Monday, July 1, 2024
Breaking News
Home » लेख/विचार » सिर्फ “फादर्स डे” ही नहीं, पिता के लिए हमारा हर दिन समर्पित होना चाहिये

सिर्फ “फादर्स डे” ही नहीं, पिता के लिए हमारा हर दिन समर्पित होना चाहिये

“फादर्स डे’ यानी कि “पितृ_दिवस” है पर एक दिन में पिता की महत्ता नहीं बताई जा सकती, पूरा जीवन भी पिता की महत्वता बताने में कम पड़ जाएगा।
चाहें कोई भी देश हो, संस्कृति हो… माता-पिता का रिश्ता सबसे बड़ा माना गया है। भारत में तो इन्हें ईश्वर का रूप माना गया है। कोई पिता कहता है, कोई पापा, अब्बा, बाबा, तो कोई बाबूजी, बाऊजी, डैडी। कितने ही नाम हैं इस रिश्ते के पर भाव सब का एक। प्यार सबमें एक। समर्पण एक। पिता वो होता है जो हमें सही मार्ग दिखाता है, सही गलत में फर्क करना सिखाता है। आज पिता दिवस पर मेरे अस्तित्व के निर्माता, आदर्श व्यक्तित्व मेरे पिताजी के चरणो मे कोटिशः नमन… ।
“उनकी इबादत, उनकी ही दुआओं का फल मैं हूँ,
जिसने मुझे बनाया है, उसकी छाया, उसका प्रतिरूप मैं हूँ।”
“पिता” एक ऐसा शब्द है जिसको कहते ही लगता मानो सारी समस्याओं का अंत हो गया हो। पापा ये चाहिए पापा वो चाहिए हम बस अपनी फ़रमाईश करते और वो बिना मना किए पूरा करते जाते। भले ही वो कितनी भी बड़ी समस्या से क्यूँ ना जूझ रहें हो पर उनके लिए उनका परिवार ही सब कुछ होता है।
पिता! एक ऐसा शब्द, जो सम्मान व स्वाभिमान का प्रतीक है। वह उस घने बरगद के वृक्ष की तरह है जो अपनी गहन छाया से अपने नीचे विश्राम करने वालों के तन – मस्तक पर आँच नहीं आने देता।
पिता। यह एक शब्द नही पूरी एक दुनिया है,सभी जानते हैं कि माँ के चरणों मे स्वर्ग होता है, लेकिन पिता उस स्वर्ग का दरवाजा होता है। पिता एक ऐसा शब्द है जिससे किसी इंसान का वजूद जुड़ा होता है।
–एक बेटी के लिए पिता उसकी जान होते हैं–
एक बेटी के लिये उसके सबसे आदर्श उसके पिता ही रहते हैं ,बेटी तो पिता की दुलारी रहती ही है संग संग पिता को अपनीं बेटी की उन्नति एवं वह ससुराल में हर रिश्ते को बखूबी निभाती है तो सबसे ज्यादा पिता ही खुश होता है, माँ तो कभी एक पल को यह भी सोच लेती है कि मेरी बेटी ही सारी जिम्मेदारी क्यों अकेले उठाये ससुराल की किन्तु पिता ऐसा कदापि नहीं सोचता, वह बेटी के वंश व जिम्मेदारी निभानीं की कला पर प्रसन्न होता है,
पिता शब्द ही जिम्मेदारी का अहसास करा जाता है और यदि सत्य की राह एवं हर किसी की भलाई करनें की प्रवृत्ति का इन्सान तो बच्चे गर्व से अपनें पिता की कहानीं सबसे बताते हैं।
“मैं तो बस एक छोटी सी आकृति हूँ आपकी, जान तो मेरे आप हैं पापा,
इस विश्व धरा पर आपसे ही तो मेरी पहचान है पापा”।
जानते हैं .. सब यूँ ही नहीं कहते कि बेटियाँ पापा को सबसे ज्यादा प्यार करती हैं … और पिता बेटियों को। मुझे लगता है चुनिंदा परिवारों को यदि छोड़ दिया जाये तो पापा के इस प्यार को काफी कुछ खोकर कमाती हैं लड़कियाँ।
कई बार इसके पीछे उनके सपनों की टूटन होती है, चुप्पी की घुटन होती है और पिता के अहसानों की गठरी भी … हालाँकि बच्चों के प्रति पिता की जिम्मेदारियाँ होती हैं अहसान नहीं, लेकिन बेटियां कभी -कभी ज़िन्दगी भर उन जिम्मेदारियों को अहसान मानकर पिता का अहसान चुकाने की भरपूर कोशिश करती हैं। भले ही इस हिसाब – किताब के चक्कर में उनकी ज़िन्दगी का गणित बिगड़ जाये। यक़ीनन एक बेटी अपनी हर बड़ी – छोटी ख़ुशी पापा के चेहरे पर सबसे पहले देखना चाहती है। लेकिन इन खुशियों और मुस्कुराहटों को पापा तक पहुँचाने के लिए कितना बोझ अपने सर पर लेकर चलती है लड़कियाँ… जानते हैं आप ? एक गठरी जो लड़कियाँ ज़िन्दगी भर सर पर ढोती रहती हैं वो है–
“पिता की इज़्ज़त की गठरी ” ….
