किसी भी व्यवसाय के लिए एक मजबूत और स्थिर कॉरपोरेट कल्चर जरूरी है ताकि कर्मचारी उस कल्चर में खुद को सहज महसूस कर अपना महत्वपूर्ण योगदान दे सके लेकिन जब यह संस्कृति नकारात्मक हो जाती है तो इसका खामियाजा कंपनी के बजाय कर्मचारियों को भुगतना पड़ता है। कंपनी का मुनाफा तो बढ़ जाता है लेकिन कर्मचारियों पर काम के अतिरिक्त बोझ के कारण उन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। बहुत सी कंपनियाँ सकारात्मक कॉरपोरेट संस्कृति के बारे में सोचना नज़रंदाज करती हैं।
पिछले कुछ सालों में कारपोरेट कल्चर में बहुत बदलाव आया है। कंपनियाँ अपना लक्ष्य पूरा करने के लिए कर्मचारियों के ऊपर काम का दबाव बढ़ा रही है, जिसमें कर्मचारियों की सेहत भी दांव पर लग रही है। लोगों के अनुसार मैनेजमेंट अक्सर कर्मचारियों पर दबाव डालता है। जिससे वह कमर तोड़ काम करने पर मजबूर होते हैं और उनकी जीवन जीने की गुणवत्ता प्रभावित हो रही है। हालांकि कुछ लोगों का तर्क है कि यह कार्यप्रणाली सुधार और विकास के रास्ते खोलती है और बहुत से लोग अपने जुनून और महत्वाकांक्षा के चलते अधिक घंटे तक काम करने के विकल्प पर जोर देते हैं।
अभी हाल में एक अकाउंटिंग फर्म में काम करने वाली 26 साल की महिला एना सेबेस्टियन पेराइल की दुखद मौत ने सनसनी फैला दी है। नौकरी के चार महीने बाद ही उनकी तबीयत में बदलाव आने लगा। काम का अत्यधिक दबाव, अनिवार्यता और अनियमितता ने उनकी जिंदगी छीन ली। एना की मृत्यु ने इस तरह की समस्याओं से जूझ रहे अन्य लोगों को भी प्रकाश में लाया है और उन्होंने अपने ऊपर बीत रही परेशानियों को साझा किया है।
मेहर सूरी बेंगलुरु से है जिन्हें ऑफिस में 12 घंटे काम करना ही पड़ता है और छुट्टी लेने पर सैलरी काट ली जाती थी। नौकरी छोड़ने पर उनसे दो महीने की सैलरी मांगी गई। जो व्यक्ति नौकरी छोड़कर बेरोजगार हो जायेगा उससे दो महीने की सैलरी मांगी जा रही है।
सुकून मुंबई एड कंपनी में काम करते थे इनसे अकेले तीन व्यक्तियों का काम करवाया जाता था। ये घर पर भी काम लेकर आते थे नतीजा भूख और अनियमित जीवन शैली के कारण नौकरी छोड़ देनी पड़ी।
प्रिया नोएडा की रहने वाली है जर्नलिज्म के प्रोफेशन में पूरा दिन बाहर का काम करना पड़ता था और शाम को डेस्क वर्क भी करना पड़ता था। काम करने के लिए कोई वक्त तय नहीं था। नतीजा वर्कलोड के कारण काम छोड़ना पड़ा।
ऐसे कई और मामले जहां महिलाओं को मेंटली हैरेसमेंट भी किया जाता है। नतीजतन असुविधा में काम करना उनकी मजबूरी बन जाती है।
वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन के मुताबिक किसी भी व्यक्ति को हफ्ते में एवरेज 35 – 40 घंटे काम करना चाहिए। 