पठानकोट, उरी और अब पुलवामा पर अटैक और हमारे जवानों की हत्या निस्संदेह निंदनीय है और ये एक कायरतापूर्ण हरकत है। हमारे जवानों का बलिदान बेकार नहीं जाना चाहिए। लोगों में पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा जायज है। ये सही है कि पाकिस्तान को सबक सिखाना जरूरी है लेकिन लड़ाई आसान नहीं होती है। अगर युद्ध होता है तो किस स्तर पर होगा? और उसके परिणाम क्या होंगे? और उससे भी अहम सवाल कि हमारी सेना कितनी तैयार है इसके लिए? जब भी कोई युद्ध होता है हम सब का गुस्सा एकदम चरम स्थिति पर होता है और हम चाहते हैं कि तुरंत कार्यवाही हो। इसमें सिंधु जल समझौता, एमएफएन (मोस्ट फेवर्ड नेशन) का दर्जा, पाकिस्तान को आतंकी राष्ट्र घोषित करना, दूतावास बंद कर देना, राजदूत की वापसी इस तरह की बातों पर जोर दिया जाता है लेकिन इन बातों पर अमल नहीं होता। हालांकि इस बार एम एफ एन का दर्जा वापस ले लिया गया है और सेना को छूट भी दे दी गई है।
Read More »लेख/विचार
बाजारवाद के इस दौर में प्रेम भी तोहफों का मोहताज़ हो गया
वैलेंटाइन डे, एक ऐसा दिन जिसके बारे में कुछ सालों पहले तक हमारे देश में बहुत ही कम लोग जानते थे, आज उस दिन का इंतजार करने वाला एक अच्छा खासा वर्ग उपलब्ध है। अगर आप सोच रहे हैं कि केवल इसे चाहने वाला युवा वर्ग ही इस दिन का इंतजार विशेष रूप से करता है तो आप गलत हैं। क्योंकि इसका विरोध करने वाले बजरंग दल, हिन्दू महासभा जैसे हिन्दूवादी संगठन भी इस दिन का इंतजार उतनी ही बेसब्री से करते हैं। इसके अलावा आज के भौतिकवादी युग में जब हर मौके और हर भावना का बाज़ारीकरण हो गया हो, ऐसे दौर में गिफ्ट्स टेडी बियर चॉकलेट और फूलों का बाजार भी इस दिन का इंतजार उतनी ही व्याकुलता से करता है।
आज प्रेम आपके दिल और उसकी भावनाओं तक सीमित रहने वाला केवल आपका एक निजी मामला नहीं रह गया है। उपभोगतावाद और बाज़ारवाद के इस दौर में प्रेम और उसकी अभिव्यक्ति दोनों ही बाज़ारवाद का शिकार हो गए हैं। आज प्रेम छुप कर करने वाली चीज नहीं है, फेसबुक इंस्टाग्राम पर शेयर करने वाली चीज है। आज प्यार वो नहीं है जो निस्वार्थ होता है और बदले में कुछ नहीं चाहता बल्कि आज प्यार वो है जो त्याग नहीं अधिकार मांगता है।
ईवीएम पर बार बार सवाल क्यों ?
पिछले काफी समय से ईवीएम पर छेड़छाड़ की खबरें सामने आ रही है और चुनाव बैलेट पेपर से किए जाने पर जोर दिया जा रहा है। एक तरह से देखा जाए तो यह चुनाव आयोग की प्रतिष्ठा का सवाल है कि उस पर उंगलियां उठाई जा रही हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त जिस तरह से ईवीएम मशीनों की सुरक्षा व्यवस्था पर जोर देते हैं और जिस तरह से मशीनों के साथ छेड़छाड़ की खबरें आ रही हैं वह मशीनों के सुचारू रूप से कार्य करने की प्रक्रिया को संदेह के घेरे में खड़ा करती है। चुनाव आयोग का कहना है कि ईवीएम मशीन बनने के बाद इनकी विश्वसनीयता की परख की जाती है और उसके बाद ही काम में ली जाती है। हर चुनाव में 20 से 25 प्रतिशत तक अतिरिक्त मशीनें सेक्टर अधिकारी के निगरानी में रखी जाती हैं जिन्हें वह मशीनों के खराब होने पर बदल देता है। ईवीएम मशीन 1982 में कांग्रेस द्वारा लाई गई थी और तब भाजपा ने इस का पुरजोर विरोध किया था और आज हालात वही है, पर उल्टे हैं। आज कांग्रेस विरोध कर रही है और भाजपा समर्थन। तो क्या ईवीएम का विकल्प बैलेट पेपर है?
