Saturday, November 30, 2024
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शैक्षिक फलक पर रचनात्मकता के सितारे टांकते शिक्षक -प्रमोद दीक्षित ‘मलय’

शिक्षक अपने काल का साक्षी होता है। वह वह विद्या का उपासक और साधक है तथा अप्रतिम कलाकार भी। वह अपनी मेधा, कल्पना, आत्मीयता, संवाद, सौंदर्यानुभूति से प्रेरित हो मानव जीवन को गढ़ता है, रचता है। वह बच्चों का मीत है, सखा है। वह बच्चों की प्रतिभा की उड़ान के लिए अनंत आकाश देता है तो नवल सर्जना हेतु वसुधा का विस्तृत कैनवास भी। वह बच्चों को मौलिक चिंतन-मनन करने, तर्क करने, सीखने, कल्पना एवं अनुमान करने एवं उनके स्वयं के ज्ञान निर्माण हेतु अनन्त अविराम अवसर और जगह उपलब्ध कराता है, फिर चाहे वह कक्षा हो या कक्षा के बाहर का जीवन। सीखने-सिखाने की रचनात्मक यात्रा में शिक्षक सदैव साथ होता है, पर केवल सहायक की भूमिका में। वह बच्चों के चेहरों पर खुशियों का गुलाल मल देता है। आंखों में रचनात्मकता की उजास और मस्तिष्क में कल्पना के इंद्रधनुषी रंग भरता है। कोमल करों में विश्वास के साथ लेखनी और तूलिका दे सर्जना-पथ पर कुछ नया रचने-बुनने को प्रेरित करता है। उसके पास आने वाले बच्चे कोरे कागज या कोरी सिलेट नहीं होते जिस पर वह अपने विचार, अपनी इबारत अंकित करता हो। बच्चे खाली घड़ा भी नहीं होते जिन्हें वह अपने ज्ञान से लबालब भर दे। और बच्चे नहीं होते हैं कच्ची मिट्टी के लोंदे जिन्हें वह मनचाहा आकार देता हो या उनके मन की नम उर्वरा जमीन पर अपने सिद्धांतों की पौध रोप देता हो। वह जानता है कि दुनिया के सभी बच्चे अनंत संभावनाओं से भरे हुए बीज हैं जिनके हृदय में शिक्षा, साहित्य, कृषि-कर्म, ललित कला, सामाजिकता एवं मानवीय मूल्य समाहित होते हैं। शिक्षक उनके अन्तःमन में समाहित गुणों को उद्घाटित और प्रकाशित करने में सहायता करता है। बीज से विशाल वृक्ष बनने हेतु आवश्यक अनुकूल परिवेश, परिस्थितियां एवं पोषण प्रदान करता है। बच्चों की जन्मजात प्रतिभाओं को शिक्षण-प्रशिक्षण के द्वारा परिमार्जित कर लोक हितैषी और मानवीय मूल्यों में विश्वास से परिपूर्ण एक व्यक्तित्व के रूप में समाज के हाथों में सौंपता है जिसके हृदय में करुणा, समानता, न्याय, विश्वास, सहानुभूति, कुटुम्ब भाव, समानता, सहकारिता, लोकतांत्रिकता एवं सामूहिकता और प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व की भावना हिलोरें लेती है। यह सत्कर्म केवल एक शिक्षक ही करता है, कर सकता है। वह पीढ़ियों का निर्माता है। वह समाज का सिरजनहार है। विश्व शिक्षक दिवस उन उम्मीद जगाते शिक्षकों के मान-सम्मान का दिन है जो लोकैषणा से परे ध्येय-पथ पर निरन्तर गतिशील है। प्रसिद्धिपरांगमुख हो शैक्षिक फलक पर सर्जना के मोहक रंग भर रहे हैं, आकर्षक सितारे टांक रहे हैं। जो भारत के उपवन में सुवास बनकर बिखरें हुए है।
श्रेष्ठ शिक्षक केवल पाठ्यक्रम को ही नही पढ़ते-पढ़ाते बल्किं वे बच्चों के मन को पढ़ उनके हृदय में गहरे उतरते हैं। उनकी प्रकृति एवं स्वभाव को समझते हैं। कोमल सुवासित सुमनों को प्रेम, सद्भाव और आत्मीयता के शीतल जल से सिंचन करते हैं। ध्यातव्य है, बच्चे को मिली डांट-फटकार उसे विद्रोही, बागी और कुंठित बना देती है या हीन भावना से ग्रस्त एक मनोरोगी। श्रेष्ठ शिक्षक बच्चों के स्वभाव एवं प्रकृति से न केवल परिचित होते हैं बल्कि विपरीत आचरण करने पर कारणों की तह तक जाकर उपयुक्त उपचार तलाशते हैं। यहां पर मैं एक प्रसंग साझा करता हू। एक बार एक सज्जन गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर