कोरोना महामारी की चपेट में कई देश आये और उनमें से कई देशों में इस महामारी ने अपना कहर बरपाया। भारत में कोरोना के चलते तमाम लोग बेरोजगार हुए तो अनेकों परिवार पलायन कर गये। इस दौरान पलायप के ऐसे नजारे देखने को मिले जो शायद अकल्पनीय थे। कोरोना से बचाव के लिये अनेक सावधानियां बरतने के लिये कई तरह के उपाय बताये गये तो कई कदम भी उठाये गये। लेकिन कोरोना का बढ़ता संक्रमण अभी भी किसी चुनौती से कम नहीं दिख रहा है।
इसी को देखते हुए केन्द्रीय गृह मंत्रालय की ओर से सभी राज्यों को नए सिरे से इसके लिए दिशा-निर्देश जारी करने पर सुझाव दिया गया है। बावजूद इसके कई राज्यों में हालात बिगड़ते ही जा रहे हैं और कोरोना के मरीजों की संख्या में बेतहासा वृद्धि देखने को मिल रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह शायद यह है कि लोग सार्वजनिक स्थानों, समारोहों व कार्यक्रमों में जरूरी सजगता का परिचय नहीं दे रहे है?
देश के प्रधानमन्त्री भी कोरोना से बचाव के लिये वैक्सीन आने का हवाला दे रहे हैं और बार बार अपने भाषणों से यही संदेश दिया करते हैं। ऐसे में जब यह स्पष्ट है कि वैक्सीन आने तक कोई उपाय नहीं है तो सवाल यठता है कि ऐसे वातावरण में सजगता और सतर्कता के प्रति लापरवाही क्यों?
सम्पादकीय
हाथरसः देश की बेटी का गैंगरेप प्रकरण…
‘‘प्रेम प्रसंग-मारपीट-मौत ?’’
99 प्रतिशत फेसबुकिया मठाधीशों को नहीं पता होगा कि ये पूरी घटना क्या है? लेकिन इस घटना पर विचार करें तो यह घटनाक्रम शुरुआत से ही बेहद पेचीदा एवं संस्पेंस पूर्ण रहा है। मृतका की माँ के बयान के अनुसार बिटिया (मृतका) खेत में काम कर रही थी और वहीं कुछ दूरी पर उसकी भी मौजूदगी थी! मृतका की माँ का कहना है कि मेरी बेटी (पीड़िता) को संदीप नामक युवक बाल पकड़कर खेतों में ले गया और एक घंटे बाद मेरी बेटी विक्षिप्त अवस्था में मिली…!
वहीं जब पुलिस ने प्रश्न किया कि आप वहां मौजूद थी तो आपने पीड़िता की चीख पुकार क्यों नहीं सुनी ?
तो पीड़िता की माँ का कहना था कि उसे सुनाई नहीं देता है यानिकि उसे कम सुनाई पड़ता है! इस लिये वह बेटी की चीख-पुकार नहीं सुन पाई।
वहीं आरोपी पक्ष के पैरोकारों का कहना है कि मृतका व आरोपी संदीप के बीच प्रेम प्रसंग था और इससे पहले भी इसी बात को लेकर दोनों पक्षों में कई बार वाद-विवाद हो चुका था। लेकिन प्रेमी युगल किसी की मानने को तैयार नहीं थे।
वहीं सूत्रों की मानें तो घटना के दिन भी पीड़िता/मृतका अपने प्रेमी संदीप से मिलने गईं थी। इसकी भनक जब पीड़िता के परिजनों को लग गई तो उन्होंने मौके पर जाकर सब कुछ वही देखा जिससे उन्हें ऐतराज था। आक्रोश में आकर उन्होंने ही पीड़िता की जमकर पिटाई कर दी। जिससे पीड़िता की हालत गंभीर हो गई। वहां के एक सामाजिक कार्यकर्ता ने भी कुछ ऐसी ही कहानी बयां की है। हालांकि इस घटना के बावत मिली जानकारी की सत्यता की पुष्टि हम नहीं कर रहे बल्कि स्थानीय स्तर के लोगों ने जो बताया है वही लिख रहे हैं। सत्य क्या है यह तो जाँच का विषय है?