Read More »रेडियो के सुनहरे सफर के स्मरण का दिन
सुनहरी और खट्टी-मिट्ठी स्मृतियों को सहेजे रेडियो अपनी जीवन-यात्रा का शतक पूरा करने को है। पूरी दुनिया में रेडियो ने श्रोता वर्ग से जो सम्मान और प्यार हासिल किया वह अन्य किसी माध्यम को न मिला और न कभी मिल सकेगा। विविध इंद्रधनुषी कार्यक्रमों के द्वारा रेडियो ने न केवल मनोरंजन, जागरूकता और शिक्षा संस्कार के वितान को समुज्ज्वल किया बल्कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के ध्वज को भी थामे रखा। सुदूर दक्षिण के तमिल, कन्नड, मलयालम भाषी जन हों या उत्तर का कश्मीरी-डोंगरी, हिमाचली समुदाय। हरियाणवी, राजस्थानी भाषा के चित्ताकर्षक रंग हो या ब्रज, बुंदेली, बघेली और अवधी बोलियों की मधुमय मृदुल रसधार। पूर्वोत्तर की मिजो, नागा, त्रिपुरा, असम की क्षेत्रीय भाषायी समुद्धि हो या मराठी, गुजराती, पंजाबी की मधुर वाणी। सभी को रेडियो ने स्वर दिए और विस्तार एवं संरक्षण का रेशमी फलक भी। हिन्दी के राष्ट्रीय प्रसारणों को सम्पूर्ण देश ने सुना और गुना तथा सृजन के सुवासित सुमन पोषित किए। रेडियो ने जन-जन का बाहें फैलाकर स्वागत किया। भारत में तो रेडियो परिवार के सदस्य की तरह रहा और है। आज की पीढ़ी के पास भले ही इलेक्ट्रनिक गैजैट के रूप में मनोरंजन, ज्ञान-विज्ञान और शिक्षा के तमाम संसाधन एवं विकल्प मौजूद हों पर वह संतुष्ट नहीं है। लेकिन पूर्व पीढ़ी के पास केवल रेडियो था और आत्मीय संतुष्टि भी। रेडियो ने भी कभी निराश नहीं किया।
Read More »प्राथमिक शिक्षा में विज्ञान शिक्षण की चुनौती भरी राह
विज्ञान का अध्ययन बच्चों को तर्कशील एवं विवेकवान बनाता है। वे अवलोकन, प्रेक्षण, परिकल्पना, प्रयोग, निरीक्षण एवं निष्कर्ष के सोपानों से गुजरकर किसी तथ्य का अन्वेषण करते हुए एक सैद्धान्तिक फलक की रचना करते हैं जिसमें सच की इबारत लिखी होती है। फलतः बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टि एवं सोच विकसित होती है और वह किसी घटना के निहितार्थ को विज्ञान की कसौटी पर कस कर ही आगे बढ़ते हैं न कि आंख मूंद स्वीकार कर अंधविश्वास के गहन अंधेरे पथ पर फिसलतेे हैं। अवैज्ञानिक सोच का ही परिणाम है कि कभी गणेश मूर्तियां दूध पीने लगती है तो कभी क्रास से रक्त की धारा फूट बहने लगती है। आस्था, कर्मकाण्ड या अंधविश्वास का रास्ता विज्ञान के प्रासाद के द्वार पर आकर ठहर जाता है। विज्ञान के उपवन में अंदर वही प्रवेश कर सकता है जिसकी चेतना विज्ञानमय हो और दृष्टि एवं सोच दर्पण की मानिंद निर्मल। पर दुर्भाग्य से देश में ऐसा है नहीं। उपग्रह प्रक्षेपण के पूर्व विध्नहरण के लिए वैज्ञानिकों द्वारा किये जाने वाले हवन-पूजन के दृश्य उनके स्वयं के प्रयोग के विश्वास प्रति सवाल खड़ा करते हैं। यदि विज्ञान के शिक्षक बिल्ली के रास्ता काट जाने पर अपनी यात्रा स्थगित कर दें, सिर पर कौवा बैठ जाने को मृत्यु की सूचना समझ लें, रास्ते