10 मई को कर्नाटक की कुल 224 विधानसभा सीटों पर होने जा रहे विधानसभा चुनाव पर पूरे देश की नजरें केन्द्रित हैं कि यहां कौन किस पर कितना भारी साबित होता है। सभी दलों द्वारा अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए मतदाताओं को लुभाने के लिए हर प्रकार की कोशिशें और हर तरह की जोर आजमाइश की जा रही है। विधानसभा में इस बार भाजपा और कांग्रेस के बीच कड़ा मुकाबला होने की संभावना है, वहीं, जेडीएस भी अपना वोटबैंक बनाए रखने के भरपूर प्रयास कर रहा है। इस बार का चुनावी परिदृश्य इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि चुनावी मैदान में किस्मत आजमा रहे प्रमुख दलों कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस द्वारा स्थानीय समस्याओं और जमीनी मुद्दों को दरकिनार कर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, जातिगत समीकरण, कट्टर हिन्दुत्व बनाम उदार हिन्दुत्व और क्षेत्रीय अस्मिता जैसे भावनात्मक और अति राष्ट्रवाद जैसे मुद्दों को ज्यादा हवा दी जा रही है।
कर्नाटक विधानसभा चुनाव का परिणाम क्या होगा, यह तो 13 मई को पता चल ही जाएगा लेकिन इस बार जिस प्रकार िंलंगायत तथा अन्य धार्मिक मुद्दे जोर-शोर से उछाले गए हैं, उसके मद्देनजर प्रदेश में जातीय अथवा सामुदायिक आधार पर स्थापित मठों की राजनीति में सक्रिय भूमिका पर नजर डालना बेहद जरूरी है। दरअसल सभी राजनीतिक दलों के प्रमुख नेताओं का ध्यान मठों और संतों पर केन्द्रित है और सभी दल विभिन्न मठों में जाकर संतों का समर्थन जुटाने की जुगत में लगे हैं। भाजपा हो या कांग्रेस अथवा जेडीएस, सभी राजनीतिक दल मठों के मठाधीशों की कृपा पाने के उद्देश्य से मठों में हाजिरी लगा रहे हैं। इसी कड़ी में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सिद्धगंगा मठ का दौरा कर चुके हैं जबकि गृहमंत्री अमित शाह ने वोकालिग्गा समुदाय में बहुत अहम स्थान रखने वाले श्री आदिचुंचनगिरी मठ का दौरा किया। दरअसल भाजपा वोकालिग्गा मतदातों को अपनी ओर लाने के प्रयासों में जुटी है। भाजपा की नजरें अनुसूचित जाति, लिंगायत और वोकलिग्गा समुदायों पर केन्द्रित हैं। भाजपाध्यक्ष जेपी नड्डा भी तुमकुरु, दावणगेरे, चित्रदुर्ग जिलों के कई मठों में हाजिरी लगा चुके हैं। दूसरी ओर राहुल गांधी सहित कांग्रेसी नेता भी मठों का समर्थन हासिल करने के लिए मठों में हाजिरी लगाते रहे हैं।
वर्तमान में कर्नाटक में करीब 650-700 मठ हैं, जिनकी प्रदेश की राजनीति में सक्रिय भूमिका रही है। इन मठों का प्रदेश की जनता पर विशेष प्रभाव रहा है और यही कारण है कि प्रमुख दलों के नेता प्रदेश के विभिन्न मठों व मंदिरों में जा-जाकर माथा टेक रहे हैं। दरअसल कर्नाटक के ये मठ प्रदेश की राजनीति के महत्वपूर्ण केन्द्र रहे हैं और राजनीतिक तौर पर इनका भरपूर इस्तेमाल होता रहा है लेकिन प्रदेश के इतिहास में ऐसा पहली बार देखा जा रहा है कि दोनों प्रमख दलों द्वारा ज्यादा से ज्यादा मठों को अपने पक्ष में करने की होड़ सी लगी हो और ऐसे में चुनाव के दौरान इन मठों के मठाधीशों की भूमिका पर काफी हद तक यह निर्भर करेगा कि सत्ता की चाबी किसके हाथ लगती है। कुल 30 जिलों में विभाजित कर्नाटक में 80 फीसदी से भी अधिक आबादी किसी न किसी रूप में इन मठों से जुड़ी रही है और इन मठों के लोगों पर विशेष प्रभाव का सबसे बड़ा कारण यही है कि प्रदेश में ये मठ हजारों स्कूल-कॉलेजों का संचालन करते हैं और कल्याणकारी योजनाओं के अलावा किसी भी प्रकार की आपदाओं के समय राहत गतिविधियां भी चलाते रहे हैं। यही कारण है कि किसी भी राजनीतिक दल द्वारा इन मठों की अनदेखी किया जाना संभव नहीं है।
