Friday, April 19, 2024
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बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करता परीक्षा बोर्ड

डाॅ.दीप कुमार शुक्ल

इस बार यू.पी. बोर्ड की लिखित परीक्षाएं 6 फरवरी से शुरू होने जा रही हैं। जबकि प्रायोगिक परीक्षाएं जनवरी माह में ही सम्पन्न हो जाएँगी। जिसके कारण कड़ाके की ठण्ड में भी हाईस्कूल तथा इण्टर के छात्र-छात्राओं को विद्यालय बुलाया जा रहा है। ऐसी भीषण सर्दी में बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करके परीक्षा बोर्ड घनघोर संवेदनहीनता का ही परिचय दे रहा है। जुलाई की जगह एक अप्रैल से नया सत्र चालू करने की प्रक्रिया को दुरुस्त करने के चक्कर में ही यह सारी कवायद की जा रही है। इसी कारण वर्ष 2016 में 18 फरवरी से 21 मार्च के बीच परीक्षाओं को सम्पन्न कराया गया था। जबकि वर्ष 2017 में विधान सभा चुनाव के कारण 16 मार्च से 18 अप्रैल के बीच परीक्षाएं करायी गयी थीं। इस वर्ष 2018 में 6 फरवरी से 10 मार्च के बीच परीक्षाएं सम्पन्न कराके बोर्ड एक अप्रैल तक परीक्षा परिणाम देना चाहता है। ताकि नया सत्र अप्रैल माह से सुचारू रूप से चलाया जा सके।
आजादी के बाद सबसे अधिक खिलवाड़ अगर किसी के साथ हुआ है तो वह शिक्षा ही है। उत्कृष्ट शिक्षा के नाम पर हो रहे नित नये प्रयोगों ने भारत की शिक्षा व्यवस्था को अन्ततोगत्वा चैपट ही किया है। शिक्षा का नया सत्र कभी जुलाई से शुरू किया गया था। जो बीते कुछ वर्षों पूर्व तक बना रहा। प्रश्न उठता है कि शिक्षा के नये सत्र की शुरुआत के लिए तब जुलाई माह को ही क्यों चुना गया था? निश्चित रूप से ऐसा मौसम की अनुकूलता के कारण ही किया गया होगा। एक जुलाई से नया सत्र शुरू होता था। उस समय प्रायः बरसात का मौसम होता है। बच्चे नयी कक्षाओं में प्रवेश लेते थे। जुलाई माह में प्रवेश प्रक्रिया सम्पन्न होती थी और अगस्त आते-आते पढ़ाई शुरू हो जाती थी। दिसम्बर माह में छमाही परीक्षाएं होती थीं। उसके बाद शीतकालीन अवकाश हो जाता था। जनवरी माह में सर्दी की न्यूनता और अधिकता के हिसाब से विद्यालय खुलते थे। जबकि फरवरी भर जम कर पढ़ाई होती थी और मार्च के प्रथम सप्ताह में प्रायोगिक परीक्षायें शुरू हो जाती थीं। 15 मार्च के आसपास वार्षिक परीक्षाएं होने लगती थीं। जो कि अप्रैल माह तक चलती थीं। उसके बाद गर्मियों की छुट्टियाँ हो जाती थीं। इस बीच शिक्षक परीक्षा पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में जुट जाते थे और जून तक परीक्षा परिणाम आ जाता था। इस प्रक्रिया से जहाँ कड़ाके की ठण्ड में बच्चे परीक्षा के दबाव से मुक्त रहते थे वहीँ भीषण गर्मी में भी उन पर पढ़ाई का बोझ नहीं रहता था। गर्मियों की छुट्टी में मेधावी बच्चे पाठ्यक्रम से इतर अतिरिक्त ज्ञानार्जन भी कर लेते थे। जबकि नयी व्यवस्था के तहत भीषण सर्दी में ही बच्चों के उपर परीक्षा का दबाव आ गया है। सर्दी का प्रकोप इतना अधिक है कि आये दिन बच्चे बीमार पड़ रहे हैं। बीमार पड़ने के बावजूद भी उन्हें विद्यालय जाना पड़ रहा है। विद्यालय प्रबन्धन भी बच्चों के भविष्य के साथ कोई जोखिम नहीं लेना