पर पानी से भरी बाल्टी और बछड़े को दूध पिलाती गाय मिलना शुभ और सफलता की गारंटी मान लिया जाये तो सोचना पडेगा कि वह विद्यार्थियों को कैसा विज्ञान बोध करा रहे होंगे। उल्लेखनीय है कि बच्चों में इसका बीजवपन समाज एवं घर-परिवार द्वारा पहले ही कर दिया गया होता है और हमारी प्राथमिक शिक्षा के केन्द्र उसके निर्मूलन की बजाय खाद-पानी दे पोषण का काम करते हैं। कालेज तक आते आते उसके अन्तर्मन में अंधविश्वास और ठकोसलों की जड़ें इतनी गहरी और पुष्ट हो जाती हैं कि उन्हें उखाड़ फेंकना असम्भव सा हो जाता है। रही सही कसर शिक्षकों का अतार्किक अवैज्ञानिक आचरण पूरी कर देता है।
आजादी के सत्तर सालों के बाद भी हम देश में एक वैज्ञानिक वातावरण क्यों नहीं बना पाये। क्यों हमने अपनी प्राथमिक शिक्षा को विज्ञान का दृढ़ आधार नहीं दे सके। क्यों किसी भी प्राथमिक स्कूल में विज्ञान का कोई छोटा-सा भी उपकरण बच्चों के हाथ में नहीं पहुंच पा रहा। क्यों विज्ञान को किताबांे से लिखाया और रटाया जाता रहेगा। प्रयोग के लिए जगह और अवसर कब-कहां मिलेगा। क्यों विज्ञान के शोधों में हम वैश्विक स्तर पर कहीं दिखाई नहीं देतें। कब तक हम विश्वगुरु होने का थोथा गान गाते फिरते रहेंगे। उत्तर कौन देगा, सर्वत्र मौन पसरा है। जाति, धर्म एवं भाषा के नाम पर तो आये दिन आंदोलन होते हैं पर प्राथमिक विद्यालयों में वैज्ञानिक उपकरणों एवं प्रयोगशालाओं की व्यवस्था के लिए क्यों नहीं कोई आंदोलन होता। प्राथमिक विद्यालयों से उभर रहे दृश्य निराश करतेे हैं क्योंकि उनमें विज्ञानमय जीवन की धड़कन सुनाई नहीं देती बल्कि अंधविश्वास की जड़ता का कर्कश स्वर गूंजता है।
नागा साधुओं की रहस्यमयी जीवनशैली
नागाओं की एक अलग ही रहस्यमय दुनिया है। चाहे नागा बनने की प्रक्रिया हो या उनका रहन-सहन सब कुछ रहस्य मय है। नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हो, तो सिर्फ गेरुआ रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुआ वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते।नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। नागाओं का यह श्रृंगार सिर्फ कुंभ के दौरान होने वाले स्नान के वक्त नजर आता है।मान्यता है कि सभी श्रृंगारों से युक्त नागा के दर्शन से कई जन्मों का पुण्य मिलता है।अखाड़ों से जुड़े नागा संतों का कहना है कि इस श्रृंगार की एक विधि है और यह सिर्फ खास अवसर पर किया जाता है। 17 श्रृंगार से सुसज्जित नागा अपने इष्ट यानी भगवान भोलेनाथ और भगवान विष्णु की पूजा करता है।
एक नागा श्रृंगार में लंगोट, भभूत, चंदन, पैरों में लोहे या चांदी का कड़ा, अंगूठी, पंचकेस, कमर में फूलों की माला, माथे पर रोली का लेप, कुंडल, हाथों में चिमटा, डमरू या कमंडल, गुथी हुई बताएं जटायें, तिलक, काजल, हाथों में कड़ा, बदन में विभूति का लेप, बाहों पर रुद्राक्ष की माला शामिल होती है। आमतौर पर एक सुहागिन महिला सोलह सिंगार करती है लेकिन यह नागा साधु अपने 17वें सिंगार के लिए जाने जाते हैं। 17वाँ सिंगार है “भस्म” जो कि नागा साधुओं का एकमात्र परिधान होता है। हर नागा अपने शरीर पर सफेद भस्म और रुद्राक्ष की मालाओं के अलावा कुछ नहीं पहनता। मान्यता है कि भगवान शंकर ऐसे ही 11000 रुद्राक्ष मालायें धारण करते थे।
