Tuesday, November 26, 2024
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अभी कठिन है डगर मन्दिर की

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा श्रीराम मन्दिर के पक्ष में दिये गए ऐतिहासिक एवं अभूतपूर्व निर्णय के बाद 491 वर्ष से चले आ रहे विवाद का अन्त भले ही हो गया हो, परन्तु मन्दिर निर्माण पर घमासान होना अभी शेष है। शीर्ष अदालत के आदेशानुसार मन्दिर निर्माण का दायित्व केन्द्र सरकार द्वारा गठित न्यास या ट्रस्ट को सौंपा जायेगा। उसके बाद यह ट्रस्ट ही तय करेगा कि मन्दिर कब और कैसे बनेगा। इस ट्रस्ट में कौन-कौन होगा इसके लिए केन्द्र सरकार ने अन्दर ही अन्दर कवायद शुरू कर दी है। इसके साथ ही ट्रस्ट में महती भूमिका निभाने तथा मन्दिर निर्माण का श्रेय लेने के लिए विभिन्न धर्मगुरु, राजनेता तथा अनेक हिन्दू संगठन भी पूरी तरह सक्रिय हो गए हैं। जिसकी परिणिति अन्ततोगत्वा एक दूसरे की टांग खिंचाई के रूप में होने की पूर्ण सम्भावना है।
गौरतलब है कि सन 1989 में रष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने भव्य राम मन्दिर निर्माण हेतु शिलान्यास करवाया था। इसमें गोरखनाथ मन्दिर के तत्कालीन महन्त अवैद्यनाथ की भी महती भूमिका रही थी। गोरखनाथ मन्दिर के वर्तमान महन्त मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ हैं। अतः ट्रस्ट में योगी आदित्यनाथ की महत्वपूर्ण भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता है। वहीं संघ भी ट्रस्ट में अपनी विशेष भूमिका चाहेगा। जिसे रोकने का साहस केन्द्र सरकार में भी नहीं है। विश्व हिन्दू परिषद ने जब से मन्दिर आन्दोलन की कमान संभाली है, तब से इस सन्दर्भ में यह संगठन किसी न किसी रूप में लगातार सक्रिय है। मन्दिर का प्रारूप बनवाने से लेकर मन्दिर निर्माण हेतु पत्थरों को तराशने का कार्य विहिप की देखरेख में कई वर्षों से चल रहा है। इसी आधार पर विश्व हिन्दू परिषद चाहती है कि ट्रस्ट में उसे भी उचित स्थान मिले। निर्मोही अखाड़े को ट्रस्ट में स्थान देने की बात अदालत ने ही अपने आदेश में कह दी है। अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी राम जन्म भूमि मामले में एक पक्षकार रही है। इस संगठन ने हाईकोर्ट के फैसले को 2010 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। वहीं अखिल भारतीय श्रीराम जन्म भूमि पुनुरुद्धार समिति ने भी हाईकोर्ट के फैसले के विरुद्ध अगस्त 2011 में याचिका दाखिल की थी। अतः ये संगठन भी ट्रस्ट में अपनी उपस्थिति चाहेंगे। गोपाल सिंह बिशारद के परिवार को अदालत ने पूजा-पाठ का अधिकार दिया है। गोपाल सिंह विशारद श्रीरामजन्म भूमि विवाद के मूल मुद्दई थे। उन्होंने 1949 में भगवान राम की सुरक्षा तथा पूजा-अर्चना की मांग को लेकर फैजाबाद कोर्ट में मुकदमा दायर किया था। ऐसे में यह परिवार भी चाहेगा कि ट्रस्ट तथा मन्दिर निर्माण में उसकी भी भूमिका हो। दिगम्बर अखाड़े के तत्कालीन महंत परमहंस रामचन्द्र दास ने भी 1950 में पूजा की अनुमति हेतु फैजाबाद की अदालत में याचिका दाखिल की थी। अतः दिगम्बर अखाड़ा इस ट्रस्ट में भूमिका निभाए बिना भला कैसे रह सकता है। श्रीरामजन्म भूमि न्यास के अध्यक्ष नृत्य गोपाल दास तो न्यास को ही ट्रस्ट का अधिकार देने की इच्छा रखते हुए स्वयं की सर्वोपरि भूमिका चाहते हैं। इन सबसे इतर मुकदमें में विजयी हुए प्रमुख पक्षकार रामलला विराजमान के सखा त्रिलोकी नाथ पाण्डेय की उपेक्षा को देश किसी भी कीमत पर स्वीकार नहीं करेगा। अतः वह स्वयं या उनके किसी प्रतिनिधि का ट्रस्ट में होना अनिवार्य है। भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र तथा राज्य में सरकार है और राम जन्म भूमि आन्दोलन के कारण ही पार्टी का देशव्यापी विस्तार हुआ है। ऐसे में भाजपा नेताओं का ट्रस्ट में वर्चस्व होना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त बजरंग दल जैसे अन्य विभिन्न हिन्दू संगठनों की ओर से भी ट्रस्ट में भागीदारी के लिए जोड़-तोड़ लगाने की पूरी सम्भावना है। शिवसेना अभी महाराष्ट्र की राजनीति में उलझी हुई है। उससे फुर्सत मिलते ही शिवसेना का भी ध्यान इस ओर केन्द्रित होगा। क्योंकि कारसेवा में इस संगठन के कार्यकर्ताओं ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। इन सब के अलावा अनेक स्वयंभू सन्त, महन्त और पीठाधीश्वर भी ट्रस्ट में शामिल होने के लिए जुगत भिड़ाने में पीछे नहीं रहेंगे।
