Thursday, April 25, 2024
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लेख/विचार

कर्नाटक विधानसभा चुनावः कर्नाटक की राजनीति के महत्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं मठ

10 मई को कर्नाटक की कुल 224 विधानसभा सीटों पर होने जा रहे विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजरें केन्द्रित हैं कि यहां कौन किस पर कितना भारी साबित होता है। सभी दलों द्वारा अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए मतदाताओं को लुभाने के लिए हर प्रकार की कोशिशें और हर तरह की जोर आजमाइश की जा रही है। विधानसभा में इस बार भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला होने की संभावना है, वहीं, जेडीएस भी अपना वोटबैंक बनाए रखने के भरपूर प्रयास कर रहा है। इस बार का चुनावी परिदृश्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चुनावी मैदान में किस्मत आजमा रहे प्रमुख दलों कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस द्वारा स्थानीय समस्याओं और जमीनी मुद्दों को दरकिनार कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, जातिगत समीकरण, कट्टर हिन्दुत्व बनाम उदार हिन्दुत्व और क्षेत्रीय अस्मिता जैसे भावनात्मक और अति राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को ज्यादा हवा दी जा रही है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम क्या होगा, यह तो 13 मई को पता चल ही जाएगा लेकिन इस बार जिस प्रकार िंलंगायत तथा अन्य धार्मिक मुद्दे जोर-शोर से उछाले गए हैं, उसके मद्देनजर प्रदेश में जातीय अथवा सामुदायिक आधार पर स्थापित मठों की राजनीति में सक्रिय भूमिका पर नजर डालना बेहद जरूरी है। दरअसल सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं का ध्यान मठों और संतों पर केन्द्रित है और सभी दल विभिन्न मठों में जाकर संतों का समर्थन जुटाने की जुगत में लगे हैं। भाजपा हो या कांग्रेस अथवा जेडीएस, सभी राजनीतिक दल मठों के मठाधीशों की कृपा पाने के उद्देश्य से मठों में हाजिरी लगा रहे हैं। इसी कड़ी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सिद्धगंगा मठ का दौरा कर चुके हैं जबकि गृहमंत्री अमित शाह ने वोकालिग्गा समुदाय में बहुत अहम स्थान रखने वाले श्री आदिचुंचनगिरी मठ का दौरा किया। दरअसल भाजपा वोकालिग्गा मतदातों को अपनी ओर लाने के प्रयासों में जुटी है।

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विश्व रेडक्रॉस दिवस (8 मई) पर विशेष: आपदा के समय भरोसेमंद दोस्त है रेडक्रॉस

रेडक्रॉस की स्थापना महान् मानवता प्रेमी जीन हेनरी डयूनेंट द्वारा की गई थी, इसीलिए उनके जन्मदिन के अवसर पर प्रतिवर्ष विश्वभर में 8 मई का दिन ‘अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस दिवस’ के रूप में मनाया जाता है और संस्था की गतिविधियों से आम आदमी को अवगत कराने के प्रयास किए जाते हैं। रेडक्रॉस की स्थापना वर्ष 1863 में हुई थी और अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस सोसायटी दुनिया के सभी देशों में रेडक्रॉस आन्दोलन का प्रसार करने के साथ-साथ रेडक्रॉस के आधारभूत सिद्धांतों के संरक्षक के रूप में भी कार्य कर रही है। 8 मई 1828 को जन्मे डयूनेंट 1859 में हुई सालफिरोनो (इटली) की लड़ाई में घायल सैनिकों की दुर्दशा देख बहुत आहत हुए थे क्योंकि युद्धभूमि में पड़े इन घायल सैनिकों के उपचार के लिए कोई चिकित्सा व्यवस्था उपलब्ध नहीं थी। युद्ध मैदान में घायल पड़े इन्हीं सैनिकों के दर्दनाक हालातों पर अपने कड़वे अनुभवों के आधार पर उन्होंने ‘मेमोरी और सालफिरोनो’ नामक एक पुस्तक भी लिखी और 1863 में रेडक्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति ‘आईसीआरआई’ का गठन किया। डयूनेंट के सतत प्रयासों की बदौलत ही 1864 में जेनेवा समझौते के तहत ‘अंतर्राष्ट्रीय रेडक्रॉस मूवमेंट’ की स्थापना हुई।
डयूनेंट ने इटली में युद्ध के दौरान रक्तपात का ऐसा भयानक मंजर देखा था, जब चिकित्सकीय सहायता के अभाव में युद्धक्षेत्र में अनेक घायल सैनिक हृदयविदारक कष्टों से तड़प रहे थे। ऐसे घायलों की सहायता के लिए उन्होंने स्थायी समितियों के निर्माण की आवश्यकता को लेकर आवाज बुलंद की, जिसका असर भी दिखा। युद्ध में आहतों की स्थिति के सुधार के साधनों का अध्ययन करने के लिए उसके बाद एक आयोग का गठन किया गया। 1863 में जेनेवा में एक अंतर्राष्ट्रीय बैठक में रेडक्रॉस के आधारभूत सिद्धांत निर्धारित किए गए तथा रेडक्रॉस आन्दोलन का विकास करते हुए आहत सैनिकों और युद्ध पीड़ितों की सहायता संगठित करने हेतु दुनियाभर के सभी देशों में राष्ट्रीय समितियां बनाने पर जोर दिया गया। नेपोलियन तृतीय के हस्तक्षेप के चलते अंतर्राष्ट्रीय समिति ‘स्विस फेडरल काउंसिल’ को 8 अगस्त 1864 को जेनेवा में सम्मेलन बुलाने के लिए राजी करने में सफल हुई, जिसमें 26 देशों के प्रतिनिधि शामिल हुए।

