Sunday, April 28, 2024
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लेख/विचार

कूटनीति के स्तर पर व्यर्थ का आशावाद

भारत-श्रीलंका के मध्य कतिपय मुद्दों को लेकर तनाव बना हुआ है। जल क्षेत्र और मछुआरों को लेकर प्रायः संघर्ष की स्थिति बनी रहती है। रानिल विक्रमसिंघे ने दो टूक ढंग से कह दिया है कि श्रीलंकाई जलक्षेत्र में भारतीय मछुआरों को महाजाल का प्रयोग करने की अनुमति बिल्कुल नहीं दी जाएगी। वास्तव में भारत और श्रीलंका के परस्पर संबंध पिछले कुछ दशकों से निरंतर जटिल बने रहे हैं। भारतीय पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा श्रीलंका के गृह युद्ध में हस्तक्षेप किया गया था, जिसके बाद से ही श्रीलंका और भारत के संबंधों में फिर कभी वैसी उष्मा और सहिष्णुता दिखाई नहीं पड़ सकी। श्रीलंका के पूर्व राष्ट्रपति महिंद्रा राजपक्षे के कार्यकाल के आखिरी दौर में तो भारत-श्रीलंका के द्विपक्षीय संबंध बहुत अधिक खराब हो गए थे। यह उम्मीद की जा रही थी कि श्रीलंका में सत्ता परिवर्तन के उपरांत भारत-श्रीलंका संबंधों को नई दिशा और उष्मा प्राप्त होगी, परंतु ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा है कि इस संदर्भ में सहजता के साथ आगे बढ़ा जा सकेगा। वास्तव में विदेश नीति और कूटनीति के स्तर पर कोई भी बदलाव कभी भी यकायक संभव नहीं होता। भारत प्रायः विदेश नीति के स्तर पर पड़ोसी देशों को लेकर अनावश्यक रूप से खुशफहमी तथा व्यर्थ का आशावाद पाल लेता है, जबकि विदेश नीति को सदैव राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर वास्तविकता, सतर्कता और सजगता के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। भारत को कूटनीति के मामले में चीन के आचरण और व्यवहार से बहुत कुछ सीखने की आवश्यकता है, जो कभी भी विदेश नीति के संदर्भ में अनावश्यक खुशफहमी और आशावाद कभी नहीं पालता। चीन अपने नेताओं के विदेश दौरों और विदेशी नेताओं के चीन आगमन के समय कभी भी बढ़-चढ़कर न तो बयानबाजी करता है और न ही कभी इन यात्राओं को लेकर अनावश्यक उत्साह अथवा व्यर्थ का आशावाद दिखाता है। भारत को यह समझना चाहिए कि भले ही द्विपक्षीय कूटनीतिक यात्राएं कैसा भी उत्साहपूर्ण वातावरण बनाएं, परंतु असली चीज तो देश की अपनी अंदरुनी तैयारी और स्थाई शक्ति व सामर्थ्य ही होती है। यदि हम आर्थिक एवं सैन्य दृष्टि से सक्षम और सशक्त होंगे, तो अन्य देश भी हमारा सम्मान करेंगे। विदेश नीति दिखावे की वस्तु नहीं होती, वरन यह किसी देश की बुनियादी शक्ति और क्षमताओं का प्रतिबिंब होती है।

