मानसून आने को है। आम और जामुन के डाल पर पकने का मौसम बन गया है। आम का नाम आते ही दशहरी, लंगड़ा, अल्फांसो या किसी दूसरी प्रजाति के आम की तस्वीर आँख के सामने घूमने लगती है। जीभ में पानी आने लगता है और मन भागता है मलिहाबाद। यह आम राय बन चुकी है कि आम हो तो मलिहाबादी। वहां आम की तमाम किस्में एक ही पेड़ पर मिल जाएंगी। मगर आम तो सब जगह है। मलिहाबाद में आम की गुणवत्ता बढाने के लिए बागवान कुछ न कुछ रचनात्मक करते रहते हैं। और उसकी शोहरत दूर तक जाती है। होने को तो आपके गांव में भी अमराई होगी। जैसे रजवाड़ों और सामन्तों के गढ़ प्रतापगढ़ में आम के बगीचे खूब हैं। इस जिले को पड़ोसी बेल्हा भी कहते हैं। पर यहां आम की चर्चा नहीं होती। इस जिले की ब्रांडिंग ‘गुंडत्व’ के लिए है। ब्रांडिंग न कहें, बदनामी कहना ज्यादा ठीक होगा। जब उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मायावती विराजमान थीं। उन्होंने एक शब्द कहा, ‘कुंडा का गुंडा’… किसके लिए कहा? यह सब जानते हैं। इसके विस्तार में जाना आवश्यक नहीं। समय के साथ साबित हो गया कि यह सियासी नारा था; किसी एक व्यक्ति के लिए। यह गुंडत्व के दमन के लिए दिया गया मन्त्र नहीं था जिसके बूते सत्ता तन्त्र लोगों के साथ न्याय कर पाने की स्थित में आता। सरकारें आती जाती रहीं, प्रतापगढ़ में सामन्तवाद कमजोर नहीं हुआ, उलटा बढ़ा। जिले की बदनामी सामन्तवाद के लिए बढ़ी। होना तो यह चाहिए था कि प्रदेश में यहां के आंवले का डंका बजता। डंका तब तो जरूर बजना चाहिए था जब राम राज्य का संकल्प लेने वाले युवा सन्यासी योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री की कुर्सी पर हैं; तीन साल से। इसके बाद भी एक माह से देश के सामने प्रतापगढ़ के सामन्तवाद की बर्बर तस्वीर घूम रही है। मुख्यमंत्री की छवि पर बट्टा लग रहा है। उन युवा सन्यासी की साख पर बट्टा लग रहा है जिनका दो टूक सन्देश है कि ‘ अपराध छोड़ो या दुनिया।’
फिर प्रतापगढ़ के पट्टी इलाके के गोविंन्दपुर गांव पर 22 मई को हुए जातीय और सामंती हमले के खिलाफ ठोस कार्रवाई क्यों नहीं हुई? ऐसा क्या हुआ कि गांव में जिनके घर जलाये गए, जिनके घर लुटे, जिन घरों की औरतों के साथ बर्बर अत्याचार हुआ उन्हीं के 11 परिजन जेल में डाल दिये गए। हमलावर पक्ष के खिलाफ रिपोर्ट लिखने में 24 दिन लग गए। रिपोर्ट भी केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की दखल के बाद दर्ज हुई। मुख्यमंत्री का आदेश है कि पीड़ितों की प्रथम सूचना रिपोर्ट फौरन दर्ज हो, एसएसपी दफ्तर में इसके लिए मुख्यमंत्री ने अलग से विशेष इंतजाम कराए हैं। मजनुओं के खिलाफ भी सख्त एक्शन के आदेश हैं। फिर कैसे बर्बर यौन अत्याचार, लूट, आगजनी और जातीय हिंसा होने के बाद ( आरोप है कि पुलिस की मौजूदगी में यह सब हुआ, वीडियो भी वायरल है ) उत्तर प्रदेश की पुलिस पीड़ितों की सही रिपोर्ट लिखने में 24 दिन लगा देती है और घरों से घसीटी जा रही लड़कियों को बचाने दौड़ पीड़ितों पर ही सिपाहियों को पीटने का आरोप लगाकर 10 लोगों को जेल भेज दिया जाता है। गोविंन्दपुर गांव में खेत पर जानवर चराने के विरोध पर एक पिछड़ी जाति की बस्ती पर सामान्य जाति के दबंग हमला