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क्या यूपी के निकाय चुनाव तय करेंगे 2024 के लोकसभा चुनाव की दिशा ?

इस समय उत्तर प्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव सम्पन्न हो रहे हैं। चार मई को पहले चरण के लिए वोट पड़ चुके हैं। जबकि द्वितीय एवं अन्तिम चरण के लिए 11 मई को मतदान होगा। अगले वर्ष देश में लोकसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक नगरीय निकाय चुनाव के नतीजों पर दृष्टि लगाये हुए हैं। क्योंकि भले ही इन चुनावों का केन्द्र की राजनीति से कोई सीधा सम्बन्ध न हो परन्तु देश की वर्तमान राजनीति के तौर तरीकों ने सब कुछ गड्ड-मड्ड करके रख दिया है। जो चुनाव स्वास्थ्य, स्वच्छता, बिजली, पानी तथा सड़क जैसे विकास परक मुद्दों पर लड़े जाने चाहिए उनमें भी कानून व्यवस्था, आतंकवाद तथा विदेशी सम्बन्धों पर जोर-शोर से चर्चा होती है। साथ ही जाति एवं सम्प्रदाय के नाम पर मतदाताओं को गोलबन्द करने का प्रयास किया जाता है। शहर-कस्बों से लेकर महानगरों तक कहीं भी आप चले जाइये। मुख्य मार्गों को यदि छोड़ दें तो गलियों में जगह-जगह लगा कूड़े का ढेर, बजबजाती नालियां तथा मार्ग पर अतिक्रमण आज एक आम समस्या बन चुका है। जरा सी बरसात में सड़कें नदी बन जाती हैं। जगह-जगह घूमते आवारा पशु मार्ग दुर्घटना का कारण बन रहे हैं। शायद ही कोई ऐसी गली हो जहाँ कुत्तों का झुण्ड नजर न आये। बन्दरों के आतंक की भी खबरे यदा-कदा सुनने को मिल जाती हैं। परन्तु विडम्बना यह है कि नगरीय निकाय चुनाव में इन मुद्दों पर चर्चा करता हुआ कहीं कोई नही दिखाई देता है। इसका कारण यही हो सकता है कि या तो इन समस्याओं के प्रति प्रत्याशियों की रूचि नहीं है या फिर इनके स्थाई समाधान हेतु इनके पास कोई कार्य योजना नहीं है। अतः इमोशनल ब्लैक मेलिंग द्वारा येनकेन प्रकारेण चुनाव जीतना ही सबका परम लक्ष्य बनना स्वाभाविक है।

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दिहाड़ीदार मजदूरों की दुर्दशा के लिए जिम्मेवार कौन ?’