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नोट पर चोट-राजेश गोयल

रूपये लेने के लिये
बैंक पर अपार भीड़ लगी थी।
एक पंक्ति पुरूषों  की,
दूसरी महिलाओं की खड़ी थी।
महिलाओं की पंक्ति में महाभारत की
‘कुन्ति’ और ‘गन्धारी‘ सुबह छः बजे से लगी थीं .
जनता का धमाल देख महाभारत का दृष्य
आंखों के समाने आ गया।
कुन्ति-से गन्धारी कहने लगी-
मैंने बैंक में अपने सौ पुत्रों
को पैसे लेने भेजा-
वहां से वह दो हजार के हिसाब से
सभी मिलकर दो लाख रूपये ले आये।
कुन्ती भी कहां चुप रहने वाली थी।
अरे! मुई, देख मेरे पांचों पाण्डव
द्रोपती से शादी का कार्ड दिखाकर-
ढाई लाख रूपये के हिसाब से
साढे बारह लाख रूपये लाये।
पुरूषों  की पंक्ति में लगे राजा सगर
दोनों की बात सुनकर
मुंह में उंगली दबाकर
आश्चार्यचकित होकर कहने लगे-
तभी तो मेरे साठ हजार पुत्र
पैसे लेने की चाह में पचास दिन से खड़े हैं।
जो भिखमंगे, फटेहाल,
गरीब बनकर रह गये हैं।
इनका तीन माह तो क्या
छः माह में भी नम्बर नहीं आयेगा।
इस तरह कोई भी जीवनभर
बैंक से पैसे नहीं ले पायेगा।
और सभी को सरकार द्वारा
काले धन रखने के आरोप में
गिरफ्तार कर
जेल भेजा जायेगा।

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पाक से आर-पार करने की जरूरत?

पाकिस्तान अपनी आदतों से बाज नहीं आ रहा है। पाक लगातार सीजफायर और आतंकी हमले को बढ़ावा दे रहा है। वहीं, इसका खामयाजा भारत भुगत रहा है। हर रोज सीजफायर और आए दिन आतंकी हमले करता रहता है। क्या इसे रोकने का कोई उपाए नहीं है? हिन्दुस्तान ही नहीं पूरी दुनिया जानता है कि पाकिस्तान आतंकवाद का गोरख धंधा करता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि अभी तक पाकिस्तान आतंकी देश घोषित नहीं हो पाया है पर क्यों? तो हम आप को बता दें कि पाकिस्तान को कई देश सर्पोट करते हैं और यही वजह है कि पाकिस्तान अभी तक आतंकी देश घोषित नहीं हो पाया है। 28-29 सितंबर की दरम्यानी रात हुई भारत की सर्जिकल स्ट्राइक से पाकिस्तान भूल गया है। लगता है कि पाकिस्तान फिर सर्जिकल स्ट्राइक मांग रहा है। और मुझे लगता है कि उसकी यह मांग को जल्द से जल्द पूरा कर देनी चाहिए। आप को बता दें कि पाक ने फिर आतंकी हमला करवाया है? जम्मू-कश्मीर के नगरोटा में हुआ हमला पाक ने ही करवाया है। इस साल इस प्रकार की तीसरा बड़ा आतंकी हमला है। इसके पहले पठानकोट व उरी में भी आतंकियों ने सैनिक ठिकानों को निशाना बनाया था और अपनी पाकनीति, क्रूरता का परिचय दिया था। ताजा हमले से साफ है कि आतंकवादी भारतीय सैन्य ठिकानों पर धावा बोलने के अपने तरीके पर आगे बढ़ रहे हैं। पाकिस्तान आतंकवाद का प्रयोग करके भारत में दहशत गर्दी फैलाने में लगा हुआ है। लेकिन पाकिस्तान यह भूल जाता है कि बाप-बाप होता है और बेटा-बेटा होता है। दर असल, यह पाकिस्तान सरकार और वहां के सैन्य-खुफिया तंत्र की रणनीति है, जिसे ये दहशतगर्द आगे बढ़ा रहे हैं। हम सब यह बखूबी जानते हैं कि पाकिस्तान आतंकवाद, दोगले पन को लेकर पूरी दुनिया में कुख्यात है। इनको तो घर में घुस कर मारना चाहिए जैसे पहले मारा था। तभी इन्हें फिर अपनी औकात का पता चलेगा।

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राष्ट्र गान देशभक्ती की चेतना अवश्य जगाएगा

हम सभी अपने माता पिता से प्रेम करते हैं उनका सम्मान करते हैं। हमारी संस्कृति हमें सिखाती है कि अपने दिन की शुरुआत हम अपने से बड़ों का आशीर्वाद लेकर करें और उनका स्मरण उनका आशीर्वाद लेने का कोई दिन अथवा समय निश्चित नहीं है हम जब भी चाहें ले सकते हैं  किसी विशेष दिन का इंतजार नहीं करते कि अपने जन्मदिन पर ही लेंगे या फिर नए साल पर ही लेंगे तो फिर यह देश जो हम सबकी शान है हमारा पालनहार है उसके आदर उसके सम्मान के दिन सीमित क्यों हों उसके लिए केवल कुछ विशेष दिन ही निश्चित क्यों हों ?

