Saturday, May 4, 2024
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समानता वहीं पर सार्थक है जहां विचार स्वतंत्र हों

लेकिन कभी कभी निरंकुश स्वतंत्रता अराजकता को जन्म देती है
बात सिर्फ आत्मिक संतुष्टि की होनी चाहिए लेकिन उसके लिए ज्ञान बहुत जरूरी है क्योंकि अज्ञानी स्त्री ये नहीं समझ पाती की सच में उसकी संतुष्टि का साधन क्या है ।मंजिल तक पहुंचना तो वो जानती है लेकिन पैरों में कीचड़ लगाकर जाना है या पैरों को साफ करके ये उसे अध्यात्म और ज्ञान सिखाता है।चरित्र का निर्माण कोई मापदंड के अनुसार नहीं होना चाहिए, मापदंड अगर लिया जाए तो सभी द्रोपदी का अनुसरण करके सती बन जाएं,,,, सीता के चरित्र को अपनाकर जीवन को संघर्ष और त्याग में व्यतीत करें। सीता की उपमा देकर आज पुरुष स्त्री को उनकी मर्यादा को याद दिलाता है लेकिन खुद कितना चरित्रवान है ये भूल जाता है।
बात सिर्फ इतनी की इस पृथ्वी पर जन्म लेने वाले मनुष्य को सिर्फ तीन व्यक्तियों का ऋणी होना चाहिए – ,,, माता, पिता तथा गुरु उनके अलावा तीसरा कोई नहीं जिसका उसके निजी जीवन को बदलने का अधिकार हो, और इनकी भी दखलंदाजी एक आयु और सीमा तक होनी चाहिए, बाकी जितने लोग उसे अनुशासित करते हैं सिर्फ अपनी खुशी और स्वार्थ के लिए करते हैं।

शोषण सिर्फ नारी का नहीं बल्कि हर उस इंसान का होता है जिसे अपने अधिकार तथा कर्तव्य नहीं पता। परिवर्तन संसार का नियम है हर युग अपने से पहले वाले युग का विरोधी होता है। चरित्र का हनन करके ही हम शोषण से मुक्ति नहीं प्राप्त करते बल्कि अपने मन के विचारों को एक सकारात्मक रूप देकर अपनी इक्षाओं की पूर्ति करके हम इस दमन से मुक्ति पा सकते हैं, लेकिन इसके लिए काम ऐसा करो कि अंत समय में जब तुम अपने साथ बैठो तो अपने बीते हुए कल पर ग्लानि ना हो। जैसे वैज्ञानिक सूत्रों के माध्यम से कई विधियों का आविष्कार करके कोई वैज्ञानिक अपनी समस्या का समाधान करता है उसी प्रकार हर स्त्री कर सकती है और एक दिन निश्चय ही वो अपने विचारों को एक स्वतंत्र रूप दे पाएगी क्योंकि उसे अब ये फर्क नहीं पड़ेगा कि लोग क्या कहेंगे? क्या सोचेंगे?, लेकिन इसके लिए बहुत जरूरी है विचारों की निर्मलता और प्रबलता।
अगर विचार किया जाए कि चरित्र क्या है? तो सहज उत्तर होगा मानव निर्मित एक लकीर जिस के ऊपर चलकर एक स्त्री अपने चरित्र का प्रमाण पत्र प्राप्त करती है। ये लकीरें जो स्त्री के लिए खीची गई, पुरुष के लिए क्यों नहीं? क्यों पुरुष उस लकीर के दोनों तरफ बेधड़क होकर कूद फांद करने के बावजूद भी चरित्रवान? वो इसलिए क्योंकि जब शुरुआत में संस्कृति और सभ्यता का निर्माण हुआ तो सर्वे सर्वा था पुरुष जो अपने आपको किसी परिस्थिति में बांध कर नहीं रख सकता था रखता भी कैसे उसे विचरण करके घर का पालन पोषण जो करना था लेकिन उसके साथ ही उसने बनाए कुछ ऐसे नियम और मापदंड जो सिर्फ स्त्रियों पर लागू थे पुरुषों पर नहीं।
लेकिन अगर इस चरित्र का निर्माण एक मजबूत पुरुष और एक मजबूत स्त्री द्वारा शुरू से किया गया होता तो शायद चरित्र के मापदंड अलग अलग ना होते ।लेकिन आज जो समाज है उसके मापदंडों के विपरित दिशा में जाने पर स्त्री पूरी तरह से चरित्रहीन कहलाती है जबकि ऐसा कुछ भी नहीं होता अगर मापदंड शुरू से एक होते,,, खराब तो खराब, ,अच्छा तो दोनों के लिए अच्छा,,,, शराब पीना पुरुष और स्त्री दोनों के लिए खराब होता। एक पुरुष एक नारी का व्रत दोनों के लिए अच्छा होता, लेकिन ऐसा नहीं है।
ये बात एक लेख को पढ़कर मैंने लिखा जिसमें नारी को स्वतंत्र करने से अभिप्राय सीधा उनको वो छूट देने से थी जो समाज में पुरषों को प्राप्त है, जैसा कि आज हो रहा है मेट्रो सिटीज में जिन लड़कियों को माडर्न कहते हैं उन्हें मध्यम वर्गीय परिवार में कई नामों जैसे,,, वाहियात, बदचलन, चरित्रहीन आदि ढेर सारे नामों से सुसज्जित किया जाता है, वहीं लड़कों को बस ये कह कर जाने दिया जाता है कि संगत गलत हो गई बेचारे की।
