Tuesday, November 26, 2024
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महिलाओं को मिला गर्भपात का नया अधिकार

कविता पंत, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने गर्भपात के मामले में विवाहित और अविवाहित का भेद मिटाते हुए आज एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि देश की सभी महिलाओं को सुरक्षित और कानूनी गर्भपात का अधिकार है चाहे विवाहित हों या अविवाहित। साथ ही न्या यालय ने एम्स निदेशक को एक मेडिकल बोर्ड गठित करने को कहा जो यह देखेगा कि गर्भपात से महिला के जीवन लिए कोई खतरा तो नहीं उत्पन्न होगा।
जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि इस कानून में वैवाहिक बलात्कार यानी ‘मैरिटल रेप’ को भी शामिल माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पति द्वारा किए जाने वाले दुष्कर्म यानी ‘मैरिटल रेप’ की स्थिति में भी पत्नी 1-24 सप्ताह की तय सीमा में गर्भपात करा सकती है। न्यायालय का कहना था कि मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी नियमों से लिव-इन रिलेशनशिप में गर्भधारण करने वाली अविवाहित महिलाओं को बाहर करना असंवैधानिक है। पीठ ने 51 साल पुराने गर्भपात कानून की पकड़ ढीली कर दी, जो अविवाहित महिलाओं को 24 सप्ताह तक का गर्भ गिराने से रोकता है। मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट 1971 और इसके नियम 2003 अविवाहित महिलाओं को 20 सप्ताह से 24 सप्ताह तक का गर्भ पंजीकृत चिकित्सकों की सहायता से गिराने से रोकते हैं।न्यायालय ने मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट में संशोधन करते हुए कहा कि विवाहित महिला की तरह अविवाहित को भी गर्भपात कराने का अधिकार है। न्यायालय ने एमटीपी कानून और इससे संबंधित नियमों के बदलाव को लेकर यह फैसला सुनाया है।
यह कहते हुए कि प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार अविवाहित महिलाओं को भी विवाहित महिलाओं के समान अधिकार देता है, न्या यालय का कहना था कि एमटीपी कानून की धारा 3 (2) (बी) का उद्देश्य महिला को 20-24 सप्ताह के बाद गर्भपात कराने की अनुमति देना है। इसलिए इसमें केवल विवाहित महिला को शामिल करना और अविवाहित महिला को छोड़ना संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।
गर्भ धारण के दौरान भ्रूण महिला के शरीर पर निर्भर करता है। इसलिए, गर्भपात कराने का फैसला निश्चित तौर परमहिला के शारीरिक स्वायत्तता के अधिकार पर आधारित है। यदि कोई भी देश किसी महिला को अवांछित गर्भावस्था को पूर्ण अवधि तक ले जाने के लिए मजबूर करता है, तो यह उसके आत्म्सम्मारन का निरादर होगा।
शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में एमटीपी कानून की व्याख्या करते हुए कहा कि उक्त कानून के उद्देश्यों को देखते हुए विवाहित और अविवाहित महिला के बीच का अंतर कृत्रिम है और इसे संवैधानिक रूप से कायम नहीं रखा जा सकता है। यह उस रूढ़िवादिता को कायम रखता है कि केवल विवाहित महिलाएं ही यौन संबंधों में लिप्त होती हैं।
अदालत ने 2021 में एमटीपी कानून में किए गए संशोधन का जिक्र करते हुए कहा कि उसमें अविवाहित महिला को शामिल करने के लिए पति के बजाय पार्टनर शब्द का इस्तेमाल किया गया था। अदालत का कहना था कि संसद की मंशा वैवाहिक संबंधों से उत्पन्न स्थितियों के लाभों को सीमित करने की नहीं थी। बल्कि यह एक विधवा या तलाकशुदा महिला को 20-24 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति है।
पीठ ने कहा कि अविवाहित और एकल महिलाओं को गर्भपात से रोकना और सिर्फ विवाहित महिलाओं को अनुमति देना संविधान में दिए गए नागरिकों के मूलभूत अधिकारों का हनन है। यह संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत सभी के समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का अर्थ है कि अब अविवाहित महिलाओं को भी 24 हफ्ते तक गर्भपात का अधिकार मिल गया है। उल्लेिखनीय है कि अब तक केवल विवाहित महिलाओं को ही सामान्य मामलों में 20 हफ्ते से अधिक और 24 हफ्ते से कम के गर्भ को गिराने का अधिकार था।
अदालत ने कहा कि अकेली या अविवाहित महिला को ष्आर्थिक स्थिति में परिवर्तनष् या मानसिक स्वास्थ्य खराब होने जैसी परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। वह परित्य्क्ति हो सकती है या नौकरी गंवा चुकी हो सकती है या गर्भावस्था के दौरान घरेलू हिंसा का शिकार हुई हो सकती है। हो सकता है कि वह अपने पूर्व साथी से बच्चा नहीं चाहती हो। भ्रूण की असामान्य अवस्था। के कारण उसकी जान खतरे में हो सकती है। अकेली महिला का भी शोषण हो सकता है या उसकी गर्भावस्था केवल गर्भनिरोधक की विफलता के कारण हो सकती है जिससे वह मानसिक पीड़ा की शिकार हो सकती है।
न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा, प्रजनन अधिकारों में गर्भनिरोधक और यौन स्वास्थ्य के बारे में शिक्षा और जानकारी तक पहुंचने का अधिकार शामिल है। यह तय करने का अधिकार कि किस प्रकार के गर्भ निरोधकों का उपयोग करना है या नहीं। बच्चों की संख्या तय करने का अधिकार, सुरक्षित और कानूनी गर्भपात चुनने का अधिकार, प्रजनन स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार, जबरदस्ती या हिंसा से मुक्त जैसे अधिकारों पर निर्णय लेने की स्वायत्तता महिलाओं को होनी चाहिए।
उल्लेखनीय है सुप्रीम कोर्ट ने यह बड़ा फैसला 25 वर्षीय एक अविवाहित मणिपुरी युवती की याचिका पर सुनाया। इस महिला ने हाई कोर्ट से 23 सप्ताह का गर्भ गिराने की इजाजत मांगी थी लेकिन हाई कोर्ट ने उसे इसकी इजाजत नहीं दी। था। हाई कोर्ट का कहना था कि युवती सहमति से गर्भवती हुई है और यह एमटीपी नियमों, 2003 के तहत किसी भी खंड में शामिल नहीं है।
महिला ने अपनी याचिका में कहा कि पांच भाई-बहनों में वह सबसे बड़ी है। उसके पास अपनी आजीविका चलाने का इंतजाम नहीं हैं और बच्चे का पालन-पोषण करने में असमर्थ है, इसलिए वह बच्चे को जन्म नहीं दे सकती। उसका यह भी कहना था कि उसके साथी ने उससे शादी करने से मना कर दिया है। अविवाहित होते हुए बच्चे को जन्म देने से उसका बहिष्कार होगा और साथ ही मानसिक पीड़ा भी झेलनी पड़ेगी। दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को उसने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उन महिलाओं के लिए बहुत बड़ी राहत लेकर आया है जो अनचाहे गर्भ को जारी रखने को विवश हैं।