केंद्र को इस तथ्य पर अधिक संज्ञान होना चाहिए कि किसान और कृषि क्षेत्र दोनों इसके संरक्षण में हैं, और वे मुक्त बाजार अभिनेता नहीं हो सकते। बड़े निगमों के साथ बातचीत में अपने हित की रक्षा के लिए उनके पास पर्याप्त लाभ नहीं है। कृषि क्षेत्र में मौजूदा विकृतियों को सुधारने का कोई मतलब नहीं है जो किसानों के बीच विश्वास को प्रेरित नहीं करता है। – प्रियंका सौरभ
जयपुर और आगरा के लिए दिल्ली के राजमार्गों की नाकाबंदी के लिए किसान संगठनों के आह्वान के बाद पूरे भारत में तनाव बढ़ गया है। तीन विवादास्पद फार्म विधेयकों के सवाल पर नरेंद्र मोदी सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच समझौता मायावी प्रतीत होता है। राष्ट्रीय राजधानी के पड़ोसी राज्यों के किसानों की एक बड़ी संख्या आस-पास के स्थानों पर डेरा डाले हुए है।
कई दौर की बातचीत के बाद, केंद्र ने अब लिखित आश्वासन दिया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी खरीद जारी रहेगी, साथ ही राज्य द्वारा संचालित और निजी मंडियों, व्यापारियों के पंजीकरण के बीच किसानों की चिंताओं से निपटने के लिए कानूनों में संशोधन के प्रस्ताव भी शामिल होंगे। ये आश्वासन किसानों द्वारा उठाए जा रहे चिंताओं के जवाब में हैं, लेकिन वे उन्हें अपर्याप्त और आधे-अधूरे लगते हैं।
लेख/विचार
तो क्या सरकार कांग्रेस का एजेण्डा आगे बढ़ा रही है -डॉ. दीपकुमार शुक्ल
नये कृषि बिल को लेकर जहाँ पूरे देश के अन्दर बबाल मचा हुआ है वही कई विदेशी नेताओं का भी इस ओर ध्यान केन्द्रित है| भारत सरकार कृषि बिल की विशेषताएं बताकर नहीं थक रही है तो आन्दोलनरत किसान इसे वापस लेने की मांग पर अड़े हुए हैं| किसानों के सुर में सुर मिला रही विपक्षी पार्टियाँ आपसी भेदभाव भुलाकर एकता और अखण्डता के सूत्र में बंध चुकी हैं| कनाडा के प्रधानमन्त्री सांसद तनमनजीत सिंह ने भारतीय किसानों का मुद्दा उठाकर अपने भारत प्रेम को प्रस्तुत किया है| भारत सरकार के मन्त्री भी किसी से कम नहीं हैं| केन्द्रीय मन्त्री राव साहब दानवे किसान आन्दोलन को चीन और पाकिस्तान की साजिश बता रहे हैं| कानून मन्त्री रवि शंकर प्रसाद सहित अन्य सभी भाजपा नेता इस मुद्दे पर कांग्रेस को घेरते हुए आरोप लगा रहे हैं कि 2019 के चुनावी घोषणा-पत्र में जिस कांग्रेस ने कृषि कानूनों में संशोधन को शामिल किया था वही कांग्रेस अब नये कृषि विधेयक का विरोध कर रही है| निश्चित रूप से इससे कांग्रेस का दोहरा चरित्र उजागर होता है|
Read More »सिर्फ सुन कर निर्णय न करें
प्रस्तुत आलेख का यह शीर्षक कहना चाहता है कि अक्सर हम किसी के बारे में किसी के मुंह से सिर्फ कुछ बनी बनाई मनगढ़ंत बातें सुनकर ही उस व्यक्ति के गुण दोष या चरित्र के बारे में धारणा बना लेते हैं और उस व्यक्ति को बहुत निम्न अथवा उच्च दर्जा अपने हिसाब से उन सुनी बातों के आधार पर ही देने लगते हैं। पर कभी-कभी सत्य कुछ और ही होता है जिसका हमें तनिक भी भान नहीं रहता।
हमारे समाज में प्रायः लोगों की धारणा यही होती है कि सिर्फ बहू ही सास को सता सकती है सास बिचारी तो बुजुर्ग और बेटे बहू के अधीन ही होती है जब की कई परिवारों में इसके बिल्कुल विपरीत सर्वगुण संपन्न एवं स्वभाव से बहुत ही आदर्श बहू को भी अपने बुजुर्ग और स्वभाव से अत्यंत सरल सी प्रतीत होने वाली किन्तु अपने बेटे पर हमेशा पूर्णतः अपने आधिपत्य जमाने वाली सास के द्वारा उत्पन्न किए गए समस्याओं का सामना करते हुए थक हार जाना पड़ता है और सास के द्वारा अपनी ही बहू के खिलाफ फैलाए गए रायते के लिए अथक प्रयास करते देखा गया है क्योंकि अक्सर लोग सुनी सुनाई बातों पर किसी के बारे में बहुत शीघ्र निर्णय कर लेते हैं।
