और दूसरा नेता वर्ग तो बीच का सारा कार्य सामाजिक स्तर पर सुधारक और विशेषज्ञ मिलकर संभाल लेंगे। व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई ही महिलाओं की स्थिति में सुधार की लड़ाई हो सकती है।
3. व्यक्तिगत स्तर: अंतिम रूप से महिलाओं को अपने सशक्तिकरण की लड़ाई खुद लड़नी होगी तभी वह वास्तविक अर्थ में समर्थ बन सकेगी। महिलाओं को अपनी शक्तियों और सीमाओं दोनों की पहचान करनी होगी। अति के बाद सहने से इंकार करना भी सीखना होगा। सही अर्थ में सशक्तिकरण को स्वयं द्वारा पोषित विकास का रूप देना होगा। जिसमें महिलाएं स्वयं अपने चतुर्दिक विकास की बात समाज से कर सकें। लड़के और लड़की के अंतर को खत्म करना होगा। अधिकार पाने के लिए दायित्व को वहन करना होगा। शारीरिक रूप से कम होने के कारण नारी को मानसिक और नैतिक गुणों में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करनी होगी। इसके लिए –
(1) नारी को जागरुक बनकर अपने हक की लड़ाई के लिए आगे आना होगा ।
(2) नारी द्वारा नारी के शोषण को भी बंद करना होगा ।
(3) नारी को खुद अपनी गुलामी की बेड़ियों को तोड़ना होगा।
(4) नारी चेतना के साथ नारी अस्मिता को लेकर ही आगे बढ़ना होगा।
(5) अपनी हजारों पिछड़ी बहनों को भी साथ लेकर चलना होगा।
(6) केवल अधिकार मांगने से बात नहीं बनेगी – अधिकार की भीख नारी को छोटा बनाती है और लड़कर अधिकार पाने से कलह उत्पन्न होती है। अतः महिलाओं को अपने अधिकार स्वयं अर्जित करने होंगे।
(7) नारी को अंधी महत्वाकांक्षा की दौड़ जिसे आधुनिकता कहते हैं-से बचना होगा ।
(8) महिलाओं को स्वयं अपने सशक्तिकरण / सामर्थ्यकरण के लिए रणनीति बनानी होगी और कूटनीति से काम लेना होगा।
(9) महिलाओं को सुरक्षित नहीं स्वरक्षित बनना होगा। अन्ततः मानसिक, शारीरिक, चारित्रिक और आर्थिक इन चार स्तम्भों पर बल उपार्जित करके ही आज की महिला अपने उन्नति के साथ साथ देश के विकास में भागीदार हो सकती है। समाज की हर नारी से मेरा आवाहन है
‘प्रश्न बनकर मत जियो तुम प्रश्न का उत्तर बनो ।
कुछ करो ऐसा जहां में कि मील का पत्थर बनो।’
डॉ0 मीरा दुबे
वरिष्ठ शिक्षिका अर्थशास्त्र केन्द्रीय विद्यालय संगठन, कानपुर