Sunday, November 24, 2024
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मैं ओजोन हूं, मानव से कुछ कहना चाहती हूंः ‘मानव अपने छद्म विकास के लिए मुझे नष्ट कर रहा है, मैं रक्षक हूं भक्षक नहीं’

आज 16 सितंबर विश्व ओजोन दिवस है, वही ओजोन जो पूरे ब्रह्मांड को सूर्य की हानिकारक किरणों अर्थात पराबैंगनी विकिरणों (युवी-बी) को रोकने का कार्य करती है, मैं ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं से मिलकर बनने वाली गैस हूं, मेरा रंग हल्का नीला है साथ ही मैं समुद्र तट से 10 से 50 किलोमीटर की ऊंचाई पर समताप मंडल के निचले भाग में तीखी गंध के साथ एक विषैली गैस के रूप में विद्यमान हूं और हां मेरी मोटाई भौगोलिक स्थिति के अनुसार घटती-बढ़ती रहती है, मेरी मोटाई नापने की इकाई डॉबसन है।
वैसे मुझसे, आपको फ्रांस के दो भौतिकविदों फेबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने सन् 1913 में परिचित कराया था, इससे पहले ईश्वर के इस चमत्कार से मानव जाति अनभिज्ञ थी।
मानव जब तक वास्तव में मानव रहा तब तक मैं स्वस्थ रही साथ ही ईश्वर द्वारा दिए गए कार्य को मे बखूबी निभाती रही परंतु जैसे ही मानव स्वार्थी होकर अपने विकास में लगा तो मेरा ह्रास होने लगा, जिसकी पहली बानगी मानव को 1980 में अंटार्कटिका में देखने को मिली जहां का तापमान -80 डिग्री से भी नीचे रहता है, यह स्थान मानव जाति के लिए कब्रगाह के समान है। संपूर्ण वर्ष में सबसे ज्यादा ह्रास सितंबर और अक्तूबर मे देखने को मिला। इन्ही सब से चिंतित होकर मनुष्य ने सबसे पहले कनेडा के मॉन्ट्रियल शहर में 16 सितंबर 1987 में 31 देशों के प्रतिनिधियों के साथ मुझे स्वस्थ रखने के लिए 2050 तक सभी रसायनों पर नियंत्रण करने का लक्ष्य रखा साथ ही निर्णय लिया की हर वर्ष इसी तारीख को विश्व को मेरे प्रति जागृत करने के लिए विश्व ओजोन दिवस मनाया करेंगे। परंतु स्वार्थी मनुष्य मेरे प्रति और अपने जीवन के प्रति कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1987 में लिए गए निर्णय को धरातल पर आने में 8 वर्ष लग गए, 16 सितंबर 1995 को पहली बार विश्व ओजोन दिवस के रूप में मनाया गया, जब जन-जागरूकता दिवस मनाने में इतने वर्ष लग गए तो क्या गारंटी है कि 2050 तक मुझे नष्ट करने वाले रसायनों जैसे ब्थ्ब्, हैलोन मिथाइल क्लोराइड, मिथाइल ब्रोमाइड आदि गैसओ पर रोक लग जायेगी।
मैं अगर व्यक्तिगत रूप से भारत देश की बात करूं तो यहां जिस तेजी से विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन हो रहा है लगभग यही हाल विश्व के हर देश का है। मुझे सबसे ज्यादा खतरा वायु प्रदूषण से है जिसके लिए उद्योग, वाहन, कृषि में इस्तेमाल रसायन और अन्य अनेक कारण है जो मुझे नुकसान पहुंचा रहे है हां अगर मेरा कोई मददगार है तो वह पेड़ और अन्य वनस्पति है। मगर विकास के नाम पर तथाकथित विश्वगुरु देश में हिमालय से लेकर समुद्र तक अनावश्यक दोहन के बिना नहीं छोड़ा, हरे पेड़ो को काट कर बनाई जा रही सड़को को ग्रीन कॉरिडोर नाम दिया जा रहा है, कृषि में इस्तेमाल होने वाले बीज ऐसे तैयार किए जा रहे जो बिना रसायन होना संभव नहीं है, परिवहन व्यवस्थाओं में व्यवस्थाएं ऐसी नीतियां बना रही है कि ज्यादा से ज्यादा निजी वाहनों की बिक्री बढ़े जिससे ज्यादा से ज्यादा टैक्स के रूप में व्यवस्थाएं भी जेब भरे और उद्योगपति भी मालामाल हो। भारत विश्व में सबसे ज्यादा पेड़ काटने में दूसरे नंबर पर है और सबसे ज्यादा जलवायु परिवर्तन पर शोर मचाने वाला देश भी है। जहाँ एक तरफ हिमालय से लेकर जल जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाले हजारों लोग है वही व्यवस्थाओ से जुड़े लोग उनके विरुद्ध भी खड़े दिखाई देते है। मालूम नहीं समाज को विनाश रूपी विकास से इतना मोह क्यों है।
जीवन की शर्ताे पर क्या विकास उचित है ?
शिक्षा व्यवस्था के अनुरूप कक्षा 6 से ही मेरे विषय में युवाओं को पढ़ाया जाने लगता है, मगर वही युवा जब पेट की लड़ाई के अंतर्गत नीतिगत फैसले लेने में सक्षम होता है तो मुझे खत्म करने वाले फैसलों पर मोहर लगता है। इन फैसलों पर हस्ताक्षर करते हुये उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि इस पृथ्वी पर अन्य जीवजन्तुओ का भी हक़ है।
खैर, कोई बात नही ईश्वर ने मुझे बना कर ब्रह्मांड की रक्षा करने की जिम्मेदारी दी है। मगर आज पृथ्वी पर मानव रूपी भगवान मुझे नष्ट करने की ही सोच चुका है तो मैं क्या कर सकता हूं जैसी इसकी मर्जी, फिर भी मेरा मानव को चेतावनी देना फर्ज है वही कर रहा हूं और अंत में पुनः कहना चाहता हूं कि ‘मैं रक्षक हूं, भक्षक नही’ मुझे नष्ट करने के बाद बहुत पश्चताप करोगे फिर कुछ हाथ नहीं लगेगा, मानव जाति विलुप्त होने का ही निश्चय कर चुकी है तो मैं कोई मदद नहीं कर सकता।
विनाशकाले विपरीत बुद्धि,
अगर अस्तित्व चाहते हो तो
आओ प्रकृति की ओर लौटे।
– संजय राणा
निदेशक, एनवायरमेंट एंड सोशल रिसर्च आर्गेनाइजेशन (एस्रो)