Sunday, November 24, 2024
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ताशकंद में हमने खोया लाल बहादुर

भाग्य और कर्म के बीच के संघर्ष में कभी कर्म जीतता है तो कभी भाग्य, किन्तु कभी-कभी दोनों के इतर प्रारब्ध बलवान हो जाता है।आध्यात्म और दर्शन के अध्येता प्रारब्ध को सर्वोपरि मानकर नियति के फ़ैसले को अंतिम निर्णय कहते हैं और प्रारब्ध सबकुछ छीनकर भी कभी-कभी उससे कहीं अधिक लौटा देता है। इसी तरह उत्तरप्रदेश के छोटे से नगर मुग़लसराय में रहने वाले लिपिक मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के घर 2 अक्टूम्बर 1904 में एक बालक का जन्म हुआ। घर के लोग उस बालक को प्यार से नन्हे कहने लगे, जिसका मूल नाम लाल बहादुर श्रीवास्तव हुआ।
गाँव की गलियों में खेलने वाला नन्हे, जिसने महज़ 18 माह की आयु में ही पिता को हमेशा के लिए खो दिया। पिता के देहांत के बाद माँ रामदुलारी नन्हे को लेकर नाना हज़ारीलाल के घर मिर्ज़ापुर आ गई पर दुर्भाग्य से कुछ ही समय बाद नाना भी चल बसे। फिर मौसा रघुनाथ प्रसाद की सहायता से नन्हे का लालन-पालन हुआ, जैसे-तैसे नन्हे ने ननिहाल में रहते हुए प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की, फिर उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। लालबहादुर ने संस्कृत में काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। और इस शास्त्री की उपाधि ने जातिगत पहचान श्रीवास्तव को गौण कर दिया, फिर लाल बहादुर शास्त्री के रूप में पहचान बनी। संघर्षों की टिक-टिक करती घड़ी ने बचपन तो छीन ही लिया पर हौंसलो ने अंगड़ाई लेना स्वीकार नहीं किया। उसी नियति ने उस अबोध बालक के रूप में भारत को दूसरा प्रधानमंत्री दिया। बात देश के दूसरे प्रधानमंत्री और भारतीय किसानों के आदर्श पुरूष की इतनी-सी है कि कर्म की घड़ी यदि निरंतर चलती रहे तो प्रारब्ध के भाल पर भाग्य विजय तिलक करता है।
1928 में शास्त्री जी का विवाह मिर्ज़ापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता और शास्त्रीजी की छ: सन्तान हुईं, दो पुत्रियाँ-कुसुम व सुमन और चार पुत्र – हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक। वैसे भी उत्तरप्रदेश की राजनैतिक मिट्टी केंद्रीय क़द तय करती है। उसी मिट्टी में लालबहादुर शास्त्री भी अपने भाग्य से कुश्ती लड़ते हुए जन सेवा के मैदान में थे। संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गान्धीवादी थे, जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्त्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही, उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं।
भारत छोड़ो आंदोलन में शास्त्री जी ने अभूतपूर्व योगदान दिया। 9 अगस्त 1942 के दिन शास्त्रीजी ने इलाहाबाद पहुँचकर अगस्त क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आन्दोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 को शास्त्रीजी गिरफ़्तार हो गये।
भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात् शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मंत्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मंत्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी।
पुलिस मंत्री होने के बाद संवेदनशील शास्त्री जी ने एक अनूठे प्रयोग को किया, जो आज तक नज़ीर बन चुका है। भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग उन्होंने प्रारम्भ कराया। आज भी पुलिस पहले लाठीचार्ज की जगह पानी की बौछार चलाती है।
पण्डित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में 1951 में शास्त्री जी अखिल भारत कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किए गए। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया।
जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ़-सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधानमंत्री का पद भार ग्रहण किया। उनके कार्यकाल में 1965 का भारत-पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी।