” एक बालक को देशभक्त नागरिक बनाना आसान है बनिस्बत एक वयस्क के क्योंकि हमारे बचपन के संस्कार ही भविष्य में हमारा व्यक्तित्व बनते हैं।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला, सिनेमा हॉल में हर शो से पहले राष्ट्र गान बजाना अनिवार्य होगा।हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है और चूँकि हम लोग अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति बेहद जागरूक हैं और हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हासिल है तो हम हर मुद्दे पर अपनी अपनी प्रतिक्रिया देते हैं और किसी भी फैसले अथवा वक्तव्य को विवाद बना देते हैं, यही हमारे समाज की विशेषता बन गई है। किसी सभ्य समाज को अगर यह महसूस होने लगे कि उसके देश का राष्ट्र गान उस पर थोपा जा रहा है और इसके विरोध में स्वर उठने लगें तो यह उस देश के भविष्य के लिए वाकई चिंताजनक विषय है।
“राष्ट्र गानदेश प्रेम से परिपूर्ण एक ऐसी   संगीत रचना जो उस देश के इतिहास  सभ्यता संस्कृति एवं उसके पूर्वजों के संघर्ष की कहानी अपने नागरिकों को याद दिलाती है । “राष्ट्र गान जिसे हम सभी ने बचपन से एक साथ मिलकर गाया है , स्कूल में हर रोज़  और 26 जनवरी 15 अगस्त को हर साल।

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बदलते ‘मौसम’ को साधने की चुनौती

