Tuesday, April 22, 2025
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लेख/विचार

धीमा न्याय निर्भयाओं को कर रहा कमजोर

महिलाओं के विरुद्ध यौन हिंसा में संस्थागत कारकों में अपर्याप्त संसाधन वाले पुलिस बल और अप्रभावी कानून प्रवर्तन सहित संस्थागत विफलताएं, महिलाओं के खिलाफ हिंसा के जारी रहने में योगदान करती हैं। अक्सर, मामले या तो दर्ज नहीं किए जाते हैं या पूरी तरह से जांच नहीं की जाती है, जिससे सजा की दर कम होती है। 2012 में निर्भया मामले में हुई कथित देरी ने पुलिस प्रक्रियाओं और कानून प्रवर्तन में महत्वपूर्ण खामियों को उजागर किया, जिससे व्यापक सार्वजनिक आक्रोश हुआ। धीमी न्यायिक प्रक्रिया और लंबित मामले महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों की प्रभावशीलता को कमज़ोर करते हैं। विलंबित न्याय अक्सर पीड़ितों को कानूनी मदद लेने से हतोत्साहित करता है और अपराधियों को सज़ा से बचने का मौक़ा देता है। 2012 के निर्भया मामले में अभियुक्तों के मुक़दमे में लगभग आठ साल लग गए, जो महिलाओं के खिलाफ़ हिंसा के मामलों में न्याय की सुस्त गति को दर्शाता है।
-प्रियंका सौरभ
कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न अधिनियम (2013) जैसे प्रगतिशील कानूनों के अस्तित्व के बावजूद, निगरानी, जवाबदेही और संस्थागत समर्थन की कमी के कारण उनका कार्यान्वयन कमज़ोर बना हुआ है। राष्ट्रीय महिला आयोग के एक अध्ययन में पाया गया कि कई कार्यस्थलों में आंतरिक शिकायत समितियों का अभाव है, जो यौन उत्पीड़न अधिनियम को लागू करने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

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भाई की कलाई

वक्त बहुत तेजी से आगे बढ़ते जाता है और हम उसके साथ बढ़ते हुए भी पीछे रह जाते हैं यादें पीछा ही नहीं छोड़ती। बचपन में मैं घर में सभी की बहुत लाडली थी। किसी भी चीज के लिए भैया को बाद में मुझे सबसे पहले पूछा जाता था। घर में कोई भी प्रसंग हो मेरी उपस्थिति हर जगह रहती थी और मैं हर जगह आगे भी रहती थी। चंचल स्वभाव के कारण मैं सभी की नजरों में चढ़ी रहती थी। चंचला कहकर सभी लोग मुझे चिढ़ाते थे और इसी वजह से मेरा नाम भी चंचला पड़ गया था। रक्षाबंधन पर भी मेरी जिद रहती थी कि सबसे पहले राखी मैं ही बांधूंगी और मेरी राखी आगे ही होनी चाहिए लेकिन मालूम नहीं था कि ये पहले और आगे का चक्कर में मुझे भविष्य में राखी बांधने के लिए कलाई नहीं मिलेगी। शादी के बाद दूरी की वजह से मेरा जल्दी-जल्दी पीहर जाना मुश्किल हो गया था, फिर जब भी समय मिलता तो साल डेढ़ साल में एक बार जाकर आ जाती थी। घर से कभी दूर ना रहने वाली मैं स्टेशन पर पापा को देखकर ही सब सामान छोड़कर उनसे लिपट जाया करती थी। वो एक आलिंगन, वह दुलार और आंखों में सुकून उस बीते वक्त की खामी को खत्म कर देता था। भैया भी मुस्कुराते हुए पीछे से सारा सामान लेकर मुझे चिढ़ते हुए घर लेकर आते थे।

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जीवन में तीन रंगो का सामंजस्य

