क्यूँ समीर तू रुका हुआ है छोड़ सभी बांधा मग में।
मुझको भी गतिवान बना तू तीव्र चलूँ उजले पथ में।
क्यूँ समीर …………..
मंद मंद शीतलता से तू शीतल राहे कर देता।
निज स्वभाव को इस जीवन में थोड़ा सा ही भर देता।
क्यूँ समीर…………….
सरसर की मृदु ध्वनियों से तू सांसो की साँस बढ़ा देता।
सदृश तेरे मैं भी हो जाऊ अंतर का सुख दे देता।
क्यूँ सम…………….
तरु पल्लव में गति भरता तू जीव जंतु में भरता प्राण।
मंद मंद सुख सबको दे तू तन मन हर्षित कर देता।
क्यों समीर……………..
विविधा
हास्य-व्यंग्य : हमें गर्व है कि हम गधे हैं……..
23 फरवरी के बाद से जंगल के राजा की नीद उड़ी हुई थी। अपने प्रकृति निर्मित आवास के शयनकक्ष में आज सुबह से ही इधर से उधर चक्कर पे चक्कर मारे जा रहे थे। दो, तीन बार बाहर भी झाँक आये थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी की प्रतीक्षा कर रहे हों। बच्चों के साथ छू-छू खेल रही महारानी तिरछी निगाहों से बड़ी देर से उन्हें निहार रही थीं। आखिर उन्होंने पूंछ ही लिया “क्या बात है प्राणनाथ, बड़े परेशान दिखायी दे रहे हो? क्या किसी ने आपकी गैरत को ललकारा है जो इतने व्यग्र हो रहे हो, मुझे आदेश दीजिये प्राणेश्वर, कौन है गुस्ताख, मै एक ही पंजे से उसके प्राण पखेरू कर दूंगी”। चेहरे पर परेशानी का भाव लिये महाराज ने महारानी की ओर देखा और बोले “नहीं ऐसा कुछ भी नहीं करना है महारानी, कोई विशेष बात नहीं है। गजराज को बुलाया है, उनके आने के बाद ही कुछ सोचूंगा“ , “ऐसा क्या है जो आप मुझे नहीं बताना चाहते हैं ?” महारानी के इतना पूंछते ही दरबान लकड़बग्घा आ गया और सर झुकाकर बोला “महाराज की जय हो, महामन्त्री गजराज पधारे हैं, आपका दर्शन चाहते हैं, सेवक के लिए क्या आदेश है महाराज” , “ठीक है उन्हें अन्दर भेज दो“, “जो आज्ञा महाराज“ कहते हुए लकड़बग्घा चला गया। थोड़ी देर में गजराज आ गये उन्होंने महाराज का अभिवादन किया “आओ गजराज आओ, बड़ी देर कर दी आने में“, “कुछ नहीं महाराज, दरअसल हमारे पड़ोस में बनबिलार और बन्दर में सुबह-सुबह विवाद हो गया था, बस उन्हीं को शान्त कराने के चक्कर में थोड़ी देर हो गई” , “अच्छा-अच्छा, निपट गया, क्यों लड़ गये थे दोनों ?”, “कुछ नहीं महाराज, बस यूँ ही गधे के चक्कर में…….”, “ग..ग..ग..गधे के चक्कर में“ कहते हुए महराज को जैसे चक्कर आ गया हो।
Read More »मैं स्त्री हूँ
अनगिनत भावों के
मिश्रण से बनी
सृष्टि की सबसे अनमोल रचना
सृष्टि की प्रतीक हूं मैं
कहीं सर्द कही ऊष्ण
कहीं ठोस कही नम
कहीं तम कही प्रकाश
कहीं जल कही थल
कहीं अश्रु कही मुस्कान
कहीं उर्वर कही शुष्क
कहीं श्वेत कही श्याम
कहीं जन्मदायिनी कही संहारक
कहीं बिंदु कही अनंत
कहीं धरती कही अन्तरिक्ष
हाँ सृष्टि ही तो हूँ मैं
-ललिता करमचंदानी
” आया फिर से एक साल नया “
पतझड़ फागुन सावन गुज़रा
ऋतुओं से भरा मौसम गुजरा
जीवन का मतलब समझा कर
एक वर्ष पुराना बन गुजरा
अज्ञात दिशा की भूमि पर
आरोहण करने काल नया
उम्मीद का नन्दनवन लेकर
आया फिर से एक साल नया
झिलमिल आशा की जुगनू से
संशय का कोहरा झांक रहा
अपनों की बस्ती में सहमा
मन अर्थ समय के आंक रहा
सागर हीं सागर फैला है
नदिया सिमटी हीं जाती है
रिश्तों के भीड़ भरे तट पर
नीरवता क्रन्दन गाती है
लहर भँवर संग बीन रहा मिल
धुप छाँव का जाल नया
आया फिर से एक साल नया
राजगुरु की कुण्डलियाँ
( आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’, सिहोरा, जबलपुर )
सेवक से मालगुजार
सेवक बन सेवा करूं, झुक-झुक मांगी वोट ।
लेकिन अब यह कर रहा, जनता पर ही चोट ।।
जनता पर ही चोट, ले रहा वेतन भारी ।