पड़ोसी देश श्रीलंका भारत के लिए एक महत्वपूर्ण राष्ट्र रहा है। श्रीलंका के साथ भारत के रिश्तों में पिछले कुछ दशकों में उतार-चढ़ाव आता रहा है। भारत ने अब नए ढंग से श्रीलंका के साथ अपने द्विपक्षीय संबंधों को गति देने की कोशिश की है। हाल ही में असैन्य परमाणु समझौते के द्वारा दोनों देशों ने पुनः परस्पर विश्वास के भाव को स्पष्ट रूप से दर्शाया है। श्रीलंका ने पहली बार किसी देश के साथ इस प्रकार का असैन्य परमाणु समझौता किया है। इस समझौते के बाद भारत और श्रीलंका के मध्य कृषि और स्वास्थ्य सेवाओं सहित कतिपय अन्य क्षेत्रों में भी द्विपक्षीय सहयोग के नए मार्ग प्रशस्त होंगे। इस परमाणु समझौते से भारत और श्रीलंका के मध्य सूचना, जानकारी और विशेषज्ञता वाले अनेक क्षेत्रों में द्विपक्षीय आदान-प्रदान को नई गति मिलेगी। इसके अतिरिक्त परमाणु ऊर्जा की शांतिपूर्ण प्रयोग के क्षेत्र में संसाधनों को साझा करने, परमाणु क्षमताओं को विकास करने, परमाणु सुरक्षा तथा प्रशिक्षण के क्षेत्रों में भी इस समझौते से व्यापक लाभ होने की संभावना है। श्रीलंका एक जीवंत और मजबूत लोकतंत्र है। इससे भी अधिक अहम यह है कि इस देश में आजादी यानी 1948 के बाद से लोकतंत्र निर्बाध रूप से चल रहा है। भारत के अलावा श्रीलंका दक्षिण एशिया का दूसरा ऐसा देश है जहां कभी सेना की ओर से तख्तापलट नहीं किया गया। ऐसा नहीं है कि श्रीलंका में लोकतंत्र पूरी शांति से चल रहा है। यहां तीस साल तक भयानक गृहयुद्ध भी चला। इस युद्ध ने ऐसी विकृतियां उत्पन्न की हैं जिन्हें दूर किया जाना जरूरी हो गया है। अलग तमिल राष्ट्र की मांग को लेकर आतंक मचाने वाले संगठन लिट्टे का प्रभाव अब तमिल समुदाय में भी सीमित रह गया है। कोलंबो से शिकायतें और अनेक मतभेद रखने वाले अल्पसंख्यक तमिल समुदाय ने चुनाव में बड़ी तादाद में वोट डाले। ऐसा ही मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय ने भी किया। यह समुदाय भी सिंहली वर्चस्व की आशंका से भयभीत है। इन दोनों अल्पसंख्यक समुदायों ने मिलकर राजपक्षे को सत्ता से बाहर कर दिया। राजपक्षे के प्रति उनके साझा विरोध ने सिरीसेना का पलड़ा भारी कर दिया। जो भी हो, नतीजों की यह व्याख्या करना सही नहीं होगा कि तमिल और मुस्लिम समुदाय की एकजुटता ने गृहयुद्ध के विजेता राजपक्षे की हार सुनिश्चित कर दी। सिरीसेना इसलिए जीते, क्योंकि अल्पसंख्यक मतों को अपने पक्ष में करने के साथ वह सिंहली बौद्ध वोटों में विभाजन करने में सफल रहे। श्रीलंका में चीन की बढ़ती सक्रियता को देखते हुए भारत को विशेष रूप से सतर्क रहने की आवश्यकता है। फिलहाल श्रीलंका में सर्वाधिक निवेश करने वाला राष्ट्र चीन ही है। भारत ने भी यद्यपि उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में आधारभूत संरचना के विकास में व्यापक निवेश किया है। यह वह क्षेत्र है, जहां तमिलों की आबादी बहुत अधिक है। उत्तरी और पूर्वी श्रीलंका में भारत ने श्रीलंका को व्यापक सहयोग प्रदान किया है। इस क्षेत्र में भारत ने न केवल रेलवे लाइन बिछाई हैं, वरना सड़क मार्गों का निर्माण करने में भी बहुत बड़ा योगदान दिया है। भारत ने इस क्षेत्र में नागरिकों के रहने योग्य आवासों के निर्माण के लिए भी बहुत अधिक निवेश किया है। यद्यपि महिंद्रा राजपक्षे के नेतृत्व में पिछली श्रीलंका सरकार ने भारत के साथ वैसी गर्मजोशी भरा व्यवहार नहीं दिखाया, जैसा अपेक्षित था।

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अगर बदलाव लाना है तो कानून नहीं सोच बदलनी होगी

यह जो लड़ाई शुरू हुई है, वह न सिर्फ बहुत बड़ी लड़ाई है बल्कि बहुत मुश्किल भी है क्योंकि यहाँ सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि इस लड़ाई को वो उसी सरकारी तंत्र के ही सहारे लड़ रहे हैं जो भ्रष्टाचार में लिप्त है इसलिए लोगों के मन में सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सिस्टम वही है और उसमें काम करने वाले लोग वही हैं तो क्या यह एक हारी हुई लड़ाई नहीं है?