जिंदगी एक इंद्रधनुष है। सात रंग के सपने बुनते हुए हम अपने बीते कल से कुछ सीखते हैं। आज को संवारते हैं। और आने वाले कल के लिए उम्मीदों के बीज छोड़ जाते हैं। इन तीन पड़ावों के लिए जिंदगी के इंद्रधनुष से हमें तीन रंगों की जरूरत होती है। शौर्य के लिए केसरिया, सादगी के लिए सफेद और खुशियों के लिए हरा। जिंदगी की आजादी भी शायद इन्हीं तीन रंगों से शुरू होती है, लेकिन क्या कोई इन रंगों को हमसे चुरा ले गया है ? जीवन को क्यों जरूरत है इन रंगों की, आगे इन्हीं पर चर्चा होगी।
आज जश्न आजादी के रंग में सारी दुनिया फिर से सराबोर और होगी। बच्चे-बड़े, बुजुर्ग हर कोई इस रंग में रंगा नजर आएगा। तीन रंगों के झंडे को आसमान में लहराता देख हम गौरवांवित होंगे। आजादी का एहसास कराते इन रंगों का मेल ही ऐसा है, जो सबको अपने रंग में रंग देता है। इस रंग में रंगने के बाद हमारे अंदर की सारी नकारात्मकता दूर हो जाती है। कुछ पल के लिए ही सही, पर तिरंगे को देख मन में एक आशा की किरण जगती तो है ही।
सरकारी अव्यवस्था, शासन-प्रशासन की कमियों को लेकर अपनी जिंदगी को कब तक बेरंग करते रहेंगे हम। दूसरों की गलतियों को दिखाने और गिनाने में लगे रहेंगे, तो जीवन में निराशा, क्रोध, तनाव तो आएंगे ही। हर काम के लिए सरकार को कोसने रहने से अच्छा है कि हम भी अपना उत्तरदायित्व समझे। स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण में अपनी भूमिका भी तय करें। तिरंगे की तीन रंग यही तो हमें सिखाते हैं। अपने मन के बंधन को तोड़ इन तीन रंगों को महसूस तो कीजिए। अगर जिंदगी में ये रंग एक बार फिर से लौट आए, तो सही मायने में आजादी का अनुभव हो।

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स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर विशेष

सर सुरेंद्रनाथ बनर्जी: भारत के प्रथम राष्ट्रीय नेता की निर्माण यात्रा
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी आधुनिक भारत के अग्रदूतों में से एक थे और ब्रिटिश राज के भीतर स्वशासन के समर्थक थे। उन्होंने देश की आजादी में प्रभावशाली भूमिका निभाई। एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर के रूप में करियर शुरू करने से लेकर कांग्रेस के माध्यम से राजनीति में कदम रखने तक, उनका प्रभाव और भी अधिक बढ़ गया।
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का जन्म 10 नवंबर 1848 को कलकत्ता, भारत में हुआ था। कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने सिविल सेवा में जाने का लक्ष्य बनाया। 1868 में वे बिहारी और लाल गुप्ता रोमेश चंद्र दत्त के साथ भारतीय सिविल सेवा परीक्षा देने के लिए इंग्लैंड गए। उस समय, वे एकमात्र हिंदू थे, जिन्होंने चुनौतीपूर्ण सवालों का सामना करने के बावजूद साक्षात्कार बोर्ड को पार कर लिया था।
भारतीय सिविल सेवा के 1869 बैच के यह अधिकारी एक अनुभवी सिविल सेवक के रूप में उभर सकते थे। किंतु 1874 में कमज़ोर आधार पर सेवा से हटाए जाने के बाद उन्होंने अपनी प्राथमिकताएं दोबारा तय कीं। वे सार्वजनिक जीवन में आए। 1858 में भारत सीधे तौर पर अंग्रेजी शासन के अधीन आ गया था। बंगाल एवं बॉम्बे प्रेसिडेंसी में इससे पहले ही संवैधानिक राजनीति बढ़ गई थी। इसके बावजूद भारत के विभिन्न भागों के बीच संवादहीनता से उनका आपसी संपर्क कायम नहीं हो पाया। किंतु 1870 एवं 1880 के दशक में रेल नेटवर्क के प्रसार ने इन कमियों को दूर कर दिया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी (1848-1925) इसका लाभ उठाने के लिये सही समय पर सही व्यक्ति थे। वह अखिल भारत के प्रथम नेता के रूप में उभरे।

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विदिशा: जहां नागपंचमी पर ताले की पूजा होती है