बदलते दौर में विभिन्न आपदाओ के कारण सबसे बड़ा संकट दिहाड़ीदार मजदूरों के लिए हुआ है। जिनके बारे देश के अंदर बहुत ही कम चर्चा हुई और इनकी आर्थिक सहायता के लिए देश की सरकार ने कुछ नहीं सोचा। कोई संदेह नहीं कि देश का मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा शोषण का शिकार है। दिहाड़ीदार मजदूर के लिए भरण-पोषण का संकट खड़ा हो गया है। शहरों में रोजी-रोटी की तलाश में आने वाले मजदूर भूख से मर रहें है दिहाड़ीदार मजदूरों के लिए जिम्मेवार कौन है ? देशभर में करोड़ों लोग दिहाड़ीदार श्रमिक हैं। एक मजदूर देश के निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाता है।
किसी भी समाज, देश संस्था और उद्योग में काम करने वाले श्रमिकों की अहमियत किसी से भी कम नहीं आंकी जा सकती। इनके श्रम के बिना औद्योगिक ढांचे के खड़े होने की कल्पना नहीं की जा सकती। दिहाड़ीदार मजदूर की गतिविधियों या डेटा के संग्रह को किसी कानूनी प्रावधान के तहत संजोकर नहीं रखा जाता है मतलब ये की सरकार इनका खाता नहीं रखती है। इन दिहाड़ीदार मजदूरो/अनौपचारिक / असंगठित क्षेत्र का जीडीपी और रोजगार में योगदान के मामले में भारतीय अर्थव्यवस्था में प्रमुख स्थान है। देश के कुल श्रमिकों में से, शहरी क्षेत्रों में लगभग 72 प्रतिशत दिहाड़ीदार/अनौपचारिक क्षेत्र में लगे हुए हैं।
शहरी विकास में दिहाड़ीदार/अनौपचारिक क्षेत्र का महत्व बहुत ज्यादा है। भारत के आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 500 मिलियन श्रमिकों के भारत के कुल कार्यबल का लगभग 90ः अनौपचारिक क्षेत्र में लगा हुआ है। यही नहीं प्रवासी दिहाड़ीदार मजदूर न केवल आधुनिक भारत, बल्कि आधुनिक सिंगापुर, आधुनिक दुबई और हर आधुनिक देश का निर्माता है जो आधुनिकता की ग्लैमर सूची में खुद को ढालता है। भारत में शहरी अर्थव्यवस्था विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के अनुरूप है, जो अनौपचारिक श्रमिकों दिहाड़ीदार मजदूरों और असंगठित क्षेत्र द्वारा लाइ गई है। देखे तो यही वो बैक-एंड इंडिया है जो आधुनिक अर्थव्यवस्था के पहियों को चालू रखने के लिए फ्रंट-एंड इंडिया को दैनिक जरूरत का समर्थन प्रदान करता है।

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आखिर क्यों धधक रही है पृथ्वी?

⇒विश्व पृथ्वी दिवस (22 अप्रैल) पर विशेष
न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर तापमान में लगातार हो रही बढ़ोतरी तथा मौसम का निरन्तर बिगड़ता मिजाज गंभीर चिंता का सबब बना है। हालांकि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए विगत वर्षों में दुनियाभर में दोहा, कोपेनहेगन, कानकुन इत्यादि बड़े-बड़े अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन होते रहे हैं किन्तु उसके बावजूद इस दिशा में अभी तक ठोस कदम उठते नहीं देखे गए हैं। दरअसल वास्तविकता यही है कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर प्रकृति के बिगड़ते मिजाज को लेकर चर्चाएं और चिंताएं तो बहुत होती हैं, तरह-तरह के संकल्प भी दोहराये जाते हैं किन्तु सुख-संसाधनों की अंधी चाहत, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि, अनियंत्रित औद्योगिक विकास और रोजगार के अधिकाधिक अवसर पैदा करने के दबाव के चलते इस तरह की चर्चाएं और चिंताएं अर्थहीन होकर रह जाती हैं।

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मकड़ी का वह जाला है कानून, जिसमें कीड़े-मकोड़े तो फंसते हैं लेकिन बड़े जानवर उसे फाड़ कर आगे निकल जाते हैं !

मान्यता है कि बुरे काम का बुरा नतीजा। सरकार दमदार हो और पत्रकार के इरादे फौलाद हो तो अपराधियों का बचना मुश्किल हो जाता है लेकिन अगर अपराधियों का राजनीतिकरण ही हो जाये तो यही काम उतना मुश्किल हो जाता है क्योंकि सरकारें स्वतः अपने हाथ अनैतिक कारनामों से रंग चुकी होतीं हैं। आप आंख उठा कर देख लें, अनेक गुंडे आज सफेद चोला पहन कर सदन में बैठे हैं।
एक तरफ मामूली से माफिया को अंडरवर्ल्ड बनाकर प्लांट करते हुए मिट्टी में मिलाया जाएगा तो दूसरी ओर हिस्ट्रीशीटर नेता जिला कप्तान के साथ बैट-बल्ला खेलता भी दिखाई देगा यानी बिल्ली चूहे के साथ ही जाम लड़ा रही है। इस आचरण को भी नजरअंदाज नही किया जा सकता है।
जैसे एक उदाहरण के रूप में हार्डेंड क्रिमिनल की हरियाणा सरकार द्वारा घोषित परिभाषा देखिए। वहां हरियाणा सरकार का लिखा-पढ़ी में दिया गया तर्क है कि गुरमीत रामरहीम को वह इसलिये बार-बार पैरोल पर छोड़ रही है क्योंकि वह कोई हार्डेंड क्रिमिनल नहीं है, इसी समाचार में इस अपराधी का निम्नांकित आपराधिक इतिहासभी बताया गया है-

