Thursday, May 2, 2024
Breaking News
Home » सम्पादकीय » शिक्षा का गिरता स्तर, जिम्मेदार कौन ?

शिक्षा का गिरता स्तर, जिम्मेदार कौन ?

बिना शिक्षित समाज के किसी भी देश को विकसित बनाना असम्भव है अर्थात बिना समुचित शिक्षा की व्यवस्था के बिना विकास बेमानी व कल्पना मात्र है। भारत में आजादी के बाद से ही शिक्षा का स्तर दिनों दिन गिरता चला आया है। सरकारी पाठशालाओं के हालात तो किसी से छिपे नहीं। शिक्षा के दयनीय हालातों के चलते ही इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु भारत सरकार ने सन 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पारित किया। इस अधिकार के तहत 6 से 14 वर्ष तक के बालक व बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान किया गया। इसका उद्देश्य यह था कि बिना किसी भेदभाव के बालक बालिकाओं को समान रूप से शिक्षा की उपलब्ध हो और गुणवत्तापरक शिक्षा उन्हें मिल सके। लेकिन कटु किन्तु सत्य यह है कि शिक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार होता नहीं दिखाई दे रहा है। तमाम योजनायें चलाई जा रही हैं लेकिन वो ढाक के तीन पात वाली कहावत को चरित्रार्थ कर रहीं हैं। शिक्षा का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है जो सबसे चिंताजनक विषय है।
सरकारी विद्यालयों में बच्चों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य से मिड-डे-मील, वर्दी, स्वेटर जूता-मोजा आदि की उपलब्धता कराने की व्यवस्था की गई लेकिन वह भ्रष्टाचार से हांथ मिलाती नजर आ रही है। प्राथमिक शिक्षालयों में कहीं मध्यान भोजन खाकर बच्चे बीमार पड़ते हैं तो कहीं पर उन बच्चों को पढ़ाने की जिम्मेदारी निभाने वाले मास्टर साहब अनुपस्थित मिलते हैं। ऐसी खबरें अखबारों एवं टीवी चैनलों में आया ही करती है। समस्या तब और भयावह लगती है जब जाँच के दौरान यह पता लगता है कि पांचवीं में पढने वाले बच्चे को 100 तक गिनती भी नहीं आती है। ऐसे हालातों को देखकर प्रश्न यह उठता है कि उपरोक्त स्थिति के लिए जिम्मेदार कौन है? सरकार, शिक्षक, या समाज?
शिक्षा की इस बदहाली व स्तर में दिनोंदिन गिरावट पर अगर नजर डालें तो हमें पता चलता है कि इनमें से किसी को भी पूर्णतः दोषी नहीं ठहराया जा सकता बल्कि सबने मिलकर प्राथमिक शिक्षा को बदहाली के कगार पर पहुंचाने में अपनी गैरजिम्मेदाराना भूमिका को अदा किया है। सरकारी मशीनरी का खूब दुरुपयोग होता है और इन विद्यालयों में दाखिला लिये नौनिहालों का भविष्य ताक पर रख दिया जाता है। समय समय पर उच्चाधिकारियों द्वारा निरीक्षण के नाम पर महज औपचारिकता निभाई जाती है। विद्यालयों का निरीक्षण करने के लिए नियुक्त निरीक्षकों के द्वारा भी महज खानापूर्ति ही की जाती है।
अब ऐसे में इन विद्यालयों की गुणवत्ता में सुधार की कल्पना भी करना बेमानी है क्योंकि अब इन विद्यालयों में आर्थिक स्थिति में कमजोर परिवारों के बच्चे ही दाखिला ले रहे हैं। आर्थिक रूप से मजबूत परिवारों के बच्चे तो निजी स्कूलों में पढ़ने के लिये जाते है। इसी वजह से सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरता गया क्योंकि कमजोर तबके के लोगों को अपने बच्चों की शिक्षा की निगरानी करने का समय नहीं है और सक्षम तबके के लोगों ने सरकारी विद्यालयों से नाता सा तोड़ लिया। ऐसे में यदि समाज के सभी वर्ग के लोग सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ने भेजने लगें तो हम देखतें हैं कि इन विद्यालयों की दशा में सुधार कैसे नहीं होगा? हम माने या न माने प्राथमिक शिक्षा की बदहाली के लिए जितना सरकारी मशीनरी दोषी है उतना ही हम लोग भी दोषी हैं। अगर हम अपने विचारों को बदल लें तो वह दिन दूर नहीं जब इन विद्यालयों में केवल गरीबों के ही बच्चे नहीं पढेंगे बल्कि सभी के बच्चे पढ़ते नजर आयेंगे और इन विद्यालयों के भी दिन लौटेंगे। इन विद्यालयों में भी गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा मिलेगी।