चाहता है। अतः न चाहते हुए भी उसे बच्चों को विद्यालय में बुलाना पड़ रहा है। परन्तु न तो परीक्षा बोर्ड को बच्चों के स्वास्थ्य की चिन्ता है और न ही सरकार को। बच्चे बीमार होकर मरें तो मर जाएँ। इससे शायद ही किसी को कोई फर्क पड़े। अगर सब को चिन्ता है तो केवल इस बात की कि शिक्षा का सत्र किसी भी तरह से एक अप्रैल से सुचारू रूप से चलने लगे। भले ही इसकी कीमत मासूम बच्चों को अपनी जान देकर ही क्यों न चुकानी पड़े। अगर कभी चुनाव पड़ गए तो फिर परीक्षा की तिथि आगे बढ़ाने से किसी को भी गुरेज नहीं होता है। फरवरी माह में भी सुबह शाम जमकर सर्दी पड़ती है। ऐसे में विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षकों के लिए भी समस्या है। क्योंकि उन्हें तो छात्रों से लगभग एक घंटा पहले विद्यालय आना होता है और परीक्षा समाप्त होने के लगभग एक घण्टे बाद ही जाना हो पाता है। जिनमें महिलाएं और बुजुर्ग शिक्षक भी होते हैं। फरवरी माह में दिन भी छोटा होता है। ऐसी अनेक व्यावहारिक परेशनियाँ हैं परन्तु इन परेशानियों का आभास सम्भवता किसी को भी नहीं है।
देश की अर्थ व्यवस्था का सत्र एक अप्रैल से चलता है इसलिए सरकार शिक्षा व्यवस्था का सत्र भी एक अप्रैल से चलाना चाहती है। परन्तु सरकार के रणनीति कारों को यह बात भी समझनी चाहिए कि शिक्षा के अतिरिक्त देश के अन्य जितने भी विभाग हैं उनमें किसी से भी बच्चों का कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता है। उनसे अगर किसी का सम्बन्ध होता है तो वह हैं उस विभाग के अधिकारी और कर्मचारी। जबकि शिक्षा विभाग का सीधा सम्बन्ध बच्चों से होता है। अतः शिक्षा व्यवस्था का संचालन बच्चों की सुविधा के अनुसार ही होना चाहिए। यह इस देश की बिडम्बना ही है कि शिक्षा की नीतियाँ वे लोग बनाते हैं जो कि वातानुकूलित घरों में रहते हैं, वातानुकूलित गाड़ियों में चलते हैं और कामकाज निपटाने के लिए भी उनके लिए वातानुकूलित कार्यालय बनाये जाते हैं। ऐसे लोगों को सामान्य बच्चों की व्यावहारिक परेशानियों का आभास भला कैसे हो सकता है। जबकि होना तो यह चाहिए कि शिक्षा की सभी नीतियाँ शिक्षकों को ही बनाने दी जाएँ। अगर यह सम्भव न हो सके तो शिक्षा का पाठ्यक्रम तय करने से लेकर परीक्षा की तिथियों तक के निर्धारण की प्रक्रिया में बाल मनोवैज्ञानिकों तथा बाल चिकित्सकों की न केवल सलाह लेनी चाहिए बल्कि उन पर पूरी तरह से अमल भी करना चाहिए। शिक्षा मात्र औपचरिकता नहीं बल्कि संस्कार है। जिससे देश के भविष्य का निर्धारण होता है। स्वस्थ्य शरीर में ही स्वस्थ्य मस्तिस्क का विकास होता है और स्वस्थ्य मस्तिस्क के अभाव में किसी को भी शैक्षणिक रूप से उत्कृष्ट बना पाना सम्भव नहीं है। यदि शिक्षा विभाग के सत्र की कदम ताल देश की अर्थ व्यवस्था के साथ करानी इतनी अधिक आवश्यक है तो शिक्षा का सत्र बदलने की अपेक्षा देश की अर्थ व्यवस्था का ही सत्र बदला जाना चाहिए। क्योंकि शिक्षा ही देश का आधार है और शिक्षा ही देश का भविष्य है। बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करना देश के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना ही है।