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साहित्य का बेड़ा गर्द कर रहे है साहित्यिक ग्रुप्स

आजकल फेसबुक पर साहित्यिक ग्रुपों की लाईन लगी है जो कि साहित्य और लेखन को बढ़ावा देने हेतु बहुत ही सराहनीय कार्य है। इन ग्रुपों में नियमित रुप से लेखकों के बीच प्रतियोगिता का आयोजन भी होता है और तीन से पाँच प्रतिभागियों को चुनकर विजेता घोषित करके प्रशस्ति पत्र से सम्मानित भी किया जाता है। कभी-कभी तो सारे मेम्बर्स को विजेता घोषित करके प्रशस्ति-पत्र बाँटे जाते है! पर, यहाँ देखा जाता है कि न रचना का स्तर देखा जाता है, न गलतियों पर गौर किया जाता है। या तो रचना लय में ही नहीं होती है या बीस लाईन की रचना में व्याकरण की 10 त्रुटियाँ होती है। जब ऐसी रचनाओं को विजेता घोषित किया जाता है, तब ऐसा लेख लिखने को मन बेचैन हो उठता है।
पता नहीं रचना के किस पहलू का मूल्यांकन करके निर्णय लिया जाता है, ताज्जुब होता है। साहित्य के स्तर को इतना गिरा हुआ देखकर दुःख भी होता है। वैसे संचालक मंडल भी क्या करें ? अब हर रोज़ तो कुछ एक अच्छा लिखने वालों को विजेता घोषित नहीं कर सकते! इसलिए सबको खुश रखने के चक्कर में फालतू से फालतू रचनाओं को विजेता घोषित करके ये साहित्यिक ग्रुपों वाले साहित्य का बेड़ा गर्द कर रहे है और सम्मान पाकर सामान्य और निम्न स्तरीय लिखने वाले लेखक भी खुद को महान समझते उसी ढंग से लिखना चालू रखते हैं।
अगर साहित्य को बढ़ावा ही देना है तो ग्रुप को एक स्कूल की तरह बनाईये। कमज़ोर रचनाकारों की गलतियों और व्याकरण त्रुटियों को नजर अंदाज़ करने की बजाय सुधारकर लिखने को बोलिए। लेखन की शैली, शब्दों का चयन, काफ़िये का मिलना, प्रास का जुड़ना ऐसे हर पहलू को जाँच कर परिणाम घोषित करना चाहिए। मेम्बर्स को जोड़े रखने की नीति और सारे लेखकों को खुश रखने की लालच साहित्य की धज्जियां उड़ा रही है।

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पेंशन…. जायज मांग

पुरानी पेंशन बहाली की जंग हिमांचल से लेकर कर्नाटक तक फैली हुई है लेकिन कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं है। लोग नई पेंशन योजना के बजाय पुरानी पेंशन योजना को ही लागू करने की मांग कर रहे हैं। पुरानी पेंशन योजना के मसले पर सरकार की चुप्पी की क्या वजह हो सकती है? परिवार का एक मुख्य व्यक्ति जिसकी आय से पूरा घर परिवार का खर्च चलता है और बुढ़ापे में आय का स्त्रोत बंद हो जाने पर उसके गुजर-बसर की समस्या उत्पन्न होने पर वो क्या करे? दूसरे बुढ़ापे में काम ना कर पाने की लाचारी के चलते आर्थिक विषमता का भी सामना करना पड़ता है। बुजुर्गों को पेंशन देना सरकार का फर्ज है ताकि बुढ़ापे में बुजुर्ग अपने खर्च वहन कर सके और वो आर्थिक रूप से मजबूत बनी रहे।
केंद्र सरकार का यह कहना कि पेंशन देने से राजस्व पर भार पड़ता है तो यह बिल्कुल बेमानी बात है, इससे ज्यादा खर्च तो चुनाव प्रचार में हो जाता है जिसका कोई हिसाब किताब नहीं होता है। दूसरे सांसदों और विधायकों को जो पेंशन मिलती है उसमें कटौती क्यों नहीं की जाती? विधायकों और सांसदों को दी जाने वाली सुविधाओं में भी कटौती क्यों नहीं की जाती?

