Tuesday, April 30, 2024
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न्यायपालिका में 50% महिला आरक्षण कितना जरूरी?

भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने महिला वकीलों को 50% आरक्षण की मांग उठाने की बात कही। अभी कुछ समय से महिलाओं ने वकालत के पेशे में अच्छी पहचान बनायी है। जिससे शहरों में अब लोग उन्हें जानने लगे हैं लेकिन गांव और पंचायत में उन्हें अभी भी पहचान नहीं मिल पा रही है। अभी भी वकील की नजर से देखने के बजाय “महिला” की नजर से ज्यादा आंकते हैं लोग। एक मानसिकता बनी हुई है कि यह महिला है और यह केस कैसे लड़ेगी? मतलब कि उसकी काबिलियत पर शक किया जाता है। उच्च न्यायालयों में 11.5% महिला जज है और सुप्रीम कोर्ट में 11. 12% महिला जज हैं 33 में से चार। देश में 17 लाख वकील है उनमें से सिर्फ 15% महिलाएं हैं।
कई महिला वकीलों का मानना है कि आरक्षण की बात तो ठीक है लेकिन व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है महिलाओं की मूलभूत सुविधाएं जैसे वाशरूम और बैठने के लिए सीटों की व्यवस्था नहीं है वह पूरी की जानी चाहिए।
महिला वकीलों का मानना है कि न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी बढ़नी चाहिए साथ ही उन्हें इस बात का दुख रहता है कि जब लड़कियां प्रैक्टिस के लिए जाती हैं तो ज्यादातर पुरुष वकीलों से सामना होता है और उन्हीं के संरक्षण में प्रशिक्षण लेना होता है तो ऐसे में वह उन्हे इधर उधर दौड़ाते ज्यादा हैं और उन्हें मौका नहीं मिल पाता है। उनकी निर्भरता वरिष्ठों पर ज्यादा बढ़ जाती है। उन्हें केस नहीं मिल पाते और एक महिला होने के कारण उनकी काबिलियत को आयाम नहीं मिलता है। मगर अपनी काबिलियत को साबित करने के लिए महिला वकीलों को इन बातों को नजरअंदाज कर अपनी बात पुरजोर तरीके से रखनी चाहिए ताकि समाज में, न्यायपालिका में उन्हें एक समुचित स्थान मिल सके और लैंगिक भेदभाव खत्म हो।
यूं तो आरक्षण सही नहीं है और अगर हो तो योग्यता के आधार पर होना चाहिए और यदि आरक्षण दिया भी जाए तो एक निर्धारित समय के लिए ताकि लड़कियों को मौका हासिल हो सके। महिलाएं वैसे तो मल्टीटास्कर होती हैं और वह घर बाहर दोनों बखूबी संभालती हैं। उन्हें जरूरत है तो सिर्फ प्रोत्साहन देने की।
ऐसी कई महिला वकील हैं जिन्होंने अपने आप को साबित किया है। निर्भया, हाथरस केस की वकील सीमा कुशवाहा, अर्चना सिन्हा गया जिले की पहली वकील महिला, वंदना शाह, दीपिका सिंह राजावत जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट कठुआ गैंगरेप मामले में वकालत की, पिंकी आनंद यह ऐसी नामी शख्सियत बन चुकी है कि इन्हें पहचान की जरूरत नहीं रह गई है क्योंकि इन्होंने अपने आप को साबित कर दिखाया है। हाल फिलहाल यह बिल अटका हुआ है। अब अगर आरक्षण के जरिए गूंज उठी है तो सुनी भी जायेगी।
प्रियंका वरमा माहेश्वरी, गुजरात