सन् 1965 में भारत और पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के बीच शान्ति समझौते का दौर शुरू हुआ, जिसे ताशकंद समझौता नाम दिया गया, जो भारत और पाकिस्तान के बीच 11 जनवरी, 1966 को हुआ था। इस समझौते के अनुसार यह तय हुआ कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही देश अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और अपने झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से निबटाएँगे। यह समझौता भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब ख़ाँ की लम्बी वार्ता के उपरान्त 11 जनवरी, 1966 को ताशकंद, रूस में हुआ। ‘ताशकंद सम्मेलन’ सोवियत रूस के प्रधानमंत्री द्वारा आयोजित किया गया था। इस समझौते का प्रभाव बेहद समयानुकूल और सशक्त था। क्योंकि इस समझौते के क्रियान्वयन के फलस्वरूप दोनों देशों की सेनाएँ उस सीमा रेखा पर वापस लौट गईं, जहाँ पर वे युद्ध के पूर्व में तैनात थीं। परन्तु इस घोषणा से भारत-पाकिस्तान के दीर्घकालीन सम्बन्धों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। फिर भी ताशकंद घोषणा इस कारण से याद रखी जाएगी कि इस पर हस्ताक्षर करने के कुछ ही घंटों बाद रहस्यमयी ढंग से भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की दु:खद मृत्यु हो गई।
ताशकंद में अमरीका ने वार्ता का नाटक रचा, क्योंकि कुछ माह पूर्व से भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था और पाकिस्तान चाहता था कि भारत युद्ध में जीता हिस्सा लौटा दे, किंतु शास्त्री जी नहीं चाहते थे कि जो भूभाग भारतीय सेना ने जीत लिया है वह लौटाए। कुछ इतिहासकारों की मानें तो शास्त्रीजी ताशकंद जाना भी नहीं चाहते थे, लेकिन देश के कुछ नेताओं ने देश के अंदर ऐसा माहौल पैदा किया कि शास्त्री जी को मजबूरन ताशकंद जाना पड़ा। जब हमारे देश के वो लाल ताशकंद गए तो उन्हें ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया, तब उन्होंने दो टूक शब्दों में कह दिया कि “भारत युद्ध में जीता हुआ हिस्सा वापस नहीं करेगा।” जिसके बाद दबाव भी शास्त्री जी पर डाला गया लेकिन उन्होंने कह दिया कि उनके जीवित रहते जीता हुआ हिस्सा किसी भी कीमत पर वापस नहीं होगा, देश को उनके इस फ़ैसले से बड़ा गर्व हुआ।
भारत के बहादुर ‘लाल’ पर देश घमण्ड कर रहा था, किंतु किसी को क्या पता था कि सियासी चालें ख़ुद शास्त्री जी की गर्दन काटने पर तुली हुई हैं। जिस दिन शास्त्री जी ने हस्ताक्षर किए, उसी रात को शास्त्री जी की रहस्यमयी ढंग से मौत की ख़बर भारत को दे दी गई। पूरा भारत स्तब्ध था किंतु बड़ा झटका तब लगा, जब ख़ुद भारत सरकार के हवाले से कहा गया कि शास्त्री जी को हार्टअटैक पड़ा है। लेकिन शास्त्री जी की पत्नी की मानें तो अंतिम समय जब उन्होंने शास्त्री जी को देखा तो उनका शरीर बिल्कुल नीला पड़ा हुआ था और उनका यह भी कहना था कि उनके पति को ज़हर दिया गया है।
रूस में हुए उनके पोस्टमार्टम की रिपोर्ट का सच तो छुपा दिया गया। शास्त्री जी के अपने ही देश भारत में उनकी मौत की जांच पड़ताल के बजाए उनकी मौत का सच जानने के लिए पोस्टमार्टम तक नहीं कराया गया। जिसके बाद सवाल भी उठे कि भारत आखिर सच क्यों छुपाना चाहता है? ऐसा भी बताया जाता है कि रूस ने भारत को पोस्टमार्टम रिपोर्ट भी भेजी थी, लेकिन उसे जनता को नहीं दिखाया गया। अपने ही देश में उनकी मौत का सच छिपा दिया गया, जिसके संबंध में दलील दी गई कि ये अंतरराष्ट्रीय संबंध की वजह से किया जा रहा है।
शास्त्री जी की मृत्यु के बाद कार्यवाहक के तौर पर गुलजारीलाल नंदा को प्रधानमंत्री बनाया गया और उसके बाद इंदिरा गांधी सत्ता में आईं। उनके रूस से बहुत अच्छे संबंध थे, इस वजह से भी देश को आजतक शास्त्री जी की मौत का सच सुनने को नहीं मिला और अब शास्त्री जी की मौत का रहस्य सिर्फ़ एक कभी न सुलझने वाली पहेली बनकर ही रह गया।
आखिर नियती को यही मंज़ूर था कि “जय जवान-जय किसान” का मूल मंत्र देने वाला राष्ट्र सपूत ऐसे विदा हो जाएगा। आखिर राजनीति की इस दुर्दशा पर देश मौन हो गया। शास्त्री जी की सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त उन्हें भारत रत्‍न से सम्मानित किया गया। लाल बहादुर शास्त्री एक महान व्यक्ति थे, हैं और सदा रहेंगे। क्योंकि भारत भारती के भाल पर लगे तिलक की भाँति यह लाल भी अजर-अमर है।
-डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’, पत्रकार एवं लेखक, इंदौर (म.प्र.)