हाल ही में संयुक्त राज्य अमेरिका में एक अश्वेत व्यक्ति जॉर्ज फ्लॉयड की पुलिस हिरासत में मौत के खिलाफ हिंसक विरोध प्रदर्शन संयुक्त राज्य अमेरिका सहित विश्व भर के कई अन्य देशों में भी देखने को मिले हैं। दुनिया में लोकतांत्रिक मूल्यों का डंका पीटने वाला संयुक्त राज्य अमेरिका अपने ही आंगन में गोरे पुलिसकर्मी के घुटने तले दम घुटने से अफ्रीकी अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की मौत के बाद समता, सामाजिक न्याय एवं मानवाधिकारों की रक्षा में नाकामी के कारण कठघरे में है।
क्षेत्रफल के हिसाब से महादेश कहलाने वाले तमाम जनसंस्कृतियों से युक्त इस देश के आधे से ज्यादा राज्य आजकल नस्लीय नफरत के विरोध की आग में जल रहे हैं। इस विरोध प्रदर्शन को अलग-थलग करने के लिये अमेरिकी सरकार ने भीड़ के ऊपर आँसू गैस के गोले, रबड़ की गोलियों का इस्तेमाल किया और अमेरिकी राष्ट्रपति ने प्रदर्शनकारियों को ‘ठग’ कहा एवं उन्हें गोली मारने और उनके खिलाफ सेना के इस्तेमाल करने की धमकी दी।
लेख/विचार
लोक कला के संवाहकों के जीवन की अनिश्चतता
लोक कला ही जिनके जीवन का आधार एवं रोजगार है, कोविड-19 के चलते उनका जीवन आज अनिश्चतताओं से भर गया है| आधुनिक परिवेश में सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का यदि कोई कार्य कर रहा है तो वह लोक कलाकार ही हैं| भौतिक प्रगति की अन्धी दौड़ में भागते समाज के वर्तमान स्वरुप को ध्यान में रखते हुए यदि लोक कलाओं को समाज से हटाकर विचार किया जाये तो हम देखेंगे कि समाज में ऐसा कुछ भी नहीं बचता है, जिसे हम अपना कह सकें| कहते हैं कि शिक्षा संस्कार देती है, पर क्या आधुनिक शिक्षा, जिसमें सांस्कृतिक मूल्यों का कहीं कोई स्थान ही नहीं है? वर्तमान शिक्षा व्यक्ति को यन्त्र तो बना सकती है| परन्तु मनुष्य कभी नहीं बना सकती है| ऐसे में मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा, जिसमें त्याग, बलिदान और अनुशासन के आदर्श निहित हैं, यदि कहीं संरक्षित है तो वह मात्र लोक कलाओं में ही है| इस तरह से वर्तमान परिवेश में लोक कलाएं ही भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की सच्ची संवाहक हैं और लोक कलाकार उन लोक कलाओं के| समाज का सामान्य परन्तु एक बड़ा वर्ग इन कलाओं का सम्मान करते हुए, लोक कलाकारों को प्रस्तुति के अवसर देकर सांस्कृतिक मूल्यों का संरक्षण करने का प्रयास करता है| क्योंकि समाज का सामान्य वर्ग जहाँ एक ओर न चाहते हुए भी भौतिक प्रगति की दौड़ में भाग रहा है वहीँ स्वयं को नैतिक मूल्यों से जोड़े भी रखना चाहता है|
Read More »अनलॉक फेस -1 कितना सुरक्षित..?