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नाज़ है वतन को

वतन पर कुर्बान होने वाले तनय मेरे है ज़िंदाबाद तू, सरहद की सीमाओं को सदियों तक रहेगा याद तू, नाज़ है वतन को तुझ पर है माँ भारत की प्यारी औलाद तू।
मैं उस औलाद का पिता हूँ जिसने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने आप को कुर्बान कर दिया, सीने पर गोली खाकर दुश्मनों को मात दी और जग में मेरा नाम रोशन किया। आज बेटे के शहीद होने पर खुद को भाग्यशाली समझने वाला मैं कितना डरता था बेटे को फौज में भेजने से, सच में स्वार्थी था मैं। पर कौनसा बाप जीते जी अपने बेटे को मौत की कगार पर भेज दे, जहाँ पर ज़िंदगी का कोई भरोसा नहीं होता, कभी भी मौत बिना दस्तक दिए आ धमकती है। मानवीय मूल्यों में मोह अग्रसर होता है, मुझे भी अपने बेटे राहुल के प्रति बेतहाशा लगाव और मोह था।
एक बार उसकी स्कूल में फैशन ड्रेस प्रतियोगिता थी, राहुल ने कहा पापा में फौजी बनूँगा एक रायफल और वर्दी खरीद कर दीजिए न, सारे दुश्मनों को यूँ मार दूँगा। उस पर राहुल को मैंने एक थप्पड़ लगाते कहा था खबरदार फौजी बनने का ख़याल भी मन में लाया तो, बनने के लिए और बहुत सारे किरदार है समझे। उस वक्त तो राहुल चुप हो गया पर कहते है न पुत्र के लक्षण पालने में ही दिख जाते है। राहुल के मन ने बचपन से जैसे ठान लिया था एक सिपाही बनना। ग्रेजुएट ख़त्म होते ही मैंने कहा और, आगे कौनसी लाईन लेना चाहता है मेरा बेटा? राहुल बोला पापा मैं आर्मी ज्वाइन करना चाहता हूँ। सुन कर ही मेरा खून जम गया। आज तो मैं हाथ भी नहीं उठा सकता था बेटा जवान जो हो गया था। दिल एक धड़क चूक गया, बेटे को खोने के डर से तन पसीज गया। मैंने कहा बेटा और कोई भी क्षेत्र चुन लो मैं तुम्हें फौज में नहीं जाने दूँगा, तू मेरा इकलौता बेटा है कल को तुझे कुछ हो गया तो मैं क्या करूँगा? तुम्हारी माँ भी नहीं रही मैं तो बिलकुल अकेला रह जाऊँगा, नहीं-नहीं मैं तुम्हें सरहद पर मरने नहीं भेज सकता।

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क्या है हिन्दू फोबिया का कारण ?

हिन्दू धर्म या सनातन संस्कृति जिसकी जड़ें संस्कारों के रूप में, परम्पराओं के रूप में भारत की आत्मा में अनादि काल से बसी हुई हैं।
ये भारत में ही होता है जहाँ एक अनपढ़ व्यक्ति भी परम्परा रूप से नदियों को माता मानता आया है और पेड़ों की पूजा करता आया है
आज जहां एक तरफ देश में हिन्दू राष्ट्र चर्चा का विषय बना हुआ है। तो दूसरी तरफ देश के कई हिस्सों में रामनवमी के जुलूस के दौरान भारी हिंसक उत्पात की खबरें आती हैं। एक तरफ हमारे देश में देश में धार्मिक असहिष्णुता या फिर हिन्दुफोबिया का माहौल बनाने की कोशिशें की जाती हैं तो दूसरी तरफ अमेरिका की जॉर्जिया असेंबली में ‘हिंदूफोबिया’ (हिंदू धर्म के प्रति पूर्वाग्रह) की निंदा करने वाला एक प्रस्ताव पारित किया जाता है। इस प्रस्ताव में कहा जाता है कि ‘हिंदू धर्म दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे पुराना धर्म है और दुनिया के 100 से ज्यादा देशों में 1.2 अरब लोग इस धर्म को मानते हैं। यह धर्म स्वीकार्यता, आपसी सम्मान और शांति के मूल्यों के साथ विविध परंपराओं और आस्था प्रणालियों को सम्मिलित करता है। हिन्दू धर्म के योग, आयुर्वेद, ध्यान, भोजन, संगीत और कला जैसे प्राचीन ज्ञान को अमेरिकी समाज के लाखों लोगों ने व्यापक रूप से अपना कर अपने जीवन को सुधारा है।’ एक रिपोर्ट के अनुसार 3.6 करोड़ अमरीकी योग करते हैं और 1.8 करोड़ ध्यान लगाते हैं।

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