लापरवाही के चलते बढ़ा संक्रमण
कोरोना वायरस (कोविड-19) से उपजी महामारी से मौत का आंकड़ा भले ही कुछ कम दिख रहा हो, लेकिन फिलहाल ऐसे संकेत नहीं दिख रहे कि उस पर लगाम कब तक लग जायेगी? जब अभी कोई ऐसे संकेत नहीं दिख रहे कि कोरोना का संक्रमण थम रहा हो तो किसी भी स्तर पर ढिलाई करना कतई उचित नहीं है। केंद्र और राज्य सरकारें अपने स्तर जो भी कदम उठा रहीं वो उनकी कोशिश है लेकिन आम आम हो खास सभी को अपने स्तर से सतर्कता रखने की आवश्यकता है।
यह कतई ठीक नहीं है कि लाॅकडाउन से छूट मिलने के साथ ही लोगों की लापरवाही भी बढ़ती दिख रही है। शायद इसी का नतीजा कह सकते हैं कि अब हर दिन हजारों लोग संक्रमित हो रहे हैं। सावर्जनिक स्थलों पर एक-दूसरे से शारीरिक दूरी बनाने और मास्क का सही ढंग से उपयोग करने में लापरवाही का ही नतीजा है और यह लापरवाही उन प्रयासों पर पानी फेरने का ही काम कर रही है, जिसके तहत सरकारें अधिक से अधिक लोगों का कोरोना परीक्षण कर रही हैं। वहीं प्रतिदिन संक्रमित होने वालों की संख्या में भले ही कुछ कमी आती दिख रही है और संक्रमण की चपेट में आए मरीजों के ठीक होने की दर भी बढ़कर 80 प्रतिशत से अधिक हो गई है। इसका यह मतलब नहीं कि छूट का नाजायज फायदा उठाया जाये और किसी की जानमाल से खिलवाड़ करने दिया जाये।
अवैध बस्तियों को राजनैतिक संरक्षण
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली व उसके आस-पास के इलाकों में रेल लाइनों के किनारे बस चुकीं झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश बिगत दिनों दिया है। ऐसा ही आदेश पूरे देश के लिये लागू किया जाये तो अच्छा रहेगा। यह सिर्फ दिल्ली का ही मामला नहीं है ऐसे नजारे कई राज्यों में देखने को मिल रहे हैं और खास बात यह है कि ऐसी बस्तियों में गंदगी का बोलबाला तो रहता ही है साथ ही तमाम शातिर अपराधियों की शरणस्थली भी साबित हो रहीं हैं ऐसी ही बस्तियां। इन बस्तियों के बसने के समय से लेकर ही क्षेत्रीय नेताओं के स्वार्थ के लिये नौकरशाही भी अनेदेखी करने में अपनी भलाई समझती है। नतीजा यह होता है कि धीरे धीरे ये बस्तियां बड़ा रूप ले लेती हैं और सभ्रान्त बस्तियों के लिये कष्टकारक साबित होने लगतीं हैं, उनकी परेशानी बढ़ा देतीं हैं।
हालांकि दिल्ली-एनसीआर में रेलवे का यह मामला माननीय सर्वोच्च न्यायालय इस लिये पहुंचाया गया क्योंकि रेल पटरियों के दोनों ओर काफी संख्या में झुग्गी बस्तियां बस गई हैं और ये बस्तियां गंदगी का गढ़ बनकर प्रदूषण फैलाने का कारण बन गईं हैं।
बताते चलें कि राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने वर्ष 2018 में ही ऐसी झुग्गी बस्तियों को हटाने का आदेश दिया था, लेकिन उस पर अमल नहीं हो सका कारण कुछ भी रहा।
हालांकि किस कारणों से राष्ट्रीय हरित प्राधिकरणा आदेश के बाद भी ये झुग्गी बस्तियां नहीं हटायीं गई थीं शायद उसका संकेत माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश में छुपा है। क्योंकि अपने फैसले के क्रियान्वयन में स्पष्ट कर दिया है कि इस मामले को किसी भी न्यायालय में नहीं सुना जाना चाहिए। इतना ही नहीं यह टिप्पणी भी विचारणीय है कि इस आदेश में किसी तरह का राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। यह एक तथ्य है कि दिल्ली ही नहीं देश के कई राज्यों में लागू हो रही है और रेल पटरियों के किनारे सैकड़ों बस्तियां बस चुकीं हैं और इन बस्तियों को क्षेत्रीय नेताओं का संरक्षण मिलता है। लेकिन ऐसी बस्तियों को रोकना आवश्यक है। कुछ भी हो रेल लाइनों के किनारे बसी झुग्गी बस्तियों को हटना ही चाहिये।
क्या जरूरत थी बैठक बुलाने की ?