लॉकडाउन खुलने के बाद जो आवागमन कम था अब रफ्तार पकड़ने लगा है। कोरोना वायरस आपदा के चलते व्यापार, मजदूर वर्ग और जनजीवन बहुत प्रभावित हो रहा था इन सबके बीच इस वायरस से लड़ते हुए लाकडाउन का खुलना ठप्प पड़े व्यापारी वर्ग और आम जनजीवन को राहत दे सकता है। व्यापार या आर्थिक मंदी को फिर से रफ्तार में लाने के लिए लाकडाउन का खुलना जरूरी था क्योंकि पापी पेट के लिए कब तक बंद रह कर जिया जा सकता है। हालांकि पूरे विश्व के मुकाबले हमारे देश में इस वायरस से संक्रमित आंकड़े कम है और महामारी को देखते हुए लॉकडाउन का फैसला लिया गया लेकिन लंबे समय तक ये फैसला नहीं लागू किया जा सकता।
“एक और बेगुनाह की हत्या”
दक्षिण भारत के केरल राज्य में लिटरेसी रेट ९९% है। दूसरे शब्दों मे कहें तो केरल हिन्दुस्तान का सबसे साक्षर राज्य है किन्तु गत् २५ मई को केरल के पल्लकड़ जिले में भूख से बेहाल एक गर्भवती हथिनी को जिस प्रकार अन्नानास में विस्फोटक भरकर खिला दिया गया और जिससे उसका मुँह और जबड़ा जलकर जख्मी हो जाने के कारण हथिनी की मौत हो गई, केरल की साक्षरता का यह आंकड़ा दुर्भाग्यपूर्ण प्रतीत होता है।
इस घटना से ये भी साबित होता है कि लिटरेसी का मानवीयता से कोई संबंध नहीं है। पूर्णतः शिक्षित इस राज्य ने यह साबित कर दिया कि पढ़ लिखकर शिक्षित कहलवाना और वास्तविक रूप से शिक्षित होना दो अलग बातें है। इस लिहाज से देखे तो बिहार जैसे राज्य में जहाँ लिटरेसी रेट केरल जैसे राज्यों की अपेक्षा बहुत कम है, ज्यादातर लोग मेहनत मजदूरी करके जीवनयापन करते हैं परंतु इन राज्यों से इस तरह की क्रूरतम घटनाओं की खबरें कभी सामने नहीं आई।
संस्कार विहीन समाज की उभरती नई संस्कृति
वर्तमान में जब समाज में कोई नकारात्मक कृत्य घटित हो जाता है तो सभी सोशल मीडिया के माध्यम से शोक प्रकट करने लगते है वास्तव में यह सब हमारे द्वारा दिए गए संस्कारों का परिणाम है जो इस तरह की भयानक घटनाओं के रूप में सामने आते है–
एकल परिवार का प्रचलन बढ़ने से माता-पिता की बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच बच्चे अपनी संस्कृति और संस्कारों से अपरिचित रह जाते है क्योंकि संयुक्त परिवार में माता-पिता, दादा-दादी की छांव में जब एक बच्चा बड़ा होता है तो वह इन समस्त गुणों से परिपूर्ण हो जाता है!!
जन्म के साथ ही बच्चे को मोबाइल थमा देना व्यस्तता के कारण माता-पिता की मजबूरी होती है परंतु बचपन से ही विकिरणों के नकारात्मक प्रभाव से बच्चे की दशा(स्वास्थ संबंधी समस्यायें) और दिशा(मूल्यहीन मनोवृत्ति) दोनों का नकारात्मक विकास हो जाता है!!
मासूम बच्चों की पीड़ा का अंतर्राष्ट्रीय दिवस -डॉo सत्यवान सौरभ
अंतर्राष्ट्रीय दिवस जनता को चिंता के मुद्दों पर शिक्षित करने के लिए, वैश्विक समस्याओं को संबोधित करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और संसाधन जुटाने के लिए, मानवता की उपलब्धियों को मनाने और सुदृढ़ करने के अवसर हैं। अंतर्राष्ट्रीय दिनों का अस्तित्व संयुक्त राष्ट्र की स्थापना से पहले है, लेकिन संयुक्त राष्ट्र ने उन्हें एक शक्तिशाली वकालत उपकरण के रूप में अपनाया है।
19 अगस्त 1982 को फिलिस्तीन के सवाल पर एक विशेष सत्र में सयुंक्त राष्ट्र की महासभा ने प्रत्येक वर्ष के 4 जून को “मासूम बच्चों की पीड़ा का अंतर्राष्ट्रीय दिवस” मनाने का फैसला किया, इस दिन का उद्देश्य दुनिया भर में बच्चों द्वारा पीड़ित दर्द को स्वीकार करना है जो शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक शोषण का शिकार हैं। यह दिन बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबद्धता की पुष्टि करता है।
