ठिठुरी धरती ठिठुरा सा गगन
तरु वल्लरी भी स्तब्ध गहन
थर-थर काँपे गिरि वन नदिया
किसी विधि नहीं हो ये ठंढ वहन
भूली बुलबुल कुजन किल्लोल
किसने दी ऋतू में बरफ घोल।
कलि क्लांत सुकोमल खिल न सकी
दुपहर तक रवि से मिल न सकी
बिरहा की सर्द शिथिलता में
रुक-रुक बरबस लेती सिसकी
मौसम पर सिहरन को जड़ कर
अदृश्य हुई रवि रश्मि लोल ।
किसने दी ऋतू में बरफ घोल ।।
दलकाता एक एक तन्तु को
यह शीत लहर हर जन्तु को
कम्बल में भी घुस घुस जाता
भरमा कर किन्तु परन्तु को
लम्बी पारी निशिपति खेले
दिनमान धरे पग नाप तौल ।
किसने दी ऋतू में बरफ घोल ।
प्रभु अग्निदेव तुम धन्य धन्य
तुम सा नहीं प्रियकर कोई अन्य
हर ओर शिशिर की मनमानी
दसों दिशा प्रकम्पित शीत जन्य
एक तुम हीं अपनी कुनकुन से
देते पुलकन के द्वार खोल ।
किसने दी ऋतू में बरफ घोल ।।