से भेंट करने शान्ति निकेतन गये। उन्होंने एक वृ़क्ष के नीचे गुरुदेव को चिन्तामग्न बैठे और लगभग 15-20 बच्चों को खेलते, पेड़ पर चढ़ते, रोते-हंसते-खिलखिलाते और उछल-कूद करते देखा। पर एक बच्चा पेड़ के नीचे चुपचाप गुमसुम बैठा था। उस सज्जन ने जाते ही गुरुदेव से कहा कि निश्चितरूप से आप पेड़ पर चढे़ बच्चों से परेशान एवं चिन्तित हैं। गुरुदेव रवीन्द्र ने उत्तर दिया कि मैं पेड़ पर चढ़े बच्चों से नहीं बल्कि पेड़ के नीचे बैठे बच्चे को लेकर चिन्तित हँू क्योंकि पेड़ पर चढ़ना, उछल-कूद करना बच्चों की स्वभाविक प्रकृति है। मैं यहां लिखते हुए हर्षित हूं कि आज ऐसे रचनाधर्मी, संवेदनशील एवं बालहितैषी शिक्षकों की एक लम्बी श्रंखला विद्यमान हैं जो बच्चों की प्रकृति और मनोभावों को समझते और उनके बचपन को बचाये रखते हुए उनमें साहस, शील, शौर्य, निर्भयता, संवेदना, सह-अस्तित्व, प्रेम, करुणा आदि मानवीय सद् प्रवृत्तियो को जाग्रत किये हुए हैं। जिनमें अपने परिवेश को समझने, समस्याओं को खोजने एवं उनके समाधान करने की समझ विकसित होती है। कठिनाइयों से जूझने एवं उलझनों को सुलझाने, निर्णय लेने, कल्पना एवं तर्क शक्ति की क्षमता का विकास होता है। सौन्दर्य बोध एवं रचनात्मक संवेदना जाग्रत होती है। उनके परिवार और परिवेष में घट रही घटनाओं, प्राकृतिक बदलावों, सामाजिक ताना-बाना, तीज-त्योहारों को समझने-सहेजने, अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। जिनकी सांसों में अपनी माटी की महक बसी है और आंखों में श्रम से उपजा सौन्दर्यबोध। उनमें लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और लोकसाहित्य के लयात्मक राग के प्रति संवेदना और अनुराग भी।
उल्लेखनीय है यूनेस्को एवं अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की 1966 में हुई बैठक में शिक्षकों के अधिकारों, जिम्मेदारियों, रोजगार की संभावनाओं और शिक्षा के भविष्य पर विस्तृत चर्चा करते हुए कुछ मार्गदर्शक बिंदु तय किए गए थे जिसमें शिक्षकों के हित में वैश्विक आयोजन करने के सुझाव थे। डाॅ0 गुलाब चैरसिया (सदस्य, अंतरराष्ट्रीय शिक्षा) के प्रयासों से वर्ष 1994 में 5 अक्टूबर को विश्व शिक्षक दिवस के रूप में मनाना प्रारंभ हुआ है और यह परंपरा संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में संपूर्ण विश्व में 100 से अधिक देशों में अद्यतन जारी है, जिसमें यूनिसेफ, यूएनडीपी, अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन और अंतर्राष्ट्रीय शिक्षा द्वारा संयुक्त रुप से वैश्विक आयोजन करके सेवारत और सेवानिवृत्त ऐसे शिक्षकों को सम्मानित किया जाता है जिन्होंने समाज रचना में पहल करते हुए अभूतपूर्व योगदान दिया हो। 5 अक्टूबर को विश्व शिक्षक दिवस के आयोजन का यह भी उद्देश्य है कि लोग शिक्षकों के काम को न केवल समझें बल्कि छात्रों एवं समाज के विकास में शिक्षकों की मदद भी कर सकें।
विश्व शिक्षक दिवस उन तपस्वी शिक्षक-शिक्षिकाओं के काम को स्मरण करने एवं सम्मान देने का दिन है जो व्यक्ति निर्माण की साधना में अविरत साधनारत हैं। छत्तीसगढ़ से ईश्वरी सिन्हा (बालोद) बच्चों की मौखिक अभिव्यक्ति पर काम कर रहे है तो सीमांचल ़ित्रपाठी (सूरजपुर) ने विद्यालय को बस्तामुक्त कर बच्चो को बस्ता ढोने से मुक्ति देने की सार्थक पहल की है। आसिया फारूकी (फतेहपुर) खंडहर और कूड़ा डंपिग परिसर वाले स्कूल को एकल शिक्षिका होते हुए भी प्रदेश का आदर्श विद्यालय बना देती हैं। महेशचन्द्र पुनेठा (उत्तराखंड) दीवार पत्रिका से बच्चो को जोड़कर न केवल पढ़ने-लिखने