आपने देश में जगह-जगह तरह-तरह की पूजा के बारे में सुना होगा, पर मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से सटे विदिशा शहर में एक स्थान ऐसा भी है जहां नागपंचमी पर ताले की पूजा होती है और यह किसी परम्परा या मान्यता के कारण नहीं होता बल्कि यह पूजा यहां एएसआई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग) के आदेश के कारण होती है। दिलचस्प यह है कि यह पूजा एक ऐसे मंदिर में होती है जिसकी डिजाइन पर नई लोकसभा का निर्माण हुआ है।
मध्यप्रदेश का विदिशा शहर एक ऐतिहासिक नगरी के रूप में प्रसिद्ध है। बेतवा नदी के किनारे भगवान राम के चरण यहां जिस जगह पर पड़े वह जगह यहां चरणतीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान राम के छोटे भाई शत्रुघ्न के पुत्र शत्रुघाती (कहीं-कहीं इनका नाम यूपकेतु और सुबाहु भी मिलता है) भी यहां के राजा रहे। स्कंद पुराण में उल्लेख है कि वाल्मीकि ऋषि भी इसी क्षेत्र के निवासी थे। सम्राट अशोक की पत्नी विदिशा भी यहां के नगर सेठ की कन्या थीं।

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यूपी के माननीय क्यों नहीं चाहते हैं अंग्रेजों के बनाये नजूल भूमि कानून में बदलाव

देश का कोई भी हिस्सा या राज्य हो वहां पड़ी नजूल की जमीन की स्थिति ठीक वैसी ही होती है जैसे किसी एक बच्चे के कई बाप का होना। नजूल की जमीन (सरल शब्दों में सरकारी जमीन) को सब अपनी बपौती समझते हैं। गरीब जनता की तो इतनी हिम्मत नहीं होती है कि वह सरकारी जमीन पर कब्जा कर सके,लेकिन ताकतवर लोगों जिसमें नेताओं से लेकर बड़े-बड़े अधिकारी और बिल्डर आदि शामिल होते हैं, के लिये यह जमीन सोने का अंडा देने वाली मुर्गी साबित होती है। नजूल की जमीन पर कब्जा करने का सबसे आसान तरीका है उसे लीज पर हासिल कर लेना, क्योंकि जमीन का कोई मालिक नहीं होता है इसलिये सरकारी कुर्सी पर बैठे अधिकारी और बाबू ही इसके ‘मालिक’ बन जाते हैं। वह सेटिंग के सहारे नजूल की जमीन का ‘सौदा’ कर देते हैं। इसी लिये जब नजूल भूमि कानून विधान सभा से पास होने के बाद मंजूरी के लिये विधान परिषद पहुंचा तो वहां करीब-करीब सभी दलों के माननीयों ने एकजुट होकर इसे ‘ठंडे बस्ते’ में डाल दिया। यानी माननीय नहीं चाहते हैं कि नजूल जमीन के लिये कोई ऐसा नया कानून बनें जिसके चलते नजूल की जमीन को कौड़ियों के भाव फ्री होल्ड कराने का खेल बंद हो जाये। इस कानून को लेकर सत्ता पक्ष में मनमुटाव की खबरें आने के बाद सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने तो योगी सरकार को चुनौती तक दे दी वह नजूल जमीन पर नया कानून बना ही नहीं सकते हैं। वैसे विरोध समाजवादी पार्टी की तरफ से भी कम नहीं हुआ था।

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23 साल पूर्व जब राजनाथ सरकार के ऐसे ही फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने लगा दी थी रोक

सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने अपने एतिहासिक फैसले में अनुसूचित जातियों को मिलने वाले आरक्षण प्रक्रिया मे बड़ा बदलाव करते हुए अनुसूचित जातियों में अति पिछड़ी अनुसूचति जातियों को चिन्हित करके उन्हें फायदा पहुंचाने के लिये कोटा में कोटा का जो आदेश पारित किया है। वह हिन्दुस्तान में लम्बे समय से चल रही आरक्षण की सियासत में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। अभी इस पर बीजेपी को छोड़कर किसी भी दल के बड़े नेता की प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है, फिलहाल सिर्फ बीजेपी ही अनुसूचित जातियों को कोटे में कोटा देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से गद्गद है और उसके शिक्षा मंत्री धमेन्द्र प्रधान द्वारा इसेे सत्य की जीत बताया गया है। सबसे खास बात यह है कि पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण मेें जैसे क्रीमी लेयर को बाहर रखा जाता था, वैसे ही अब एससी/एसटी को मिलने वाले आरक्षण में भी क्रीमी लेयर लागू होगी।
बहरहाल, यूपी में ऐसा ही प्रयास 23 साल पूर्व 2001 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी किया था, जिस पर राजनाथ सिंह सरकार में ही राज्य मंत्री और शिकोहाबाद से विधायक अशोक यादव अपनी ही सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गये थे और तब सुप्रीम कोर्ट ने उनके (राजनाथ सरकार) फैसले पर रोक लगा दी थी जिसे अब उसने कानून बना दिया है। अब राजनाथ सिंह मौजूदा केंद्र सरकार में गृहमंत्री हैं।