हमें झुकाता फिरे, गजब की कारगुजारी ।।
‘‘राजगुरू’’ सब लील, रहा ये जनता के हक ।
बनता मालगुजार, किया था भरती सेवक ।।
नये सामन्त
घूमत देखे सड़क पर, नये गिद्ध, नव काग ।
लज्जित हो छुप गए कुछ, गये शहर से भाग ।।
शहर छोड़़ गे भाग, न ढूंढ़े मिलें पुराने ।
छीना सकल स्वभाव, हड़प के ठौर ठिकाने ।।
‘‘राजगुरू’’ पा वरद, हस्त कर रहे हुकूमत ।
सांसत सरल स्वभाव, देखते इनको घूमत ।।
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छप्पन इन्ची वक्ष
छप्पन इन्ची वक्ष
मोदी मोदी रट रहा, मिलकर सकल विपक्ष।
लेकिन जिद छोड़े नहीं, छप्पन इन्ची वक्ष।।
छप्पन इन्ची वक्ष, नहीं वह झुके झुकाये।
कैसे बचे बजूद, विपक्षी सब पगलाये।।
बची-खुची थी साख, विपक्षी-दल सब खो दी।
राम राम ज्यों जपें, ‘‘राजगुरु’’ मोदी मोदी।।
राजनीति का निम्न स्तर
सकल विपक्षी दल हुए, अब इतने लहलीट। (बे-शरम)
सेना को मुद्दा बना, लगे बचाने सीट।।
लगे बचाने सीट, सु-श्री ममता बौराई।
कहती पूछे बिना कुमुक तैनात कराइ्र्र।।
समझे दूजा देष, ‘‘राजगुरु’’ गायब अकल।
निम्न स्तर पर उतरे, विपक्ष के नेता सकल।ं
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भूलकर किसी और…..
भूलकर किसी और दुनिया में जो तुम खो गए
बैठ कर मेरी छांव में ही आँख मूँद जो सो गए।
हूँ पुराना मूल और आधार हूँ मैं आपका
छोड़ मुझको राहों में नई राह के तुम हो गए।
देखो झर झर झर रही है केंचुली मेरे अंग की
ओढ़ कर ये नया लबादा चैन से तुम सो गए।
आओगे मेरे पास तुम तुमको गले लगाऊंगी
चाहे मुझको छोड़कर तुम और के जो हो गए।
है बहुत तन्हा सी गमगीन दुनिया ये मेरी
आ गए जो गोद में तुम उजले अंधेरे हो गए।
पढ़ लूँ तुमको मैं या तुम पढ़ लो जो मुझको बैठकर
अब तो दोनों दोनों के ही साये से बस हो गए।
हूँ कोई पन्ना पुराना मैं गली किताब का
लफ्ज जैसे तुम जो आये पन्ने करारे हो गए।
Written by : Nutan Jyoti
Read More »दुविधा नदी को भारी है……
दुविधा नदी को भारी है, सागर का पानी खारी है
डरती जाती, बहती जाती, क्या करे, बेचारी नारी है
बेबस मन की हलचल है, लहर नहीं ये धड़कन है
तड़प रही है मिलने को, मिलने में भी तड़पन है
मंजिल मेरी सागर है, मन में यह उच्चारी है
दुविधा नदी को भारी है………
बंधन तट के दोनों ओर, और नहीं है कोई ठौर
सागर में ही मिल जायेगी, नदी रही है ये ही सोच
मंजिल अपनी सागर करली, राहों में ही वो हारी है
दुविधा नदी को भारी है…………..
छा गया जेहन पर
छा गया जेहन पर सुन्दर सा जो ये अक्स है
सिर्फ साया है किसी का या कोई सख्श है।
बुला रहा जो दूर से ही कर इशारे मुझे
है आसमाँ का चाँद या थाली में कोई अक्स है।
दिख रही है खूबसूरत आज फिर ये जमीं
जो जमीं पर छा रहा वो आसमाँ का अक्स है।
बज रही है मन की वीणा तार भी झंकृत हुए
सोच कर बस साथ मेँ जो किसी का अक्स है।
भूलकर सब जो जमीं नभ से है जा मिली
दिख रही है कुछ अलग कुछ अलग सा अक्स है।
तन भी सुंदर मन भी सुंदर सुंदर समां ये हो गया
छा रहा उस पर जो आज सुंदर सा ये अक्स है।
‘‘तेरा धीमे से कुछ कहना’’
परीशाँखातिरी दिल को जुदाई क्यूँ नहीं देता
पिघलती आग पर शब-ए-खुदाई क्यूँ नहीं देता।
मेरी तन्हाइयों में हर तरफ बिखरा है सन्नाटा
तेरा धीमे से कुछ कहना सुनाई क्यूँ नहीं देता।
फलक तक बादलों के संग चलती हैं थकी आँखें
तुम्हारा झूम कर आना दिखाई क्यूँ नहीं देता।
वो तय करता है जिद्दत से सफर आकाश से मन का
मगर सपनों के पंखों को ऊँचाई क्यूँ नहीं देता।
ये जो विश्वास फागुन-सा निखरकर गुनगुनाता है
निराशा के धुंधलके को विदाई क्यूँ नहीं देता।
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