कांग्रेस पार्टी पर सदैव ही आरोप लगता चला आ रहा है कि यह पार्टी सिर्फ एक परिवार की है! विरोधियों ने इसी का फायदा भी उठाया, हमेशा आरोप लगाया कि कांग्रेस पार्टी पर तो सिर्फ गांधी परिवार का ठप्पा लगा है और इसका फायदा भी उठाया गया। विरोधी दल अपनी बात को जनता के मन में बिठाने में कामयाब भी रहे। अब तो हर गली-कूचे में लोग कहते मिल जाते हैं कि कांग्रेस यानि कि गांधी परिवार! वहीं पार्टी अध्यक्ष को लेकर चर्चा करें तो हर बार की तरह मान-मनौव्वल का दौर समाप्त होने के बाद जो परिणाम बिगत 3 दशकों में आता रहा है वही फिर से सामने आया। वह यह तय किया कि सोनिया गांधी को ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बने रहना चाहिए।
गौरतलब हो कि इस समिति ने एक साल पहले भी यही तय किया था। वही पुनः दिखाई दिया और चर्चाओं का दौर शुरू हुआ कि इसका यह मतलब रहेगा कि राहुल गांधी ही बिना कोई जिम्मेदारी संभाले पार्टी को पहले की तरह पिछले दरवाजे से संचालित करते रहेंगे। विरोधियों को मौका एकबार फिर से मिल गया। जबकि शायद सोनिया गांधी को यह चाहिये था कि वे अपना पद छोड़ने के फैसले पर अडिग रहतीं और पार्टी को कोई नया अध्यक्ष दिलाने में महती भूमिका अदा करतीं इससे कम से कम परिवारवाद का जो ठप्पा लगता है वह कुछ कमजोर दिखता लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि ‘क्या जरूरत थी पार्टी की बैठक बुलाने की?’
सुविधाओं के अभाव में पलायन
मुलभूत सुविधाओं के अभाव में ग्रामीण क्षेत्रों से शहर में रहने वालों की संख्या जिस तरह से बढ़ी है और अभी भी बढ़ने की उम्मीद है वह विचारणीय है। वहीं केंद्रीय आवास एवं शहरी विकास मंत्री द्वारा दी गई जानकारी में शहरीकरण की चुनौतियों का सामना करने संदेश छुपा है। क्योंकि मंत्री जी की जानकारी पर प्रकाश डालें तो आगामी वर्ष 2030 तक देश की लगभग 40 प्रतिशत आबादी शहरों में रह रही होगी। इसका मतलब यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों से लोग अपना किनारा करते हुए शहरों की आबादी बढ़ा देंगे यानीकि लोग ग्रामीण क्षेत्रों में नहीं रहना चाहते हैं! इसका कारण खोजना जरूरी है। अगर इसका कारण खोजा जायेगा तो शायद यही निष्कर्ष सामने आयेगा कि ग्रामीण क्षेत्रों तमाम मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता वो नहीं है जिसकी जरूरत है। आजादी के 7 दशक बीतने के बाद भी ग्रामीण क्षेत्रों में समुचित चिकित्सा और शिक्षा का अभाव है और वर्तमान में हर व्यक्ति चिकित्सा और शिक्षा का महत्व समझते हुए शहरों की ओर अपना रूख कर रहा है। अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि शहरी क्षेत्र का आधारभूत ढांचा वैसा है जिसकी जरूरत है? बिल्कुल वर्तमान की स्थितियों से सबक लेते हुए भविष्य को ध्यान में रखते हुए शहरी ढांचे को संवारने का काम यु( स्तर पर किया जाए ताकि वे बढ़ी हुई आबादी का बोझ भविष्य में सहने में सक्षम हों।
Read More »नई शिक्षा नीति