केवल विवाह के लिए धर्म परिवर्तन करना बिल्कुल भी बुद्धिमानी नहीं है
हालाँकि, अंतरजातीय विवाह पर कानूनों का विचार सीधे तौर पर लोगों के स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार जैसे कई अधिकारों का उल्लंघन करता है। यदि कोई युगल अपने विश्वास के बावजूद शादी करना चाहता है, तो यह राज्य का कर्तव्य है कि वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग करने के लिए उन्हें सक्षम और सुविधा प्रदान करे, न कि इसे प्रतिबंधित करे। -प्रियंका सौरभ
उत्तर प्रदेश सरकार ने लव जिहाद ’को रोकने के लिए एक अध्यादेश से गैरकानूनी धार्मिक रूपांतरण’ के लिए कानून बनाने का प्रस्ताव दिया है। सदियों से भारत में जातिवाद और धर्मवाद का प्रचलन रहा है। कई कानूनों के बावजूद, अंतरजातीय विवाह के लिए सामाजिक कलंक अभी भी भारतीय समाज में मौजूद है। हालाँकि, अंतरजातीय विवाह पर कानूनों का विचार सीधे तौर पर लोगों के स्वतंत्रता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार जैसे कई अधिकारों का उल्लंघन करता है।
देश में राजनीति करने के लिए अब क्या किसान ही बचे है?
किसान चाहता समाधान|
हिंदुस्तान एक कृषि प्रधान देश होने के साथ-साथ राजनीतिक लोकतंत्र पर विश्वास करने वाली सरकार का भी देश है, स्वतंत्रता के बाद प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों को हर सरकार ने अपनाकर देश में विकास लाने का प्रयास किया है, और इसी मूल मंत्र के चलते कृषि सेक्टर को प्राथमिकता देकर उसे बढ़ावा देने और उसके विकास के लिए हर संभव प्रयास किए हैं, इसी तारतम्य में मोदी सरकार द्वारा कृषि कानून 2020 बनाया गया. जैसे पूरे राष्ट्र में कृषि की एकरूपता वाली नीति का निर्धारण संसद में बिल पास कर दिया गया| पर अचानक देश के अन्नदाता कृषक इस नीति के विरोध में सड़क पर उतर आए, सरकार और कृषक समुदाय में गतिरोध आकर नई उलझन खड़ी हो गई है, कृषक अपनी बात मनवाने के लिए आंदोलन पर उतर आए और उनकी मुख्य मांग कृषि कानून को रद्द करने की सरकार के सम्मुख रखी है,पर सरकार समझौते के लिए बैठक पर बैठक आयोजित करती जा रही है|
परीक्षा के लिए अलग मंत्रालय का गठन हो
प्राचीन शिक्षा पद्धति में आधुनिक युग की भाँति परीक्षा लेने तथा उपाधि प्रदान करने की प्रथा का अभाव था। विद्यार्थी गुरु के सीधे संपर्क में रहते थे। जब वे एक पाठ याद कर लेते तथा गुरु उससे संतुष्ट हो जाता तब उन्हें दूसरा पाठ याद करने को दिया जाता था। अध्ययन की समाप्ति पर समावर्त्तन नामक संस्कार आयोजित होता था तथा उसके बाद छात्र एक विद्वत्मंडली के सामने प्रस्तुत किया जाता था। वहाँ उससे उसके अध्ययन से संबंधित कुछ गूढ प्रश्न पूछे जाते थे। उसके अनुसार वह स्नातक बन जाता था। यहाँ उल्लेखनीय है, कि विद्वानों की सभा छात्र की योग्यता के विषय में अंतिम प्रमाण नहीं था, अपितु इस संबंध में अंतिम निर्णय उसे ज्ञान प्रदान करने वाले आचार्य का ही होता था। चरक तथा राजशेखर ने विद्वत्परिषदों का उल्लेख किया है, जो कवियों तथा विद्वानों की परीक्षा लेती थी।
Read More »एै परिस्थिति तू मुझे कितना रूलाएगी