ममता सरकार का सी बी आई पर सर्जिकल स्ट्राईक
बंगाल में पुलिस कमिश्नर को बचाने के चक्कर में ममता सरकार अब पूरी तरह तानाशाह की भूमिका मे आ गयी है। ममता बनर्जी जिस तरह बंगाल मे खुलेआम हिंसात्मक रवैये पर उतारू है उससे तो अब लग रहा की बंगाल की जनता को ममता का मोह छोड़ना पड़ सकता है। गत दिनों शारदा चिट फण्ड मामले मे कमिश्नर से पूछताछ करने गयी सी बी आई के छः अधिकारियों को पुलिस ने ममता के इसारे पर घेर कर गिरफ्तार कर लिया जो लोकतंत्र की खुलेआम हत्या है। नए सियासी ड्रामे में इस मामले को दबाने के लिए अब ममता अनसन पर बैठ गयी है जो इस बात का प्रतीक है कि ममता पूरे घोटाले से जनता का ध्यान हटाकर चुनाव को अपने पक्ष मे करना चाहती है। खैर ममता दीदी की सच्चाई अब धीरे धीरे जनता के बीच आ रही। पश्चिम बंगाल में हिन्दुओं की संख्या 50 लाख से 2 करोड़ के आसपास है लेकिन एक भी फ्री सस्ते इलाज वाले मल्टी सुपरटेलिटी हाॅस्पिटल नहीं है, या हैं भी तो सब फुल हैं और उनमें लूट चल रही है मैं ये बात इस लिए कह रहा हूँ कि बंगाल में अस्पतालों में पूर्वी उत्तर प्रदेश और सिलीगुड़ी जैसे बाहरी इलाकों से लोग इलाज के लिए आते हैं जिनमे सबसे अधिक संख्या हिन्दुओ की होती है और इन गरीब लोगों को बहुत मुश्किल से इलाज मिल पाता है क्योंकि बहुत भीड़ होती है यहाँ के अस्पतालों में।
अभी कुछ दिन पहले की बात है मैं एक राज्य सरकार के सरकारी अस्पताल में किसी के इलाज के लिए गया था वो बाहर से आए थे और वह अचानक बीमार हो गए थे उनके पास कोई भी रेफर डाॅक्यूमेंट या हेल्थ रिकाॅर्ड नहीं था तो उनका पर्चा नहीं बन रहा था तो मैंने वहाँ की डायरेक्टर की अस्सिस्टेंट से बात की पर्चा बन गया। जब मैं उनके वहाँ से निकल कर फ्लोर पर अपने मरीज के पास जा रहा था तभी मैंने देखा एक बच्ची और उसका परिवार सिलीगुड़ी से इलाज के लिए 12 बजे पहुँचे बच्ची के पेट में बहुत दर्द हो रहा था और वह सीढ़ी के कोने में लोट रही थी काफी टाइम से बच्ची तड़प रही थी उसका परिवार गरीब था इलाज कहाँ कराता, तो वह सीधा बस से 12 बजे बच्ची को लेकर यहाँ पहुँचे, न जाने कितनी तकलीफ से वह बच्ची यहाँ पहुँची होगी आप सोच भी नहीं सकते। हाॅस्पिटल में उनके पिता इधर उधर दौड़ रहे थे माँ बच्ची को पकड़ के बैठी थी 7 साल की मासूम को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है सभी डाॅक्टर सामने से निकल जा रहे थे माँ कह रही थी हमारी मदद करो कोई नहीं सुन रहा था मैं खड़ा देख रहा था अपने मरीज का पर्चा जमा कराने के बाद मैं 5 मिनट बाद लौटा और उनसे उनके बारे में