सरकारी विद्यालयों की बात करें तो प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयों में शिक्षा का स्तर दिनों दिन गिरता गया और नतीजा यह हुआ कि प्राईवेट स्कूलों अथवा निजी स्कूलों की बाढ़ सी आ गई। सरकारें अपने स्तर से तमाम योजनायें चलाती रही लेकिन सरकारी स्कूलों में शिक्षा का स्तर नहीं सुधर पाया। हां, सरकारी स्कूलों की पहिचान मिड-डे-मील और बस्ता बांटने तक ही सिमट गई। ऐसे में नई शिक्षा नीति लागू करने के साथ ही केंद्र सरकार और विशेष रूप से शिक्षा मंत्रालय को यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि राज्य सरकारों के साथ शैक्षिक संस्थानों के प्रतिनिधियों व शिक्षकों की भी नई शिक्षा नीति को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका होगी। देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने संबोधन में इसका उल्लेख करते हुए यह रेखांकित किया कि इस मामले में वह राजनीतिक इच्छाशक्ति का परिचय देने के लिए प्रतिबद्ध हैं, लेकिन उन्हें इसका भी आभास होना चाहिए कि उनकी प्रतिबद्धता का मतलब क्या है अगर नौकरशाही अपने स्तर से काम करेगी और चुने हुए जनप्रतिनिधि सबकुछ देखते हुए नजरअन्दाज करते रहेंगे! अगर अतीत पर नजर डालें तो मोदी सरकार का दूसरा कार्यकाल चल रहा है ऐसे में भाजपा सांसदों ने सरकारी स्कूलों पर क्या अपनी नजर नहीं डाली ? अगर नहीं डाली तो क्यों ? क्या उनकी जिम्मेदारी नहीं बनती कि उनके क्षेत्र के बच्चे अच्छी शिक्षा पायें?
देश के प्रधानमंत्री के इस कथन से शायद ही कोई असहमत हो कि देश का शैक्षिक ढांचा बिगत वर्षों से जिस पुराने ढर्रे पर चल रहा था उसके कारण नई सोंच और ऊर्जा को बढ़ावा नहीं मिल पाया है, विशेषकर सरकारी स्कूलों में। बात तो सही है लेकिन प्रधानमन्त्री जी को यह भी ध्यान रखना चाहिये कि बिगत 6 वर्षों में भी शिक्षा का स्तर दिनोंदिन गिरता ही आया है अब ऐसे में नई शिक्षानीति से कितना बदलाव आयेगा, यह तो भविष्य की गर्त में है।
हां, यह अच्छा कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री जी ने इस बात को महसूस किया कि शिक्षा की नीतियों में बदलाव जरूरी है। लेकिन कहीं ऐसा ना हो कि इतना बड़ा सुधार सिर्फ कागजों पर होता रह जाये! इस पर बल देने की जरूरत है कि इसे जमीन पर कैसे उतारा जाए?
अलगाववाद का खत्मा पूरी तरह जरूरी है
देश की आजादी के बाद से ही जम्मू-कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा था और वहां के निवासियों के लिये कई कानून अलग थे। सरकारें आई और चली गईं लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामलों पर हस्तक्षेप करने से कतराती गईं लेकिन भाजपा ने सत्ता में आते ही इस ओर अपना ध्यान आकृष्ट किया था और अन्याय व अलगाववाद के पोषक अनुच्छेद यानि कि 370 के साथ ही 35-ए को यहां से हटा दिया। इसकी अवधि भी एक वर्ष हो गई। अब ऐसे में आवश्यक यह है कि इसका अवलोकन किया जाना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर से क्या खोया, क्या पाया ? यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या इस क्षेत्र में और कदम उठाए जाने की आवश्यकता है?
यह सिर्फ जम्मू-कश्मीर पर ही लागू नहीं हो रहा है बल्कि इसके साथ ही केंद्र शासित प्रदेश बनाए गए राज्य लद्दाख पर लागू हो रहा है। इससे कदापि इन्कार नहीं कर सकते कि बीते एक वर्ष में इन दोनों केंद्र शासित राज्य जम्मू-कश्मीर व लद्दाख में बहुत कुछ बदला है, लेकिन वहां के हालातों में अभी वो सुधार नहीं आ पाया जिसकी कल्पना की गई थी और वहां से अनुच्छेद 370 के साथ ही 35-ए जिसके लिये हटाई गई थी।
यह क्षेत्र आतंकी हमलों से आज भी अछूता नहीं है और कई नेताओं की नजरबंदी कायम रहने से यह जाहिर होता है कि अब इन्तजार करना पड़ेगा!