एै परिस्थिति तू मुझे कितना रूलाएगी
हार कर तू खुद मुझे
जीत तक पहुँचाएगी
एै परिस्थिति तू मुझे कितना रूलाएगी
फैला कर अपना मकड़
जाल तू खुद
फस जाएगी
एै परिस्थिति तू मुझे कितना रूलाएगी
अपने उलझे हुुए डाेर काे
तू खुद सुलझाएगी
मजाक बनता सूचना का अधिकार
समाजसेवी अन्ना हजारे के आमरण अनशन के बाद 12 अक्टूबर 2005 को जब सूचना का अधिकार अधिनियम लागू हुआ तब लगा था कि अब लोकतन्त्र सार्थक होगा। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, शासन-प्रशासन के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप पारदर्शी हो जायेंगे, देश का आम जन सशक्त बनेगा और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया में नागरिकों की पूर्ण भागीदारी सुनिश्चित होगी। क्योंकि यह अधिनियम जनता के प्रति सरकारी तन्त्र की जवाबदेही सुनश्चित करता है तथा देश के आमजन को शासन-प्रशासन के कामकाज को जानने और समझने का अधिकार प्रदान करता है। लेकिन देश का आमजन इस अधिकार का कितना और किस हद तक उपयोग कर पा रहा है, यह किसी से छुपा नहीं है।
Read More »बिहार मा चुनाव बा……….
बिहार चुनाव का दंगल शुरू हो गया है। सियासी गलियारों में दलित वोट हांकने की कवायद शुरू हो गई है। ये जुदा बात है कि बेरोजगारी, स्वास्थ्य, शिक्षा ये मुद्दे पहले भी ज्वलंत थे और आज भी उतने ही ज्वलंत मुद्दे हैं, लेकिन इस बार नाराज युवा वर्ग ने बेरोजगारी के मुद्दे को अहम बनाया है और रोजगार की मांग की है। बिहार की हालत अब भी बुरी है। सड़कें गड्ढों से पटी पड़ी है बहुत से घर पानी में डूबे हुए हैं। बदबू और सड़ांध से लोगों का दम घुट रहा है और प्रशासन व्यवस्था निष्क्रिय है। चुनावी उम्मीदवार सीएम बनने का सपना तो देख रहे लेकिन वो अपने क्षेत्र की समस्याओं को नजरअंदाज किए हुए हैं। किसानों की बदहाली कोई आज की बात नहीं है और इनकी बदहाली खत्म होने का नाम नहीं ले रही आए दिन आत्महत्या और उस पर राजनीति। कुछ अच्छा होने की उम्मीद में किसान वोट का मोहरा बनते जा रहा है। बिहार में 96.5% किसान छोटे और मध्यम जोत वाले हैं इसके साथ ही काफी संख्या में बटाईदार और कृषि आधारित श्रमिक हैं। बहुत से किसान ऐसे भी हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य वाली फसल उगा नहीं पाते और जो उगाते भी हैं उन्हें उसका समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता है। बाढ़ और सूखा यह आपदाएं किसान के ऊपर हमेशा से हावी रही है। यह मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए चुनौतीपूर्ण है।
Read More »टीआरपी मुक्त खबरें क्यों नहीं ?
आम दर्शक तो टीवी पर केवल सच्ची और साफ-सुथरी खबरें ही देखना चाहते हैं, किंतु टीआरपी की होड़ ने आज न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता को इतने निचले स्तर पर ला दिया है कि अब अधिकतर न्यूज़ चैनलों पर सही न्यूज़ की जगह फेक न्यूज़ और डिबेट के रूप में हो हल्ला ही देखने-सुनने को मिलता है। सभी चैनल यह दावा करते हैं कि हम ही नंबर वन हैं। अभी हाल ही में देश के दो बड़े न्यूज़ चैनलों पर टीआरपी से छेड़छाड़ करने के आरोप लगे हैं। टीआरपी की इस होड़ ने न्यूज़ चैनलों की पत्रकारिता का स्तर इतना अधिक गिरा दिया है कि लोकतंत्र के चौथे स्तंभ यानी मीडिया पर दीमक सी लगती नजर आ रही है।
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