बोलते हैं। पुलिस 24 दिन रिपोर्ट नहीं लिखती। एकतरफा कार्रवाई का विरोध पूरे प्रदेश में जोर पकड़ता है। सोशल मीडिया में मुख्यमंत्री निशाने पर आते हैं। जातीय वैमनस्यता बढ़ती है इसके लिए भी कई गिरफ्तारियां और मुकदमे होते हैं। सद्भाव खत्म होता है। पीड़ित जाति के सियासी लोग और सामाजिक संग़ठन उनके आंसू पोछने जाते है तो वही पुलिस एक पखवाड़े में उन लोगों के खिलाफ नामजद और बिना नाम के कोई 700 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर लेती है। लॉक डाउन तोड़ने, धारा 144 के उल्लंघन, जातीय वैमनस्य भड़काने का आरोप लगता है। मगर पीड़ितों की एक रिपोर्ट पुलिस नहीं दर्ज करती। जब पिछड़ा वर्ग आयोग चेतावनी देता है, सत्ता का सहयोगी दल मुखर होता है तब 24 दिन बाद एफआईआर मुकम्मल होती है, मगर आरोपियों की गिरफ्तारी नहीं। इस बीच जिले के एक कैबिनेट मंत्री के खिलाफ पीड़ित पक्ष नारे लगाता है। मंत्री पर गुंडों को शह देने, पुलिस के मिले होने के आरोप लगते हैं। मीडिया के सामने और पिछड़ा वर्ग आयोग की सुनवाई के दौरान। मगर तन्त्र की नींद नहीं टूटती। उलटे कैबिनेट मंत्री अपनी सीमाओं को लांघते हैं। डीएम और एसएसपी की खुलेआम तारीफ करते हैं। कहते हैं कि जिस पटेल जाति के लोग पीड़ित हैं, उन्हीं पटेल बन्धुओं ( यह मंत्री के ही आधिकारिक शब्द हैं) ने पुलिस पर हमला किया, पड़ोसी गांव के लोगों को पीटा। यानी मंत्री खामोश नहीं रहते, जैसे ही पीड़ित पक्ष के पैरोकार पुलिस को निशाने पर लेते हैं, मंत्री मर्यादा भूलकर हमलावर पक्ष के समर्थन में खड़े होते है। इसके फौरन बाद पुलिस पीड़ित पक्ष के एक युवक को पूरी घटना का मास्टरमाइंड बताकर गिरफ्तार कर लेती है और मगर पीड़ित महिलाएं एक अदद एफआईआर के लिए भटकटी हैं। औरते पिछड़ा वर्ग आयोग का दरवाजा खटखटाती हैं। आयोग के मेम्बर कौशलेंद्र सिंह पटेल एडीजी पुलिस और कमिश्नर को तलब करते है कि एफआईआर क्यों नहीं हुई? फिर वीडियो कांफ्रेस के जरिये पीड़ित महिलाओं को भी अफसरों के सामने बुलाने की तारीख फिक्स करते हैं 16 जून। इसके पहले ही कैबिनेट मंत्री एक पत्र पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष और सदस्य कौशलेंद्र पटेल को लिख डालते हैं कि अफसरों को आयोग तलब न करे। अफसर दबाव में हैं। मंत्री यह भी कहते हैं कि आयोग के सदस्य भी पीड़ितों की जाति के हैं, और यह भी कहते हैं कि भाजपा कार्यकर्ता के रूप में कौशलेंद्र पटेल को आयोग का सदस्य बनाया गया और जिनके खिलाफ हमला करने का आरोप है वे लोग भी भाजपा के बूथ कार्यकर्ता हैं। ऐसे में सुनवाई करना ठीक नहीं।
संविधान की शपथ लेने वाले एक मंत्री के पत्र की यह भाषा किसी सामान्य व्यक्ति के लिए नहीं, संवैधानिक शक्ति प्राप्त स्वायत्तशासी पिछड़ा वर्ग आयोग के साथ बातचीत में की गई है। 24 दिन पहले जिस पुलिस ने पीड़ितों की रिपोर्ट नहीं लिखी, उसे आयोग के निर्देश पर अंततः एक मुकम्मल रिपोर्ट दर्ज ही पड़ी। अब सवाल है कि पुलिस किसके इशारे पर नाची? स्थानीय कैबिनेट मंत्री के, पिछड़ा वर्ग आयोग के, यूपी में सत्ता के सहयोगी अपना दल (s) के या प्रदेश भर में हो रहे प्रदर्शन, मीडिया में थू थू, विधान सभा के घेराव से बने दबाव के कारण नाची?