लड़कियों के हर बड़े-छोटे फैंसलों में ये पोटली उनके सर पर और ज्यादा दबाब बनाती है।पर दबाब वाला ये दर्द उनके चेहरे पर झलकता भी नहीं …और अधिकतर लड़कियाँ वही रास्ता चुन लेती हैं जहाँ दूर से उनके पापा उन्हें मुस्कुराते हुए दिखाई देते हैं।
कई बार ये रास्ता चुभन और घुटन भरा होता है लेकिन फिर भी पापा की एक मुस्कान के लिए वे चुपचाप उस रास्ते पर चलती रहती हैं। ये शुरुआत शायद उस दिन से हो जाती है जब हर रोज साथ घुमाने फिरने और खेलने वाले उसके पापा अचानक एक दिन उससे कहते हैं ” बेटा अब बड़ी हो गयी हो तुम, घर की इज़्ज़त तुम्हारे हाथ है ” ।
हाँ … सच है … आज भी समाज के कई घरों में सिर्फ एक दिन में ही लड़कियां बड़ी हो जाती हैं और फिर सालों तक ” बड़ी हो गयी हो ” वाली टैग लाइन को अपने साथ लेकर घूमती हैं।हालाँकि उनका मन अभी भी उन्हीं बचपन वाले खेल कूदों में उलझा रहता है लेकिन शारीरिक परिवर्तनों के कारण बंदिशे उन पर हावी रहती है।बस यही वो वक़्त होता है जब ” पिता और घर की इज़्ज़त की गठरी ” उनके हाथों में थमाई जाती है।और बेटियाँ इसे रूठकर, रोकर ,बहस करकर आखिरकार स्वीकार कर ही लेती हैं …।
यकीन मानिए बेटियां कितना प्यार करती हैं पिता को इसके सुबूत लगभग हर घर के भीतर झाँकने पर मिल जायेंगे …
तब जब बेटी अपनी बात के आगे जोड़ती हैं
” पापा के लिए कर रही हूँ “
ये ” पापा के लिए करने वाली ” फहरिस्त की शुरुआत उसकी पढ़ाई से होती है और फिर शादी पर जाकर रूकती है।बीच वाला हिस्सा कभी-कभी इज़्ज़त की ऐसी दास्तान लिख देता है जिसमे या तो बेटी मर जाती है या मार दी जाती है … क्योंकि किसी के प्रेम में पागल बेटी भूल से इज़्ज़त की वो गठरी सर से उतार देती है …और उसकी सजा भी उसे मिल जाती है।
लेकिन कुछ बेटियाँ इस सजा से इतनी जल्दी नहीं छूटती वे खुद ही इस सजा को ये कहकर अपने लिए चुन लेती हैं कि ” एक गठरी जो लड़कियाँ ज़िन्दगी भर सर पर ढोती रहती हैं वो है
“पिता की इज़्ज़त की गठरी ” और फिर ज़िन्दगी भर ढोती रहती है उस इज़्ज़त वाली गठरी को…।
समाज में यदि लड़कियों के ऊपर से ये इज़्ज़त की गठरी का बोझ हटा लिया जाये तो यकीन मानिये घरेलू हिंसा , मारपीट , प्रताड़ना और दहेज़ हत्या जैसी घटनाओं में कमी आ जायेगी।
क्योंकि इनमे आधे से ज्यादा ऐसे मामले होते हैं जिनमे लड़किया खोखली इज़्ज़त की झूठी पोटली का पुलंदा सर पर उठाये सब कुछ सहती रहती हैं। और वजह होते हैं ” पापा ”
हालाँकि ये भी उतना ही सच है कि पिता कभी अपनी बेटी को ये अंदरूनी उलझने , कष्ट और परेशानियाँ नहीं देना चाहते।लेकिन समाज में चली आ रही एक सोच कि ” घर की इज़्ज़त लड़कियों के हाथ ” में होती है ,का ही ये नतीजा होता है कि कई बार पिता की इस इज़्ज़त के लिए ही लड़कियाँ आजीवन भुगतती हैं, वे चुप्पी नहीं तोड़ना चाहती।और ये सुनकर ही इतराती हैं,खुश रहती हैं कि ” बेटियाँ पापा को सबसे ज्यादा प्यार करती हैं और पापा उनको “…।
जन्म देने वाला पिता कोई बाबूजी कहता है, कोई पिताजी कोई पापा, तो कोई डैडी। बच्चों के भविष्य के लिये चिन्तित होता पिता, उन्हे अच्छे संस्कार देता है, उन्हे अनुशासन में रखता है। पिता बच्चों से ग़लती होने पर उन्हे माफ़ कर गले लगाता है। वही बच्चे बड़े होने पर पिता से ग़लती होने पर बात बात पर झिड़क देते हैं।
बच्चे पिता को अतीत की धरोहर समझते हैं। 1857 केन्द्र के ज़माने के पिता के अनुभवो को कोई महत्व नहीं देते हैं लाचार और बेबस पिता, हर साल बदलते कैलेण्डर को देखते और सोचते हैं कि हम ऐसे ही काग़ज़ी कैलेण्डर बन कर रह गये है।
जो कभी भी फट सकता है,अब तो बच्चे फादर्स डे पर पिता को फूलों का गुलदसता थमा,अपने कर्तव्य की इति समझ लेते है, पर पिता तो पिता है फिर भी बच्चों पर आशीर्वाद की झड़ी लगा देता हैं। ऐसे पिता के लिए सिर्फ एक दिन ही नहीं हो सो सकता, पिता के लिए हर दिन ही समर्पित होना चाहिए, पिता महान है… ।
पिता का साया हो जब तक सर पर,
मुश्किलें अपना सर पटकती हैं।।
परिवार उनका रहें हिफ़ाजत से।
इसलिए उनकी आँखें कम झपकती हैं।।
रीमा मिश्रा नव्या
आसनसोल (पश्चिम बंगाल)