कोरोना संक्रमण का प्रसार रोकना जरूरी
कोरोना (कोविड-19) महामारी ने चीन, अमेरिका, ब्राजील, इटली, भारत सहित अन्य कई देशों खूब कहर बरपाया है और लाखों जिन्दगियों को निगल लिया है। कोई इलाज अथवा वैक्सीन ना होने के कारण ज्यादातर हर देश ने कोरोना के संक्रमण से बचाव के लिये लाॅकडाउन का सहारा लिया और इसका असर काफी हद तक देखने को मिला। वहीं भारत की बात करें तो वर्तमान में जिस तरह से कोराना संक्रमितों की संख्या सामने आ रही है उससे तो यही साबित हो रहा है कि कोरोना से बचाव हेतु लाॅकडाउन की पहल तभी कारगर साबित होगी जब संदिग्ध कोरोना मरीजों के टेस्ट के साथ उन्हें कोरन्टाइन करने का काम भी सही ढंग से किया जाये।
वहीं ताजा रिपोर्टों की मानें तो जिन राज्यों में सबकुछ सामान्य सा लग रहा था वहां भी हालात चिन्ताजनक बनते जा रहे हैं। नतीजन केंद्र सरकार की ओर से बिहार, ओडिशा, बंगाल और असम को कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के लिए नए सिरे से निर्देश जारी करने पड़े। ऐसा भी कह सकते हैं कि कई राज्यों ने कोरोना से बचाव हेतु समय रहते सही तैयारी नहीं की है। इसीलिये उन्हें अब दुष्परिणाम भोगने पड़ रहे हैं। जबकि इन राज्यों के पास समय था और उन्हें दूसरे राज्यों से सबक लेते हुए कोरोना निपटने हेतु तैयारी अच्छी कर लेनी चाहिये थी। लेकिन अब जब कोरोना ने अपनी दस्तक दे दी है तो ऐसे में केंद्र सरकार के निर्देशों का सही तरह पालन करने के साथ ही लोगों को शारीरिक दूरी के प्रति सावधान रहना चाहिये। इतना ही नहीं साफ सफाई के साथ ही घर से बाहर निकलते समय अथवा सार्वजनिक स्थानों पर मास्क के प्रयोग में लापरवाही नहीं करनी चाहिये।
इसमें कतई दो राय नहीं कि कोरोना के खिलाफ जंग जीतना बिना जन सहयोग के असंभव है, लेकिन राज्यों की भी अपनी जिम्मेदारी बनती है कि केन्द्र सरकार का साथ देते हुए उसके कदम से कदम मिलाकर चलें और राज्य के स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय हों।
मजदूर के नसीब में ठोकर
उप्र, बिहार, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश सहित अन्य राज्यों में एक के बाद एक घटित भयावह सड़क हादसों में मजबूर मजदूरों की मौत ने कामगारों की दयनीय दशा को सबके सामने लाकर रख दिया है। राष्ट्रीय राजमार्गों, रेल की पटरियों के किनारों पर दिख रहे नजारों यह तो स्पष्ट कर दिया कि कामगारों की घर वापसी के लिए सरकारों ने अगर उचित प्रबंध किए होते तो शायद इन भीषण हादसों से कामगारों व मजबूरों की जान जाने से बच सकती थी। लेकिन सरकारी तन्त्र की लापरवाही, सरकारों की अनदेखी व संवेदनहीनता के चलते कामगारों की जान चली गई।
सोंचनीय और विचारणीय तथ्य यह है कि केंद्र और राज्य सरकारों को तभी जागरूक हो जाना चाहिए था जब पहला हादसा घटित हुआ था लेकिन, लेकिन ऐसा नहीं हुआ था और सरकारों द्वारा घड़ियाली आंसू बहाकर व महज औपचारिकता भरी संवेदना जताकर अपने अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली गई थी। नतीजा यह हुआ कि कामगारों के पैदल या साइकिल से घर जाने का सिलसिला थमने के वजाय और तेज हो गया। इसके बाद एक के बाद एक कई हादसे हो गये।