बात की और फिर चीफ मेडिकल सुपरिटेंडेंट के रूम में पहुँचा जहाँ अपना पर्चा बनवाया था तो उनकी वार्डेन कहीं गयी हुई थी मैं 10 मिनट इंतेजार करने के बाद वापस उस बच्ची के पास गया उसे देखने वहाँ से 2 मिनट की दूरी पर वो बिल्डिंग थी जब पहुँचा तो वह बच्ची और उसका परिवार वहाँ मौजूद नहीं था मैंने जब उनको ढूँढना शुरू किया तो वह मुझे हाॅस्पिटल के बाहर आॅटो पर बैठकर जाते हुए दिखे। पता नहीं उस बच्ची का क्या हुआ होगा ऐसा हमारे बहुत से गरीब हिन्दू भाइयों बहनों के साथ रोजाना कहीं न कहीं होता है ये इतने अमीर नहीं हैं कि किसी पास के बड़े हाॅस्पिटल में इलाज करवा सके।
अबकी बार किसकी सरकार
2019 के आम चुनाव का बिगुल बस बजने ही वाला है| सभी महारथी अपनी-अपनी रणनीति बनाने में लगे हुए है| राजग को सत्ता से उखाड़ फेकने के लिए विपक्षी दल सारे बैर भाव भुलाकर गले मिल रहे हैं| सारी कवायद ठीक वैसी ही हो रही है जैसी सन 1989 में हुई थी| तब भाजपा समेत सभी विपक्षी दल कांग्रेस के विरुद्ध लामबंद हुए थे| बीते पच्चीस साल से नदी के दो पाट की तरह अडिग दिखने वाले एक दूसरे के धुर विरोधी मायावती और मुलायम सिंह एकता के सूत्र में बंध चुके हैं| प्रियंका गांधी के सक्रिय हो जाने के बाद कांग्रेस अब एकला चलो की नीति पर विचार कर रही है| अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी भी सत्ता के लिए कुछ भी करने को तैयार है| उधर सत्ता में पुनः वापसी के लिए राजग ने तुम मुझे वोट दो मैं तुम्हें नोट दूँगा की तर्ज पर जनता के लिए देश का खजाना खोल दिया है| अब निर्णय देश की जनता को करना है कि वह दिल्ली की गद्दी किसे सौंपती है| हालाकि चुनाव तक देश की राजनीतिक तश्वीर में अभी कितने और रंग भरे जाएंगे इसका अंदाजा किसी को भी नहीं है|
Read More »बच्चों की रचनात्मकता में बाधक होमवर्क
आज बच्चों को होमवर्क देना विद्यालयों की दैनंदिन शिक्षा प्रक्रिया का एक जरूरी अंग बन गया है। शायद ही कोई ऐसा स्कूल हो जो बच्चों को विषयगत होमवर्क न देता हो। देखने में आता है कि होमवर्क बच्चों को बांधे रखने का जरिया बन चुका है। होमवर्क में विद्यालय में पढ़ाये गये विषय के प्रकरण और पाठों पर आधारित वही प्रश्न घर पर पुनः लिखने को दिये जाते हैं जो बच्चों में ‘रटना’ की गलत प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। जबकि एनसीएफ-2005 की स्पष्ट अनुशंषा है कि बच्चों को कल्पना एवं मौलिक चिंतन मनन करने के अवसर दिये जायें, न कि रटने या नकल करने को बाध्य किया जाये। पर होमवर्क का बच्चों में ज्ञान निर्माण करने की बजाय सूचनाओं को रटवाने और नकल करने पर जोर है। क्योंकि आज की शिक्षा बच्चों को एक उत्पाद के रूप में तैयार कर रही है और इस प्रक्रिया में अभिभावक की भी स्वीकृति और भागीदारी है। तो यहां एक प्रश्न उभरता है कि बच्चों कों होमवर्क क्यों दिया जाये? क्या यह जरूरी है और बच्चों के लिए इसके क्या फायदे हैं?
