भारत-चीन झड़प में भारत के २० जवानों की शहादत ने पूरे देश में भूचाल ला दिया है। देश का हर नागरिक चीन से बदला चाहता है। सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म पर बस एक ही बात की गूँज सुनाई पड़ रही है कि अब चीन के खिलाफ भी डिप्लोमैटिक सर्जिकल स्ट्राइक होना ही चाहिए। चीन ने हर बार की तरह बुजदिल माफिक इस बार भी पीठ में छूरा घोपने का काम किया है उसकी इस नापाक हरकत का जवाब अब भारत सरकार को जरूर देना चाहिए। चीन की हरकतों के मद्देनजर अब वक्त आ गया है कि चीन के खिलाफ अब आर-पार जरूरी, हालांकि इस पर जल्दबाजी में कोई फैसला लेना गलत होगा। इस पर गहन विचार-विमर्श के बाद ही कोई कार्रवाई की जाए ताकि आने वाले समय में भारत को कोई भी आँख दिखाने से पहले हजार बार सोचे। लद्दाख के गलवान घाटी में चीन की घिनौनी करतूत उड़ी-पुलवामा से कहीं ज्यादा संगीन है।
हालांकि इस घटना के बाद केंद्र सरकार के बयान “हम किसी को उकसाते नहीं हैं मगर हमें कोई उकसाए यह हमें बिल्कुल बर्दाश्त नहीं, हम इसका जवाब देने में पूर्णतः सक्षम हैं ” को देखते हुए ऐसा लगा जैसा फरवरी २०१९ में पुलवामा आतंकी हमले के बाद आया था। प्रधानमंत्री ने कहा कि हम अपने पड़ोसियों के साथ सहयोग और मित्रता का भाव रखते हैं मगर जब भी मौका आया है हमनें अपनी अखंडता और संप्रभुता के लिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन भी किया है यह १९६२ का भारत नहीं !
लेख/विचार
एक कटु सत्य-चेहरे की सुंदरता से ही नहीं चलती ज़िन्दगी
जिंदगी में सुंदरता के अलावा भी और बहुत सारा कुछ है, जिसके जिन्दगी में होने से ही जिंदगी का कोई मर्म निकलता है, कोई सार समझ में आता है।
सौंदर्य की जब बात छिड़ती है तब स्त्रियाँ याद आती हैं और स्त्री की बात जहाँ आती है, उसके सौन्दर्य की चर्चा स्वत: जुड़ जाती है। मानो, स्त्री सौंन्दर्य का पर्याय है, लेकिन अब वक्त बदला है।
हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपनी पैठ बनाई है। आज की नारी अपने सौंन्दर्य से ज्यादा अपनी योग्यता और काबिलियत की प्रशंसा सुनना अधिक पसंद करती है, क्योंकि अब सुन्दरता के मायने बदल गए हैं। सच भी है, अब नारी सिर्फ श्रृंगार की व्याख्या बन उसमें ही सिमट कर रहना नहीं चाहती।
वैसे सुंदरता के मापदंण्ड क्या हैं…??
यदि स्त्री को अन्तर्दृष्टि से देखो तो दुनियां की हर एक स्त्री सुंदर है… विशेष है। मैं तो समझती हूँ सौंन्दर्य की प्रतियोगिता जीतने वाली स्त्री जितनी सुंदर है, एक श्रमिक नारी भी, जिसके हाथ मिट्टी से सने और चेहरे पर धूल की परत होती है,, उतनी ही सुंदर है।
संसार का हर मनुष्य जन्म से लेकर वृद्ध अवस्था तक स्त्री के कईं रूप और स्वरूपों, यथा माँ, बहन, बीबी, बेटी और मित्र के स्नेह, ममता और प्यार की छत्रछाया और संरक्षण में जीवन व्यतीत करता है,, आदमी से इंसान बनता है, तो हर रिश्ते को बखूबी निभाती वो स्त्री बदसूरत और किसी के लिए बोझ कैसे हो सकती है..??