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कौन ‘लिख’ रहा है केशव के लिए ’स्क्रिप्ट’

उत्तर प्रदेश की राजनीति भारतीय जनता पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और अब डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य आजकल सबके आकर्षण का केन्द्र बने हुए हैं। पिछड़े समाज से आने वाले केशव प्रसाद मौर्य राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के एक पुराने और समर्पित कार्यकर्ता हैं। 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव के समय केशव पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष थे और बीजेपी की जीत के बाद उनके सीएम बनने की चर्चा काफी जोरों से चली थीं, लेकिन ऐन मौके पर वह सीएम की रेस से बाहर कर दिये गये, जो कारण सामने आये उसमें उनके ऊपर चल रहे आपराधिक मुकदमें अहम थे। मोदी और शाह की जोड़ी नहीं चाहती थी कि केशव प्रसाद को सीएम बनाकर वह विपक्ष को हमलावर होने का मौका दें, इसके बाद बीजेपी आलाकमान की पोटली से अप्रत्याशित रूप से योगी आदित्यनाथ का नाम सामने आया और उन्हें सीएम की कुर्सी पर बैठा दिया गया। उस समय तक योगी की पहचान एक कट्टर हिन्दूवादी नेता की होती थी और हिन्दू वाहिनी नाम से वह एक संगठन भी चलाते थे, जो काफी एग्रेसिव होकर हिन्दुत्व को प्रखरता प्रदान करता था।

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राहुल ही नहीं, कोई भी अपनी जाति बताने में शर्मसार क्यों हो ?

हिन्दुस्तान की राजनीति में क्या राहुल गांधी होना ही काफी है। वह जो सवाल सबसे पूछते हैं, वही सवाल जब उनसे कोई पूछ लेता है तो इसमें उनका अपमान कैसे हो जाता हैं? कहीं ऐसा तो नहीं वह अभी भी मध्यकालीन सामंतवादी सोच से बाहर नहीं निकल पाये हैं। यह सच है कि राहुल ऐसे परिवार से आते हैं जिसने आजादी के बाद दशकों तक सामंतवादी सोच के साथ देश पर राज किया है, जिनकी ताकत इतनी हुआ करती थी कि देश में इनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था। इनके एक इशारे पर प्रदेश की सरकारों की तकदीर बनती बिगड़ती थी। मुख्यमंत्री और सरकारें रातोंरात बदल और गिरा दी जाती थीं। इनके द्वारा राजशाही तरीके से देश को आपातकाल में झोंक दिया जाता था, जिनके द्वारा अपने हिसाब से देश की आजादी का इतिहास लिखवाया गया, जिसको चाहा अपमानित किया गया और जिसे चाह सिर आंखों पर बैठा दिया गया। इसी लिये वीर सावरकर जैसे स्वतंत्र सेनानी को यह लोग अपमानित करते हैं। सुभाष चन्द्र बोस को परेशान किया गया।

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कोचिंग सेंटर के कारनामों का काला चिट्ठा देश के सामने आना चाहिए

आखिर हत्यारी कोचिंग की जरूरत क्या है? कोचिंग तो किसी व्यक्ति का निजी होगा। यह गर्वनमेंट का तो लगता नहीं। तो इसके लिए कोई घटना इतने बड़े देश में कहीं किसी का भी लापरवाही से हो, सिस्टम कैसे दोषी हो गया ? सिस्टम इस घटना का जांच करवायेगा। और जो भी दोषी होंगे उसके खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई हो। सरकार और कोचिंग संस्थान वालो को केवल पैसा चाहिए और कुछ नहीं कोई मारे या जीए उससे उनका कोई लेना देना नहीं है। कई दूसरे कोचिंग सेंटर भी बेसमेंट में चला रहे जानलेवा लाइब्रेरी। अगर ऐसे गैर कानूनी तरीके से कोचिंग सेंटर चल रहे हैं तो उस पर कार्रवाई हो और अधिकारी पर भी कार्रवाई हो। ऐसे समय में हमें आरोप-प्रत्यारोप नहीं करना चाहिए बल्कि कार्रवाई करनी चाहिए। सरकार कोचिंग इंस्टीट्यूट्स को रेगुलेट करने के लिए कानूनी लाए और कोचिंग में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स से भी इस पर सुझाव लिया जाए। रेगुलेटर द्वारा कोचिंग संस्थानों की फीस पर भी नजर रखी जाए।

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