होमवर्क में फंसे बच्चे के पास न तो प्रश्न हैं न ही जिज्ञासा। अगर कुछ है तो दबाव, होमवर्क पूरा करनें का दबाव और इस दबाव ने बच्चों से उनका बचपन छीन लिया है। उसके पास-पड़ोस और परिवेश में घट रही घटनाओं, प्राकृतिक बदलावों, सामाजिक तानाबाना, तीज-त्योहारों, को समझने-सहेजने, अवलोकन करने और कुछ नया खोजबीन करने का न तो समय है न ही स्वतंत्रता। होमवर्क बच्चो ंमें कुछ नया सीखने को प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि लीक का फकीर बनने को बाध्य कर रहा है। जाॅन होल्ट के शब्दों में कहूं तो ‘‘वास्तव में बच्चा एक ऐसी जिंदगी जीने का आदी बन जाता है जिसमें उसे अपने आसपास की किसी चीज को ध्यान से देखने की जरूरत ही नहीं पड़ती। शायद यही एक कारण है कि बहुत से युवा लोग दुनिया के बारे में बचपन में मिली चेतना और उसमें मिली खुशी खो बैठते हैं।’ आखिर कैसी पीढ़ी तैयार की जा रही है जिसकी सांसों में अपनी माटी की न तो महक बसी है और न ही आंखों में सौन्दर्यबोध। न लोकजीवन के रसमय रचना संसार की अनुभूति है और न ही लोकसाहित्य के लयात्मक राग के प्रति संवेदना और अनुराग। सहनशीलता, सामूहिकता, सहिष्णुता, न्याय, प्रेम-सद्भाव एवं लोकतांत्रिकता के भावों का अंकुरण न होने के कारण उनकी सोच एवं कार्य व्यवहार में एक प्रकार का एकाकीपन दिखायी पड़ता है। उसमें अंदर से रचनात्मक रिक्तता है और रसिकता का अभाव भी।
आम आदमी को अच्छे दिनों का अहसास कराता बजट
विपक्ष भले ही वर्तमान सरकार के इस आखरी बजट को चुनावी बजट कहे और कार्यवाहक वित्तमंत्री पीयूष गोयल के बजट भाषण को चुनावी भाषण की संज्ञा दे, लेकिन सच तो यह है कि इस आम बजट ने अपने नाम के अनुरूप देश के आम आदमी के दिल को जीत लिया है। जैसा कि प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, यह सर्वव्यापी, सरस्पर्शी, सरसमवेशी, सर्वोतकर्ष को समर्पित एक ऐसा बजट है जो भारत के भविष्य को नई ऊंचाइयों पर ले जाने के सपने अवश्य जगाता है जो कितने पूर्ण होंगे यह तो समय ही बताएगा।
यह पहली बार नहीं है जब किसी सरकार ने चुनावी साल में बजट प्रस्तुत किया हो। लेकिन हाँ, यह पहली बार है जब भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में जहाँ अब तक लगभग हर सरकार चुनावी साल के बजट में केवल आगामी लोकसभा चुनावों को ही ध्यान में रखकर बजट प्रस्तुत करती थीं, वहां इस सरकार ने आगामी दस सालों को ध्यान में रखकर बजट प्रस्तुत किया है।
यही मोदी की शैली है। खुद उनके शब्दों में जब मैं काम करता हूँ तो राजनीति नहीं करता और यही उनकी खासियत है कि उनके काम उनके विरोधियों को राजनीति करने लायक छोड़ते नहीं। अब देखिए ना चुनाव जीतते ही साढ़े चार साल उन्होंने सख्त प्रशासन और नोटबन्दी, जी एस टी जैसे कठोर फैसले लिए। और अब चुनाव से पहले जी एस टी में छूट, सवर्ण आरक्षण जैसे कदमों के बाद अब बजट में किसानों और असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों समेत मध्यम वर्ग के लिए सौगातों की बौछार लगा कर अपनी धारदार राजनीति से विपक्ष के वोटबैंक को धराशाही भी कर दिया। जिस मध्यम वर्ग से उन्होंने अपनी सरकार के पहले बजट में कहा था कि उसे अपना ध्यान खुद ही रखना होगा, उस मध्यम वर्ग को चुनावी साल में एक झटके में साध लिया। साथ ही वित्तमंत्री ने यह कहकर कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक गरीबों का है ना सिर्फ गरीबों को साधा बल्कि कांग्रेस पर भी प्रहार किया जिनकी सरकार में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक अल्पसंख्यकों का है।
लेकिन मोदी सरकार के इस बजट में समाज के हर वर्ग के लिए कुछ न कुछ है