इस पर अपने अपने तर्क हो सकते हैं। पीड़ितों की एक अदद एफआईआर के लिए क्रेडिट लेने की होड़ लगी है; यह एक संकेत है कि राजनीति किस स्तर तक आ गई है? और मुद्दा ये है कि खेतों पर जानवर चराने के विरोध के बाद हुए जाति विशेष की बस्ती पर हमले को क्या पुलिस थाम नहीं सकती थी? पुलिस की मौजूदगी में आगजनी होना क्या पुलिस की मिलीभगत नहीं दर्शाता? उसके बाद 24 दिन तक पीड़ितों की ही मुकम्मल एफआईआर न दर्ज करके वाली पुलिस कैसे कठघरे से बाहर रह सकती है? इतनी बड़ी घटना के बाद भी 20 दिन तक एसएसपी का गांव न जाना उनकी अनुभवहीनता है या मिलीभगत? यह साबित करना जांच कमेटियों का काम हो सकता है। पर नंगी आँख का सच ये है कि पुलिस नाच रही थी किसी के इशारे पर ? पीड़ितों ने सीधा आरोप लगाकर मंत्री के खिलाफ नारेबाजी भी की। एक चिंगारी जो वक्त पर बुझ सकती थी, वह आग बनी। आग अभी भी धधक रही है गोविंंदपुुु में। न आरोपी पकड़े गए न उनके जले, लूूटे गए घरों में राहत सामग्री और मुआवजा पहुँचा। और न जाने कैसा तन्त्र है मुख्यमंत्री के दफ़्तर का? उन्हें एक माह में गोविंंन्दपुर की खबर तक नहीं मिली। न अपने कैबिनेट मंत्री की कारगुजारी पता लगी न अफसरों की।
मुख्यमंत्री के पास अखबारों की रिपोर्ट पढ़ने के लिए एक अलग से सलाहकार भी हैं। सत्ता के सहयोगी दल का दावा है कि उनकी तरफ से मुख्यमंत्री को पत्र लिखा गया। ऐसे में क्या कारण है कि मुख्यमंत्री खामोश हैं। प्रयागराज में पटरी के दुकानदारों की सब्जी एक दरोगा ने सरकारी जीप से रौंद डाली, इसका वीडियो वायरल हुआ तो मुख्यमंत्री ने खुद आगे बढ़कर दरोगा को सस्पेंड कराया और हर्जाना उसके वेतन से वसूला। तो फिर गोविन्दपुर कांड में यह खामोशी क्यों? जबकि यह मामला जातीय और सियासी दोनों मामलों में गरम है। इस पूरे मामले में पुलिस, मंत्री की भूमिका पर सवाल उठे हैं। ऐसे में सिर्फ एफआईआर दर्ज हो जाने भर से पीड़ितों को न्याय मिल जाएगा? इसकी कोई गारंटी नहीं है। विवेचनाओं का हश्र पूरा प्रदेश जानता है। फ़िर सवाल उठेगा कि पुलिस इसके इशारे पर नाची या उसके। इस मामले में भरोसेमन्द जाँच हो जाये इसके लिए जरूरी है कि खुद मुख्यमंत्री पहल करके हाईकोर्ट के किसी सेवारत या निवृत जज से इसकी समयबद्ध जांच कर करवाकर अपनी साख बचाएं। फौरन एसएसपी को सस्पेंड करके दोषी पुलिसकर्मियों पर रिपोर्ट लिखवाएं और साजिशकर्ता को पकड़ा जाए। फिर ऐसे दूरगामी इंतजाम शुरू किए जाएं कि पुलिस कानून के इशारे पर नाचे। पुलिस सुधार आवश्यक है। इसके लिए तमाम सिफ़ारिशें हो चुकी हैं। यह इसलिए जरूरी है कि रजवाड़े खत्म होने के बाद भी प्रतापगढ़ में बचे हुए सामन्तवाद पर प्रहार हो सके। इस जिले में इसकी जड़ें गहरी है, और जिलों में भी है। शुरुआत यहीं से हो तो बेहतर होगा, और हां ये नव सामन्तवाद को भी अनदेखा न किया जाए। राजा चुक गए, उनके चाबुक गए तो तमामों ने अपने चोले बदल लिए हैं। खद्दर में छिपे नव सामंतवादियों को भी खदेड़ना होगा। ताकि पुलिस सिर्फ कानून के इशारे पर नाचे। सत्ताधारी गुंडों, सामन्तवाद के पोषकों के इशारे पर पुलिस डांडिया न खेले। जैसा प्रतापगढ़ में अभी हुआ, जैसा उन्नाव में विधायक कुलदीप सेंगर के संग पहले हुआ। क़ानून का राज कायम होने के बाद ही रामराज्य का स्वप्न साकार हो सकता है, जले हुए घरों के बाहर नींद ही किसे आती है महाराज!
ब्रजेन्द्र प्रताप सिंह
वरिष्ठ पत्रकार/समाजिक कार्यकर्ता