की संस्कृति को पोषण देते हैं बल्कि बच्चे सामूहिकता, लोकतांत्रिकता, परस्पर विश्वास जैसे भाव भी अनायास सीख जाते हैं। रामकिशोर पांडेय (बांदा) बाल संसद एवं मीना मंच के माध्यम से बच्चों में लोकतत्र के प्रति आस्था एवं विश्वास पैदाकर विद्यालय को लैंगिक भेदभाव से मुक्त करते हैं। शाहजहांपुर के प्रदीप राजपूत विज्ञान को परिवेशीय कबाड़ वस्तुओं से उपकरण तैयार कर बच्चों को विज्ञान की अवधारणाएं स्पष्ट करते हुए उनमें वैज्ञानिक चेतना का विकास कर रहे हैं। मनोज वाष्र्णेय बदायूं 103 दिन तक नामांकन के सापेक्ष शत-प्रतिशत छात्र उपस्थिति का रिकार्ड बनाते हैं। कमलेश पांडेय वाराणसी कक्षा छठी में संभाव्य नामांकन 4 का अनुमान लगा 3-4 किमी की परिधि के प्राथमिक स्कूलों में पढ़ाकर नव प्रवेश 75 कर लेते हैं। पंकज वार्ष्णेय विद्यालय के बंजर परिसर में दो हजार पौधे रोप कर हराभरा बनाते हैं तो हरिश्चंद्र सक्सेना कोरेाना काल में 25 से अधिक आनलाईन प्रतियोगिताएं कर 2000 से अधिक शिक्षक-र्शििक्षकाओं को पाठ्यक्रम से जोड़े रखकर शिक्षा को गति देते हैं। देवेन्द्र देवांगन अबूझमाड़ के सघन वन प्रान्तर में घूम-घूम कर समुदाय को शिक्षा से परिचित कराते हुए ‘मोटर साईकिल वाले गुरु जी ;नाम से पहचाने जाने लगते हैं। राजनाथ द्विवेदी अपने जेब से धन खर्च कर मजदूरों के बच्चो को आधुनिक शिक्षा से जोड़ते हैं। राजकुमार शर्मा (चित्रकूट) और अरविन्द गुप्ता (छत्तीसगढ़) अपने सैकड़ों टीएलएम से बच्चों के सम्मुख पाठों को सहज एवं सुग्राह्य बना देते हैं। रामसेवी चैहान ग्वालियर नववधुओं को रोजगारोन्मुख बनाती हुई उनको सिलाई-कढाई के प्रशिक्षण से जोड़ती हैं तो बेगूसराय(बिहार) के संत कुमार साहनी ने विद्यालय जमीन को अतिक्रमण से मुक्त कराकर बच्चों को लुप्त हो रही बिहारी संस्कृति को समझने हेतु संग्रहालय की स्थापना की तो विजय जैन (राजस्थान) एवं विजय बालासहेब पालघर (महाराष्ट्र) वनवासी बच्चों के साथ काम करते हुए न केवल उनकी भाषा-बोली को सीखते-अपनाते हैं बल्कि स्वयं को वनवासी संस्कारों मेे ढालकर कर बच्चों को शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़कर उनके जीवन में समझ का उजाला भर देते हैं। नन्हेराम पटेल (नरसिंहपुर) विद्याालय में मूलभूत संसाधनों की स्थापना हेतु पत्नी के जेवर-गहने भी बेंचकर धन जुटाते हैं तो प्रतापगढ़ के मो0 फरहीम अपनी पूरी जमा पूंजी ही विद्यालय विकास को भेंट कर देते हैं। टीकमगढ़ के आशाराम कुशवहा विद्यालय परिसर के निस्प्रयोज्य उथले तालाब को बच्चों के सहयोग से चार सालों में पाटकर खेल का मैदान बना देते हैं तो वहीं सिवनी के विष्णु प्रसाद डेहरिया शिक्षण की सहज शैली विकसित कर बच्चों एवं समुदाय के प्रिय बन जाते हैं। दामोदर जैन(भोपाल), आकाश सारस्वत (हरिद्वार), मनोज बोस (हरदोई) एवं प्रकाशचन्द्र (सिवनी, म0प्र0) जैसे शिक्षा अधिकारी प्रणम्य हैं जो शिक्षकों के साथ चलते हुए उन्हें उन्हें कुछ नया रचने-बुनने को प्रेरित एवं उत्साहित करते हैं।
विश्व शिक्षक दिवस के अवसर पर हम विश्वास करें कि बच्चों के अंदर ऐसे नैतिक एवं सामाजिक मूल्य विकसित होंगे तब हम एक बेहतर दुनिया रच पाने में समर्थ-सफल होंगे जहाँ लिंग, जाति, रंग, नस्ल, देश के भेद नहीं होंगे। होगा केवल परस्पर विश्वास, समता, समरसता, समभाव, प्रेम, करुणा, अहिंसा और सह-अस्तित्व का उदात्त भाव। हर हाथ में हुनर, आंखों में चमक, मन में आत्मविश्वास और चेहरे पर खिखिलाती हंसी। और यह सम्भव हो सकेगा श्रेष्ठ शिक्षकों की सतत् शैक्षिक साधना पर जो अविराम बद्धपरिकर साधनारत हैं।