आज भी महिलाओं के लिए एक आदर्श हैं रानी लक्ष्मीबाई
आसान नहीं होता एक महिला होने के बावजूद पुरूष प्रधान समाज मेंविद्रोही बनकर अमर हो जाना। आसान नहीं होता एक महिला के लिए एक साम्राज्यके खिलाफ खड़ा हो जाना।
आज हम जिस रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर उन्हें श्रद्धा पुष्प अर्पित कर रहे हैं वो उस वीरता शौर्य साहस और पराक्रम का नाम है जिसने अपने छोटे से जीवन काल में वो मुकाम हासिल किया जिसकी मिसाल आज भी दुर्लभ है। ऐसे तो बहुत लोग होते हैं जिनके जीवन को या फिर जिनकीउपलब्धियों को उनके जीवन काल के बाद सम्मान मिलता है लेकिन अपने जीवन कालमें ही अपने चाहने वाले ही नहीं बल्कि अपने विरोधियों के दिल में भी एकसम्मानित जगह बनाने वाली विभूतियां बहुत कम होती हैं। रानी लक्ष्मीबाई ऐसीही एक शख्सियत थीं जिन्होंने ना सिर्फ अपने जीवन काल में लोगों को प्रेरितकिया बल्कि आज तक वो हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत हैं। एक महिला जो मात्र 25 वर्ष की आयु में अपने पति और पुत्र को खोने के बाद भी अंग्रेजों को युद्ध के लिए ललकारने का जज्बा रखती हो वो निसंदेह हर मानव के लिए प्रेरणास्रोत रहेगी। वो भी उस समय जब 1857 की क्रांति से घायल अंग्रेजों ने भारतीयों पर और अधिक अत्याचार करने शुरू कर दिए थे और बड़े से बड़े राजा भी अंग्रेजों के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। ऐसे समय में एक महिला की दहाड़ ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी।
जब अस्पताल ही हो बीमार तो बीमार कहाँ जाए
आज इस कोविड -19 नामक वैश्विक महामारी ने विकसित व विकासशील सभी देशों को लगभग घुटने पर ला दिया है। इस वैश्विक महामारी के चलते चारों तरफ़ हाहाकार मचा हुआ है। लोग की आँखों में कोरोना के खतरे का डर साफ-साफ झलक रहा है। विश्व स्तर पर अगर नजर डालें तो अब तक कोरोना वायरस से ७६६५०१७ लोग संक्रमित हो चुके हैं। वहीं मरने वालों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है इससे ४२५६०९ लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। कोविड -19 का संक्रमण अब बहुत तेजी बढ़ रहा है इसका बस एक ही कारण है कि आखिर कब ज़िन्दगी की गाड़ी को रोके रखा जाए क्योंकि अगर हम गतिशीलता नहीं दिखाएंगे तो भूख से मर जाएंगे। ऐसे में जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा जिससे कम से कम दो वक्त की रोटी तो नसीब हो सके।
पानी से सस्ता तेल, भारत में रेट आसमान पर- डॉo सत्यवान सौरभ
लॉकडाउन की वजह से दुनियाभर में लोग घरों में है। तेल की मांग में कमी की यह भी एक बड़ी वजह है। दुनिया के पास फिलहाल इस्तेमाल की ज़रूरत से ज़्यादा कच्चा तेल है और आर्थिक गिरावट की वजह से दुनियाभर में तेल की मांग में कमी आई है। तेल के सबसे बड़े निर्यातक ओपेक और इसके सहयोगी जैसे रूस, पहले ही तेल के उत्पादन में रिकॉर्ड कमी लाने पर राज़ी हो चुके है। अमरीका और बाकी देशों में भी तेल उत्पादन में कमी लाने का फ़ैसला लिया गया है। लेकिन तेल उत्पादन में कमी लाने के बावजूद दुनिया के पास इस्तेमाल की ज़रूरत से अधिक कच्चा तेल उपलब्ध है। समंदर और धरती पर भी स्टोरेज तेज़ी से भर रहे हैं। स्टोरोज की कमी भी एक समस्या बन रही है। साथ ही कोरोना महामारी से बाहर आने के बाद भी दुनिया में तेल की मांग धीरे-धीरे बढ़ेगी और हालात सामान्य होने में लंबा वक़्त लगेगा। क्योंकि यह सब कुछ स्वास्थ्य संकट के निपटने पर निर्भर करता है।
“कोरोना माता” हम भारतीयों के अंधविश्वास से उपजी देवी