16 -17 घंटे घर के काम और बाकी बचा समय रीक्रिएशन के लिए होना चाहिए, जिससे पर्सनल और प्रोफेशनल लाइफ में बैलेंस बना रहे। माना जाता है कि वैश्विक स्तर पर भारत में कर्मचारियों पर सबसे अधिक काम का बोझ होता है। इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में काम करने वाले आधे लोग हर सप्ताह 49 घंटे से अधिक काम करते हैं जो कि काम करने के घंटे के मामले में दुनिया में भूटान के बाद दूसरे नंबर का देश है। लक्ष्य पूरा करने की मांग को लेकर कंपनियाँ श्रम कानून को नजरंदाज कर रही है। लागत कम करने के लिए कर्मचारियों को निकालना सरल समाधान है और इसमें मुनाफा भी कंपनियों को ही होता है। विकास के मापदंडों पर खरा उतरने के लिए वह इसे जरूरी बताती है और ऊंची तनख्वाह के लालच में कर्मचारियों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है लेकिन आज बहुत जरूरी हो जाता है कि ग्रीडी कारपोरेट कल्चर में बदलाव लाया जाए। कर्मचारियों को बहुत ज्यादा काम का बोझ ना देकर एक सधा हुआ नजरिया अपनाने की जरूरत है साथ ही शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को भी नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। कर्मचारियों के ओवरटाइम का भी हिसाब रखा जाना चाहिए।
इंडियन स्कूल आफ बिजनेस में प्रोफेसर चंद्रशेखर श्रीपद का कहना है कि, ष्हम अब भी उत्पादक कार्य को कठिन श्रम से जोड़कर भ्रमित है टेक्नोलॉजी का काम है कि इंसानी श्रम को कम करना तो काम के घंटे इतने क्यों बढ़ते जा रहे हैं?ष् विकास पर ध्यान देना बहुत जरूरी हो जाता है लेकिन काम से ज्यादा व्यक्ति की जिंदगी महत्वपूर्ण है। अत्यधिक काम का बोझ कर्मचारियों के स्वास्थ्य के खिलवाड़ के साथ-साथ उसका शोषण करना भी है जिसकी कीमत अक्सर उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है।
पिछले दिनों ई वाई कर्मचारी की मृत्यु पर वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण का बयान बहुत ही असंवेदनशील था। उनका बयान पूंजीपतियों की नीति का समर्थन करता हुआ नजर आ रहा था। ग्रीडी कॉरपोरेट कल्चर शोषण को बढ़ावा दे रहा है, श्रम कानून को बदलकर उसे अपने पक्ष में कर रहा है। युवाओं की नाराजगी के चलते सरकार की आलोचना इसलिए भी की जा है कि जिसमें 18 18 घंटे काम करने की बात कही गई है तो यह एक तरह से पूंजीपतियों का समर्थन करना ही हुआ। पिछले दिनों एन आर नारायण मूर्ति ने कहा था कि युवाओं को देश के विकास में मदद करने के लिए सप्ताह में 70 घंटे काम करना चाहिए। यदि व्यक्ति 70 घंटे काम करेगा तो अपने लिए, अपने स्वास्थ्य के लिए, घर परिवार और सामाजिक रूप से सक्रिय रहने के लिए कब वक्त निकलेगा?
जब विकास की बात आती है तो यूरोपीय देशों की कार्यप्रणाली अपनाई जानी चाहिए। वहाँ प्रोफेशनल लाइफ और पर्सनल लाइफ अलग-अलग होती है और दोनों में बैलेंस बना रहता है वहां काम के घंटे 8 होते हैं और शिफ्टों में काम करने का तरीका होता है। कायदे से भारत में भी यही नीति अपनाई जानी चाहिए। 8 घंटे काम करने के, 8 घंटे आराम के और 8 घंटे सामाजिक सक्रियता के लिए रखा जाना चाहिए। बहुत से बुद्धिजीवी इस बात का समर्थन करते हैं लेकिन पूंजीपति इस नीति का समर्थन नहीं करते हैं। शिफ्टों में काम करने की पद्धति अपनाई जानी चाहिए। काम करने के घंटे सीमित होने चाहिए, उससे उत्पादकता बढ़ती है। अपने देश में मानव संसाधन की कमी नहीं है और साथ ही लोगों को रोजगार के अवसर मिलेंगे और शोषण कम होगा। यह जरूर होगा कि पूंजीपति कम होंगे लेकिन मुनाफे के साथ-साथ रोजगार के अवसर भी हासिल होंगे।
-प्रियंका वरमा माहेश्वरी, गुजरात।