नोट बंदी के फैसले को एक पखवाड़े से ऊपर का समय बीत गया है  बैंकों की लाइनें छोटी होती जा रही हैं और देश कुछ कुछ संभलने लगा है।
जैसा कि होता है  , कुछ लोग फैसले के समर्थन में हैं तो कुछ इसके विरोध में  स्वाभाविक भी है किन्तु समर्थन अथवा विरोध तर्कसंगत हो तो ही शोभनीय लगता है।
जब किसी भी कार्य अथवा फैसले पर विचार किया जाता है तो सर्वप्रथम उस कार्य अथवा फैसले को लागू करने में निहित लक्ष्य देखा जाना चाहिए यदि नीयत सही हो तो फैसले का विरोध बेमानी हो जाता है।
यहाँ बात हो रही थी नोटबंदी के फैसले की  । इस बात से तो शायद सभी सहमत होंगे कि सरकार के इस कदम का लक्ष्य देश की जड़ों को खोखला करने वाले भ्रष्टाचार एवं काले धन पर लगाम लगाना था।
यह सच है कि फैसला लागू करने में देश का अव्यवस्थाओं से सामना हुआ लेकिन कुछ हद तक वो अव्यवस्था  काला धन रखने वालों द्वारा ही निर्मित की गईं थीं और आज भी की जा रही हैं।
जिस प्रकार बैंकों में लगने वाली लम्बी लम्बी कतारों के भेद खुल गए हैं उसी प्रकार आज बैंकों में अगर नगदी का संकट हैं तो उसका कारण भी यही काला धन रखने वाले लोग है।
सरकार ने जिन स्थानों को पुराने नोट लेने के लिए अधिकृत किया है वे ही कमीशन बेसिस पर कुछ ख़ास लोगों के काले धन को सफेद करने के काम में लगे हैं और जिन लोगों के पास नयी मुद्राएँ आ रही हैं  वे उन्हें बैंकों में जमा कराने के बजाय मार्केट में ही लोगों का काला धन  सफेद करके पैसा कमाने में लगे हैं  इस प्रकार बैंकों से नए नोट  निकल तो रहे हैं लेकिन वापस जमा न होने के कारण रोटेशन नहीं हो पा रहा।

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आगे-आगे देखिए होता है क्या

kanchan-pathak1000 और 500 की नोटबंदी के बाद दो तरह के लोग देखने को मिले, एक वे जो यह सोचकर खुश थे कि अब गरीब और अमीर एक जैसे हो जाएँगे और दूसरे वे लोग जिनके लिए यह घोषणा किसी सदमे से कम नहीं थी। नोटबन्दी का यह फैसला जाली नोटों के कारोबार और कालेधन पर नकेल कसने के लिए लिया गया। भारतीय अर्थव्यवस्था में जाली नोटों की समस्या एक बहुत पुरानी बीमारी है, सरकारें इससे पार पाने के लिए हमेशा से प्रयत्न करती रहीं हैं और जाली नोटों के कारोबारी तू डाल-डाल मैं पात-पात की तर्ज पर सरकार को चकमा देकर अपने तोड़ निकालते रहे हैं। यह सच है कि इन जालियों की कमर तोड़ने के लिए काफी समय से एक बेहद कठोर और निष्ठुर कदम उठाने की दरकार भी थी पर ये भी सच है कि इस सब में गेंहूँ के साथ साथ घुन भी पिस गया।
जीवनभर कपड़े सिलकर, दूध बेचकर या अपनी जिम्मेदारियाँ निभाने के लिए पूरी ईमानदारी से एक-एक पैसे बचाकर जिन्होंने दस-बीस लाख रूपये जोड़े थे उनके सर पर मानों आसमान टूट पड़ा। सबसे पहली बात तो यह कि हमारे समाज का नियम हीं ऐसा है कि जिनके पास पैसे नहीं हैं, उन्हें नीची निगाहों से देखा जाता है। इस कारण से सबलोग कुछ न कुछ बचाकर रखते हीं हैं। उनकी आँखों के आगे अँधेरा छा गया जिन्हें बेटियों की शादी करनी है क्योंकि आज भी एक आम हिन्दुस्तानी पति ससुराल से मिलने वाले पैसों के लालच से बाहर नहीं निकल पाया है। सिर्फ कानून बनाने से क्या होता है, दहेज-निरोध के कानून को ऐसे लोग अपने पैरों के नीचे रख कर चलते हैं स उन गृहणियों का कलेजा टूक-टूक हो गया जिन्होंने अपने पतियों से छुपाकर अपनी संतानों के भविष्य के लिए कुछ जोड़कर रखे थे, बहुत जागरूकता के बाद भी आज भी सारे पति एक से नहीं होते। अतिसम्पन्न ऊँचे तबके के लोगों का यह कर्तव्य होना चाहिए कि वह समाज में अच्छे सकारात्मक आदर्श प्रस्तुत करें पर जिस समाज में नोटों की इस भयानक अफरा तफरी के बीच, जहाँ अधिकतर लोगों के पास सब्जी खरीदने को भी पैसे की किल्लत हो गई, उच्चवर्ग की ओर से पाँच सौ करोड़ की शादी के आयोजन का आदर्श प्रस्तुत किया गया तो वैसे उच्चवर्गीय समाज से मध्यम या निम्नवर्ग किस आदर्श की अपेक्षा रख सकता है ….।