राजनीतिक दृष्टि से कर्नाटक में सबसे प्रमुख भूमिका लिंगायत-वीरशैव मठों की रही है और उसके बाद नंबर आता है वोक्कालिगा मठों का, तीसरे स्थान पर कुरूबा समुदाय के मठ और फिर अष्ट अथवा उडुपी मठ, ब्राह्मण समुदाय जिनका प्रमुख अनुयायी है। इनके अलावा दलित समुदाय भी प्रदेश के कई मठों से जुड़ा है, जिनमें कोलार का निदुमामिदि मठ, चित्रकुट जिले में स्थित बंजारा गुरूपीठ, बेंगलुरू स्थित मडिगा मठ, मदारा चन्नैया पीठ तथा श्रीमचिदेवा महासंस्थान मठ प्रमुख हैं। इन सभी मठों का अलग-अलग समुदायों में अच्छा खासा प्रभाव है। पिछड़े समुदाय ‘कुरूबा’ की प्रदेश में करीब आठ फीसदी आबादी है और इनके प्रदेशभर में करीब 80 मठ हैं। यह समुदाय हवेरी जिले में स्थित कागिनेले कनक गुरूपीठ से प्रमुख रूप से जुड़ा है। जहां तक सबसे महत्वपूर्ण लिंगायत समुदाय की बात है तो भाजपा द्वारा मुस्लिमों का आरक्षण खत्म कर लिंगायतों को उसका लाभ देने की घोषणा के पीछे छिपे निहितार्थ स्पष्ट समझे जा सकते हैं।
वैसे लिंगायत समुदाय समय-समय पर हिन्दू धर्म से अलग होने की मांग करता रहा है और इसी मांग को लेकर लिंगायतों ने कुछ साल पहले बीदर में एक बड़ा प्रदर्शन भी किया था, जिसमें कर्नाटक के अलावा महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश और केरल के लिंगायतों ने भी हिस्सा लिया था। इन राज्यों में साढ़े तीन हजार से भी ज्यादा लिंगायत-वीरशैव मठ हैं। ये 12वीं सदी के समाज सुधारक बासवन्न के अनुयायी माने जाते रहे हैं। प्रदेश की राजनीति में मठों के राजनीतिक प्रभाव के मद्देनजर लिंगायतों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है। केवल लिंगायतों के ही राज्य में करीब 400 मठ हैं और इस समुदाय की आबादी भले ही महज करीब 17 फीसदी है किन्तु प्रदेश की कुल 224 विधानसभा सीटों में से करीब 100 सीटों पर इनकी प्रभावी भूमिका रहती है। यही कारण है कि लिंगायतों के बड़े वोट बैंक में सेंध लगाने के लिए सभी राजनीतिक अपने-अपने पासे फैंक रहे हैं। भाजपा 2008 में लिंगायतों की ही मदद से लिंगायतों के कद्दावर नेता माने जाते रहे येदियुरप्पा के नेतृत्व में पहली बार अपनी सरकार बनाने में सफल हुई थी और बाद में येदियुरप्पा के भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरने के बाद 2013 में लिंगायतों का समर्थन न मिलने के चलते भाजपा को हार का सामना करना पड़ा था।
लिंगायत के अलावा दूसरा प्रमुख समुदाय है वोक्कालिगा, जो आबादी के लिहाज से करीब 12 फीसदी हैं और इस समुदाय के प्रदेशभर में करीब 150 मठ हैं। इस समुदाय का मुख्य मठ ‘आदिचुनचुनागिरी महासंस्थान’ है, जो पिछले चुनावों में विभिन्न राजनीतिक दलों का समर्थन करता रहा है। बहरहाल, अभी दावे के साथ यह कह पाना मुश्किल है कि विधानसभा चुनाव में किस मठ की कृपादृष्टि किस दल पर होती है। हालांकि यह देखना काफी दिलचस्प होगा कि प्रदेश में सक्रिय सैंकड़ों मठों के कंधों पर सवार होकर कौनसा दल सत्ता की वैतरणी पार करने में कितना सफल होता है।
योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)