Monday, November 25, 2024
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क्या बीजेपी मप्र में ऐसे जाएगी 300 पार ?

मध्य प्रदेश के चित्रकूट उपचुनाव में भाजपा ने जिस प्रकार अपनी हार को स्वीकार किया है उससे कई सवाल खड़े हो रहे हैं। जहाँ एक तरफ काँग्रेस इस जीत से उत्साहित है और इसे प्रदेश में अपने वनवास की समाप्ति और भाजपा के वनवास की शुरुआत का संकेत मान रही है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा इसे अपनी हार ही मानने को तैयार नहीं है।
उसका कहना है कि यह सीट तो कांग्रेस की पारंपरिक सीट थी जो अभी तक कांग्रेस के ही पास थी और फिर से उसी के पास चली गई। हमारे पास खोने के लिए कुछ था ही नहीं तो खोने का सवाल ही नहीं। भाजपा की इस सोच पर गालिब का एक शेर गुस्ताखी माफ, कुछ फेरबदल के साथ अर्ज है,
‘तुमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को बहलाने को गालिब ये खयाल अच्छा है ।’
क्योंकि प्रदेश के मुख्यमंत्री के तीन दिन के प्रचार, 64 सभाएँ और रोड शो, आदिवासी के यहाँ रात ठहरना, भोजन करना, इसके अलावा सरकार के 12 मंत्री, संगठन के नेताओं, यहाँ तक कि उप्र के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की जनसभाओं के बाद भी अगर यह नतीजे भाजपा को अपेक्षित थे तो फिर इतने तामझाम करके शिवराज सिंह ने इस चुनाव को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाने के संकेत क्यों दिए? और अगर इस उपचुनाव के नतीजे भाजपा के लिए अपेक्षित नहीं थे तो क्या यह बेहतर नहीं होता कि केवल अपनी हार को ‘शिरोधार्य’ करने के बजाय शिवराज इस हार का आत्ममंथन करते?
क्योंक अभी तक के संकेतों के अनुसार आगामी विधानसभा चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़े जाने हैं तो प्रदेश में उन्हीं की प्रतिष्ठा का प्रश्न है। अगर भाजपा यह सोच रही है कि मोदी के नाम पर वह प्रदेश में वोट लेने में कामयाब हो जाएगी तो उसे यह याद रखना चाहिए कि आज का वोटर समझदार हो गया है। वो न सिर्फ लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों के अन्तर को समझता है बल्कि प्रदेश के चुनावों में वो स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रखकर ही अपना मत देता है। और यह अत्यंत खेद का विषय है कि मध्यप्रदेश का हर शहर और हर वर्ग आज स्थानीय मुद्दों से परेशान है।
लोकतंत्र में मताधिकार वो माध्यम होता है जिसके द्वारा एक आम आदमी सरकार के प्रति अपनी भावनाओं (समर्थन या विद्रोह) को व्यक्त करता है। और चित्रकूट की जनता ने भी यही किया। सत्ता में रहने के बावजूद उसने भाजपा के बजाय काँग्रेस में भरोसा व्यक्त किया क्योंकि सीट पारंपरिक हो सकती है लेकिन वोटिंग नहीं, शायद इसीलिए चुनावों में अच्छे अच्छे दिग्गजों की जमानत तक जब्त हो जाती है।
अब जब विधानसभा चुनावों में अधिक समय शेष नहीं है और अमित शाह ‘अबकी बार 300 पार‘ का लक्ष्य प्रदेश बीजेपी को देकर गए हैं तो भले ही एक उपचुनाव के नतीजे पूरे प्रदेश के नतीजे नहीं होते लेकिन बेहतर होता कि भाजपा इस बात को समय रहते समझ लेती कि हार चाहे छोटी ही क्यों न हो उससे लड़कर ही उससे जीता जा सकता है उसे स्वीकार कर के नहीं।
बात लड़ने की है तो उसे यह भी समझना होगा कि उसकी लड़ाई विपक्ष से नहीं खुद अपनी मिस मैनेजमेंट से है। उसकी लड़ाई है प्रदेश के लोगों में व्याप्त असंतोष से।
व्यापम घोटाले की गूँज तो पूरे देश ने सुनी थी। आज भले ही सीबीआई ने मुख्यमंत्री को क्लीन चिट दे दी हो लेकिन इस सवाल का जवाब जनता उनसे जरूर जानना चाहेगी कि उनके नेतृत्व में उनके नाक के नीचे इतने सालों तक इतने बड़े स्तर पर ऐसा घोटाला होता रहा जिसने लाखों होनहार बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ किया और फिर उसकी जांच में एक के बाद एक गवाहों की हत्याएँ होती गई और वे यह सब रोकने में नाकाम रहे क्या मुख्यमंत्री के रूप में इनकी विफलता नहीं है?
मंदसौर में किसानों पर चलने वाली गोलियों का जख्म शायद कम था जो पहले फसल बीमा योजना और अब भावान्तर योजना के द्वारा उनके जलों पर नमक छिड़का जा रहा है?
इन योजनाओं द्वारा सरकार की किसानों के घावों पर मलहम लगाने की कोशिश में मलहम को नमक में कौन बदल रहा है, क्या यह किसी से छिपा है?
इतना भी शायद कम नहीं था जो मुख्यमंत्री के नाक के नीचे, प्रदेश की राजधानी भोपाल के ताजा गैंग रेप जैसे संवेदनशील मामले में पुलिस और डाक्टरों की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा देश के सामने आ गई।
प्रदेश में व्याप्त भ्रष्टाचार और लालफीताशाही के विषय में तो इसी बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि संघ की बैठकों में खुद मंत्री और विधायक तक नौकरशाहों की नाफरमानी की शिकायत करते सुने जा सकते हैं।
परिणामस्वरूप प्रदेश में मुख्यमंत्री की ओर से घोषणाएं तो बहुत होती हैं लेकिन क्रियान्वयन नहीं हो पाता। वंचितों को लाभ मिलना तो दूर की बात है वे बेचारे सरकारी दफतरों के चक्कर ही काटते रह जाते हैं। इसका ताजा उदाहरण 18 नवंबर को इंदौर के एक कार्यक्रम के दौरान तब देखने को मिला जब अगस्त 2016 में रियो ओलंपिक की कांस्य पदक विजेता साक्षी मलिक को प्रदेश सरकार ने पचास लाख रुपए का ईनाम देने की घोषणा की थी लेकिन नवम्बर 2017 तक उन्हें यह नहीं दिया गया और शिवराज उन्हें देखकर बोले कि अरे साक्षी तुम्हें तो पचास लाख रुपये देने हैं।

-डाँ नीलम महेंद्र

इन हालातों में आम आदमी तक यही संदेश जा रहा है कि मुख्यमंत्री की प्रशासन पर पकड़ ढीली होती जा रही है।
वर्तमान परिस्थितियों में तो ऐसा लगता है कि चित्रकूट की हार की ही तरह नौकरशाह मुख्यमंत्री को और मुख्यमंत्री आम आदमी को बहुत हल्के में ले रहे हैं।