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एक नए भारत का सृजन

2016-11-17-1-sspjsडाँ नीलम महेंद्र, ग्वालियर (मप्र)

केन्द्र सरकार द्वारा पुराने 500 और 1000 के नोटों का चलन बन्द करने एवं नए 2000 के नोटों के चलन से पूरे देश में थोड़ी बहुत अव्यवस्था का माहौल है। आखिर इतना बड़ा देश जो कि विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में दूसरे स्थान पर हो थोड़ी बहुत अव्यवस्था तो होगी ही।
राष्ट्र के नाम अपने उद्बोधन में प्रधानमंत्री ने यह विश्वास जताया था कि इस पूरी प्रक्रिया में देशवासियों को तकलीफ तो होगी लेकिन इस देश के आम आदमी को भ्रष्टाचार और कुछ दिनों की असुविधा में से चुनाव करना हो तो वे निश्चित ही असुविधा को चुनेंगे और वे सही थे।
आज इस देश का आम नागरिक परेशानी के बावजूद प्रधानमंत्री जी के साथ है जो कि इस देश के उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत करता है।
यह बात सही है कि केवल कुछ नोटों को बन्द कर देने से भ्रष्टाचार समाप्त नहीं हो सकता इसलिए प्रधानमंत्री जी ने यह स्पष्ट किया है कि काला धन उन्मूलन के लिए अभी उनके तरकश से और तीर आना बाकी हैं।
भ्रष्टाचार इस देश में बहुत ही गहरी पैठ बना चुका था। आम आदमी भ्रष्टाचार के आगे बेबस था यहाँ तक कि भ्रष्टाचार हमारे देश के सिस्टम का हिस्सा बन चुका था जिस प्रकार हमारे देश में काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था चल रही थी उसी प्रकार सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचारियों द्वारा एक समानांतर सरकार चलायी जा रही थी।
नेताओं सरकारी अधिकारियों बड़े बड़े कारपोरेट घरानों का तामझाम इसी काले धन पर चलता था। अमीरों और गरीबों के बीच की खाई लगातार बढ़ती जा रही थी।

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अशांत पड़ोसियों से घिरा भारत