हारी बाजी को जीतना सिखाती है साइकिल -प्रियंका सौरभ
एक जमाना था जब भारत ही नहीं दुनिया भर में साइकिल का बोलबाला था, धीरे-धीरे इनकी जगह स्कूटर-मोटरसाइकिल और अब कारों ने ले ली, मगर जगह तो ले ली पर साथ ही धरती पर इंसानों के बचने की जगह कम हो गई, कसरत के आभाव में इंसान सुविधा भोगी हो गया, परिणामस्वरुप उसे तरह-तरह की बीमारियों ने घेर लिया। ये सुनने में आपको हैरानी होगी कि अब दुनिया के अधिकांश डॉक्टर रोगियों को आधा घंटा साइकिल चलाने की नसीहत पर्ची पर लिखकर देने लगे है ताकि उनकी शारीरिक क्षमता बनी रहे और दवाइयों के कुप्रभाव न आये।
बचपन में तो हर किसी ने साइकिल चलाई है लेकिन आज के इस दौर में साइकिल जैसी चीजें बहुत कम ही देखने को मिलती हैं। लोग आज कल मोटरसाइकिल और कार से जाना ज्यादा पसंद करते हैं। मगर क्या आपको मालूम है कि साइकिल आपके सेहत के लिए कितने फायदेमंद साबित हो सकती है। बचपन में जब हम साइकिल चलाते थे तो हमारी सेहत बनी रहती थी और हमे किसी भी बीमारी लगने का खतरा नहीं होता था। यहां तक कि साईकिल चलाने के बाद भी हम पूरा दिन एक्टिव रहते थे।
टिड्डियों का आतंक
बाइबल में भी इनका जिक्र है और पहले भी इनका झुंड नुकसान पहुंचाता था परन्तु पिछले 20 वर्षों में इनका अटैक सबसे ख़तरनाक साबित हुआ है, इसका मुख्य कारण जलवायु परिवर्तन, बेमौसम बारिश और नमी को माना जा रहा है। इनकी आबादी को बढ़ावा देता है और हाल ही में बंगाल में आया तूफान भी एक कारण है।
जल संकट एक और खतरे की घंटी -डॉo सत्यवान सौरभ
नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत, इतिहास में अपने ‘सबसे खराब’ जल संकट का सामना कर रहा है। गर्मियों में नल सूख गए हैं, जिससे अभूतपूर्व जल संकट पैदा हो गया है। एशियाई विकास बैंक के एक पूर्वानुमान के अनुसार, भारत में 2030 तक 50% पानी की कमी होगी। हाल ही के अध्ययनों में कम पानी की उपलब्धता के मामले में मुंबई और 27 सबसे कमजोर एशियाई शहरों में शीर्ष पर मुंबई और दिल्ली शामिल हैं। यूएन-वॉटर का कहना है कि “जलवायु परिवर्तन के पानी के प्रभावों को अपनाने से स्वास्थ्य की रक्षा होगी और जीवन की रक्षा होगी”। साथ ही, पानी का अधिक कुशलता से उपयोग करने से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम होगा। हालांकि, कोविड-19 महामारी के जवाब में, हाथ धोने और स्वच्छता पर अतिरिक्त ध्यान केंद्रित किया गया है।
Read More »आरोग्य सेतु, निजता पर केतु – डॉo सत्यवान सौरभ
अगर वैज्ञानिक एवं प्रौद्योगिकीय में यह भुला दिया जाता है कि मानवाधिकारों का आदर या सम्मान नहीं होगा तो, किसी भी तरह का विकास टिकाऊ साबित नहीं होगा। इन्हीं मानवाधिकारों में ‘निजता का अधिकार’ भी शामिल है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के अनुसार, भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 के अंतर्गत ‘निजता का अधिकार’ मूल अधिकारों की श्रेणी में रखा गया है।
भारत सरकार ने भी ‘आरोग्य सेतु’ के माध्यम से कोविद-19 से संक्रमित व्यक्तियों एवं उपायों से संबंधित जानकारी उपलब्ध कराने का प्रयास किया है। परंतु इसके साथ ही विभिन्न देशों की सरकारों पर नागरिकों की निजता के उल्लंघन का आरोप भी लग रहा है। फ्रांस के सिक्योरिटी एक्सपर्ट और एथिकल हैकर इलियट एंडरसन ने पिछले महीने ट्वीट करके आरोग्य सेतु ऐप की प्राइवेसी को लेकर सवाल खड़ा किया था। उन्होंने दावा किया था कि आरोग्य सेतु ऐप इस्तेमाल करने वालों का डेटा खतरे में है। ऐसे में अब सरकार ने आरोग्य सेतु ऐप में बग ढूंढने वाले और इसकी प्रोग्रामिंग को बेहतर बनाने का सुझाव देने वाले को एक लाख का पुरस्कार देने की घोषणा की है।