इस तरह से ट्रस्ट का निर्विवादित गठन और फिर उसके द्वारा निर्बाध रूप से मन्दिर का निर्माण शुरू कराना एकदम से आसान नहीं होगा। क्योंकि जो ट्रस्ट में शामिल नहीं हो पायेगा वही विरोधात्मक बयानबाजी करते हुए अनेक प्रकार के व्यवधान उत्पन्न करेगा। हालाकि कोर्ट ने ट्रस्ट के सदस्यों की संख्या के सन्दर्भ में सरकार को कोई दिशा निर्देश नहीं दिया है। अतः बहुत कुछ सम्भव है कि सरकार यहाँ सबका साथ सबका विकास के सूत्र का अनुकरण करते हुए अधिक से अधिक लोंगों को ट्रस्ट में स्थान दे। लेकिन तब ज्यादा बाबा मठ उजाड़ की कहावत चरितार्थ होने की पूरी सम्भावना है। क्योंकि सदस्यों की अधिक संख्या के कारण किसी भी एक निर्णय पर आपसी सहमति बन पाना अत्यन्त कठिन होगा। यदि आम जन मानस से धन जुटाकर मन्दिर का निर्माण शुरू हुआ तो अनेक लोग अधिक से अधिक धन देकर ट्रस्ट पर दबाव बनाने का प्रयास करेंगे। क्योंकि धन के मामले में भी कोई किसी से पीछे नहीं है। अब यदि मन्दिर निर्माण के लिए धन की व्यवस्था सरकार करती है तो इसके लिए बजट सत्र की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। क्योंकि सरकार के पास किसी मन्दिर या मस्जिद के निर्माण के लिए अलग से कोई रिजर्व फण्ड नहीं होता है। बजट सत्र में सरकार यदि मन्दिर के लिए धन आवंटित करेगी तो मस्जिद के लिए भी उसे उतना ही धन स्वीकृत करना पड़ेगा। अन्यथा एक बार फिर हिन्दू मुस्लिम के नाम पर राजनीति और आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो जायेंगे।
इसके बाद मन्दिर के प्रारूप पर भी सहमति बननी सम्भव नहीं है। क्योंकि जिस प्रारूप की चर्चा जोरशोर से हो रही है। वह तो विश्व हिन्दू परिषद द्वारा बनवाया गया है। ऐसे में उसके विरोधी किसी भी सूरत में यह नहीं चाहेंगे कि प्रारूप का श्रेय विश्व हिन्दू परिषद् को मिले। इसलिए मन्दिर के प्रारूप को लेकर भी विवाद लम्बा खिंच सकता है। क्योंकि मन्दिर को लेकर सबके अपने-अपने प्रारूप हो सकते हैं। रामजन्म भूमि न्यास के वरिष्ठ सदस्य एवं पूर्व सांसद डॉ.रामविलासदास वेदान्ती ने एक साक्षात्कार में गुजरात के मांडवी स्थित जैन धर्म के शंखेश्वर मन्दिर के प्रारूप पर दो सौ एकड़ में विस्तृत रामलला का मन्दिर बनाने की चाहत व्यक्त की है। ऐसी ही भिन्न-भिन्न चाहत विभिन्न लोगों की हो सकती है।
अच्छा तो यह हो कि श्रीराम मन्दिर का प्रारूप कुछ वैसा ही बने जैसा मस्जिद बनने के पहले था। श्रीरामलला के पक्ष में निर्णय आने के मूल में सबसे प्रमुख भूमिका भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) द्वारा जुटाए गये मन्दिर के साक्ष्यों की रही है। इन साक्ष्यों के आधार पर ही यह तय हो सका कि उस स्थान पर एक भव्य मन्दिर था। जिसे तोड़कर कभी मस्जिद बनायी गई थी। एएसआई द्वारा उपलब्ध आकड़ों से ही संविधान पीठ के मन मस्तिष्क में उस मन्दिर की सम्पूर्ण परिकल्पना बन सकी जो वहां था। इस परिकल्पना ने ही न्यायिक पीठ के लिए श्रीरामलला के पक्ष में निर्णय प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त किया। आम जन मानस की आस्था भी उसी मन्दिर से जुड़ी हुई है। यदि कदाचित वह मन्दिर तोड़कर मस्जिद न बनायी गई होती तो आज हर कोई उस मन्दिर के दर्शन कर रहा होता और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग उसका संरक्षण भी उसी रूप में करता। अतः आवश्यक है कि पुरातत्वसाक्ष्यों के आधार पर मन्दिर का एक नवीन परन्तु वैसा ही प्रारूप बने जैसा मस्जिद बनने के पूर्व था। इसे मन्दिर के सदियों पुराने स्वरुप की पुनर्प्रतिष्ठ कहा जायेगा। इस तरह के प्रारूप से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए और सही मायने में इसे ही इतिहास की भूल को सुधारना कहा जा सकता है। अन्यथा की स्थिति में विवाद के नित-नये फव्वारे निरन्तर फूटते रहेंगे और श्रीराम मन्दिर का निर्माण यूँ ही अधर में लटका रहेगा। डॉ. दीपकुमार शुक्ल (स्वतन्त्र पत्रकार)