pankaj-k-singhभारत अपनी सीमाओं के चारो ओर अधिकांशतः बेचैन और अशांत पड़ोसियों से घिरा हुआ है। बांग्लादेश के संदर्भ में भी भारत कई प्रकार की शंकाओं से ग्रस्त रहा है। बांग्लादेश में प्रायः राजनैतिक अस्थिरता का वातावरण बना रहता है। बांग्लादेश की अस्थिर राजनीति का प्रभाव भारतीय सीमाओं पर भी दिखाई पड़ता है। वर्ष 2011 में शेख हसीना ने संविधान में संशोधन के द्वारा सर्वदलीय सरकार के अधीन चुनाव कराने का रास्ता प्रशस्त किया था। इसके बाद से ही बांग्लादेश में निरंतर दो बड़ी राजनैतिक प्रतिद्वंदियों-शेख हसीना व खालिदा जिया के मध्य गंभीर टकराव की स्थिति बनी हुई है। खालिदा जिया गैर दलीय सरकार के अधीन चुनाव कराने की मांग करती रही हैं। शेख हसीना के इस्तीफे की मांग भी उनके द्वारा निरंतर की जाती रही है। खालिदा जिया के बहिष्कार के बाद बांग्लादेश में हुए चुनावों को आम तौर पर निष्पक्ष चुनाव माना गया। खालिदा जिया की यह सोच थी कि जिस प्रकार 1996 में सत्ता संभालने के चार माह बाद उन्हें स्वयं दबाव में आकर चुनाव कराना पड़ा था, ऐसे ही शेख हसीना भी दबाव में आकर चुनाव कराने के लिए विवश हो जाएंगी। बांग्लादेश की राजनीति में कट्टरपंथी तत्व तेजी से हावी होते जा रहे हैं।
खालिदा जिया कट्टरपंथी संगठनों के सहारे अपनी राजनीति को आगे ले जाना चाहती हैं। आम चुनावों के बाद यह संकेत मिले हैं कि बांग्लादेश में आम जनता कट्टरपंथी तत्वों को व्यापक राजनैतिक स्तर पर प्रभावी होते नहीं देखना चाहती हैं। बांग्लादेश में ‘बीएनपी’ (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) और ‘जमायत-ए-इस्लामी’ लगभग हाशिए पर पहुंच गई हैं। भारत के लिए बांग्लादेश निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण राष्ट्र रहा है। इस पड़ोसी देश के साथ भारत के सांस्.तिक, आर्थिक, सामाजिक व व्यापक राजनैतिक संबंध रहे हैं। शेख हसीना के कार्यकाल में भारत-बांग्लादेश संबंधों को नए आयाम मिले हैं। स्पष्ट है कि बांग्लादेश में राजनैतिक अस्थिरता और कट्टरपंथी तत्वों की बढ़ती ताकत व्यापक भारतीय हितों को देखते हुए हमारे लिए शुभ नहीं हो सकती।

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‘‘निष्ठुर प्रथाएं’’

kanchan-pathakलाॅ, विधि या कानून सभ्यता के विकास के साथ-साथ रूढ़ियों, प्रथाओं और परम्पराओं को परिवर्तित कर स्वयं को विकसित करता रहा है इस क्रम में समय के साथ बहुत से बेकार नियम और कानून नष्ट होकर नए उपयोगी व व्यवहारिक कानून बनते चले आए हैं और आगे भी बनते रहेंगे। मानवीय क्रियाकलापों को अनुशाषित रखने के लिए यह युक्ति, रूपान्तरण की यह प्रक्रिया आवश्यक भी है। सदियों से चले आ रहे गलत और अन्यायपूर्ण रिवाजों को दैवी नियम या धर्म शास्त्र का आदेश कह कर अपने स्वार्थ के लिए चलाते जाना न केवल राष्ट्र के कानून व्यवस्था की त्रुटि है बल्कि उस समाज के बुद्धि जीवियों और राजनीतिक अग्रगण्यों की भी निष्फलता और ह्रदयहीनता है। सड़े गले रिवाज किसी कष्टकारी बीमारी की तरह है जिसका इलाज कराने के बजाय ढ़ोते रहना मूर्खता भी है। हाल का तीन तलाक मुद्दा ऐसी हीं एक बीमारी, एक बेकार और निष्ठुर प्रथा है जिसे जितनी जल्दी हो सके सामाजिक तथा नैतिक विधिशास्त्र के अन्तर्गत खत्म करके विधि को स्वयं को बेदाग और न्यायपूर्ण बनाना चाहिए। धर्मग्रन्थ का हवाला देकर इसे चलाते जाना मक्कारी है क्योंकि कोई भी धर्म मानव व समाज की भलाई के लिए होता है आखिर धर्म की चाबुक से स्त्रियों की खाल उधेड़ कर कोई समाज तरक्की कर सकता है क्या ? धर्मग्रन्थ की आयतों का अपने स्वार्थ और सहूलियत के हिसाब से अर्थ निकाल लेना कहाँ की बुद्धि मत्ता है ?

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