अगर सतही तौर पर बात की जाए तो दोनों का ये करना गलत है। भारतीय संस्कृति को दकियानूसी कहने से पहले ये सोचना चाहिए कि इसमें संलग्न जितने भी कृत्य हैं सब किसी ना किसी वैज्ञानिक कारण से जुड़े हैं,,, लेकिन कुछ ऐसी विचारधाराएं भी हैं जिसमें परिवर्तन समय काल के अनुसार होना चाहिए ।शोषण करने वाला स्वयं जानता है कि वो शोषण कर रहा है लेकिन उसे गलत इसलिए कोई नहीं मानता क्योंकि उसने अपने गलत विचारों को धर्म, परम्परा की चादर ओढ़ा रखी है।किसी नारी का चरित्र ना उसकी 6 मीटर की साड़ी नापती है ना उसे आधुनिक बनाता सूट का कपड़ा।
अगर देखा जाए तो साड़ी में तो सूट से ज्यादा अंग दिखते हैं फिर भी साड़ी पहने वाली महिला सभ्य और सूट वाली सभ्यता, संस्कृति का पालन ना करने वाली, जबकि ऐसा कुछ नहीं है।
आपकी अपनी नजर की शर्म ही साड़ी को अच्छे से पहनाती है और अगर हया आंखो में नहीं तो चरित्र का प्रमाण देने वाली साड़ी भी उकसाऊ हो जाती है।
इसलिए सोच को सकारात्मक दिशा में रख कर बदलाव करें ये सोच कर नहीं की जो मर्द कर रहा है वही करना ही स्वतंत्र होने का परिचायक है। वो जो कर रहा है उससे हमें क्या फायदा है ? क्या नुकसान है? दोनों बातों का आपकी सफलता में कितना योगदान होगा ये देख कर फिर उसका अनुसरण करें।
दुनिया में कुछ भी पाप पुण्य नहीं है,,, पाप सिर्फ एक -किसी की हत्या चाहे वो किसी के शरीर का हो या किसी की भावनाओं का।
उसके अलावा अगर किसी को दुख देने की बात कही जाए तो हर व्यक्ति अपना अलग अलग दुख का पिटारा लेकर बैठा है, तुमने ऐसा नहीं किया इसलिए मुझे बुरा लगा,,, तुमने ये किया तो मुझे अच्छा लगा,,, अरे दुनिया में किसी ने मानव शरीर पाया उसका उसके जीवन पर उतना अधिकार नहीं जितना दूसरों का उसका अस्तित्व सिर्फ इतना कि वो आपको खुश करने का एक जरिया है इसलिए तो ये विचार गलत है।
जितनी भी बातें जैसे – ऐसा उसे नहीं करना चाहिए था!,,,ये करके उसने खानदान का नाम डुबो दिया तो आप पाएंगे की ये सब समाज का डर है जो मन में इतना ज्यादा भरा है कि लोग उस मानसिक गंध को शिक्षा के बाद भी पाल कर रखना चाहते हैं, और कुछ लोग जो विचारों से श्रेष्ठ होते हैं उन्हें इन सब बातों का फर्क नहीं पड़ता लेकिन उन्हें भी निर्लज्ज कि उपाधि मिल ही जाती है उन्हीं में से कुछ लोग
हीनभावना से ग्रसित हो जाते हैं उन्हें लगता है कितना बड़ा पाप कर दिया।
अगर व्यक्ति को आवश्यक लगे और उसे करने से रोका जाए तो शायद वो उस जीवात्मा के अधिकारों का हनन है लेकिन आवश्कता और लालच दोनों के बीच का अंतर भी उसे पता होना चाहिए।शारीरिक आवश्कता की पूर्ति करने के लिए विवाह जैसे पवित्र संस्कार को बनाया गया लेकिन लालच की वजह से इसने पाप का रूप ले लिया ,,कुछ पाश्चात्य विचारक इसे भी पाप नहीं मानते लेकिन ये जड़ है अन्य कई दुष्कर्मों का क्योंकि इस लालच में इंसान सभी हदों को पार करता है।
हमारे विचार ही हमारी भावनाओं को पाप और पुण्य का एहसास कराते हैं।हमारे हिन्दू धर्म में भाई बहन के रिश्ते को सबसे पवित्र रिश्ता माना गया है चाहे वो ममेरे हो या फुफेरे लेकिन वहीं मुस्लिम धर्म में दूध का फर्क करके शादी कर देते हैं, जिसे सोच कर हम कांप उठते हैं उसी में वो साथ रहते हैं। ये सिर्फ संस्कार हैं अपने अपने जिसकी गहराई में जाने पर इंसान भ्रमित हो जाता है ,लेकिन रिश्तों की मर्यादा एक सुकून पहुंचाती है त्याग और बलिदान सिखाती है। नौ दिन नवरात्रि में जब व्यक्ति अपने आपको पवित्र रखता है तो आप देखेंगे वो एक आंतरिक सुख का अनुभव करता है।
एक समय अच्छे लगने वाले लोग भी विचार बदलने पर अधर्मी और बुरे लग सकते हैं क्योंकि संस्कार में परिवर्तन हुआ जिससे विचार परिवर्तन हुआ और भावनाओं ने पाप और पुण्य के बीच का फर्क समझाया।
सबसे महत्वपूर्ण बात ये की ऐसा लोग करते आ रहें है इसलिए वैसा ही करना पुण्य तथा उसके विरूद्ध करना पाप इस विचार को बस बदलने की जरुरत है,,, जिसको जिसमें खुशी मिले उसमे जिए अगर उसको ज्ञान होगा तो बुरी चीजों का परित्याग वो स्वेक्षा से कर देगा ।इसलिए ज्ञान सभी समस्याओं का हल है जो शाश्वत है जिसे किसी प्रमाण की आवश्कता नहीं है।
प्रियंका चौहान शैरिल