हमारे देश की संस्कृति, आस्था और विश्वास से बनी है ,लेकिन इससे भी इंकार नही किया जा सकता है कि यही आस्था जब विश्वास से अंधविश्वास में बदल जाती है तो बड़ी मुसीबत भी लेकर आती है। कई बार इसका नुकसान बड़ा हो जाता है। अब कोरोना को लेकर ग्रामीण क्षेत्रों में जो अंधविश्वास फैला है वो किसी बड़ी मुसीबत का मार्ग प्रसस्त कर रहा।
गाँव में अक्सर कुछ ना कुछ नया होता रहता है, पर ऐसा कुछ होगा ये हमारे लिए आश्चर्यजनक ही है, हाँ सच में जब मुझे पता चला कि ग्रामीण महिलाएं कोरोना माता की कथा करवा रही हैं तो मुझे समझ आया हमारा देश कितनी तरक्की पर है। इस दुखद परिस्थिति में जब बड़ी बड़ी महाशक्तियाँ हार मान रही है तब हमारे देश में सब कुछ नया हो रहा है एक से बढ़कर एक वैद्य है, पुजारी है, फिर भारतीयों को डर किस बात का। कल एक बाबाजी से कहा कि बाबा मुँह पर गमछा बाँध कर चलिए! कोरोना के विषय में तो आप जानते ही हैं! उन्होंने मेरी तरफ घूर कर देखा “का करिहे करोना ”
हाँ क्या ही कर सकता है कोरोना दद्दू का, हम मन ही मन सोच रहे थे कि उन्होंने कहा -“करोना जहां क होये तहां होय, इहाँ कुछ न कई पाई”
अब इसे विश्वास कहे या अंधविश्वास मगर महिलाओं ने कोरोना माता की पूजा अर्चना शुरू कर दी है।
मरुस्थलीकरण और सूखा : दुनिया के समक्ष बड़ी चुनौती -प्रियंका सौरभ
मरुस्थलीकरण जमीन के खराब होकर अनुपजाऊ हो जाने की ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें जलवायु परिवर्तन तथा मानवीय गतिविधियों समेत अन्य कई कारणों से शुष्क, अर्द्ध-शुष्क और निर्जल अर्द्ध-नम इलाकों की जमीन रेगिस्तान में बदल जाती है। अतः जमीन की उत्पादन क्षमता में कमी और ह्रास होता है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश ने ‘विश्व मरुस्थलीकरण रोकथाम दिवस’ पर अपने वीडियो संदेश में सचेत किया है कि दुनिया हर साल 24 अरब टन उपजाऊ भूमि खो देती है। उन्होंने कहा कि भूमि की गुणवत्ता ख़राब होने से राष्ट्रीय घरेलू उत्पाद में हर साल आठ प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है. भूमि क्षरण और उसके दुष्प्रभावों से मानवता पर मंडराते जलवायु संकट के और गहराने की आशंका है।
मरुस्थलीकरण की चुनौती-
भुखमरी के कगार पर हैं मिट्टी का बर्तन बनाकर पेट पालने वाले कुम्हार
कोरोना के चलते हुए लॉकडाउन ने मिट्टी बर्तन बनाने वाले कारीगरों के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है। इन्होने मिट्टी बर्तन बनाकर रखे लेकिन बिक्री न होने की वजह से खाने के भी लाले पड़ गए हैं। लेकिन अब न तो चाक चल रहा है और न ही दुकानें खुल रही हैं। घर व चाक पर बिक्री के लिए पड़े मिट्टी के बर्तनों की रखवाली और करनी पड़ रही है। देश भर में प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बर्तन बनाने का काम करते हैं।
कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन ने इनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है। उनके बर्तनों की बिक्री नहीं हाे रही है। महीनों की मेहनत घर के बाहर रखी है। इन हालात में परिवार का गुजारा करना भी मुश्किल हो गया है। गर्मी के सीजन को देखते हुए बर्तन बनाने वालों ने बड़ी संख्या में मटके बनाए। डिजाइनर टोंटी लगे मटकों के साथ छोटी मटकी और गुल्लक, गमले भी तैयार किए। दरअसल आज भी ऐसे लोग हैं जो मटके के पानी को प्राथमिकता देते हैं। मगर इस बार तो इनको घाटा हो गया। परिवार कैसे चलेगा। कोई भी मटके खरीदने नहीं आ रहा है। धंधे से जुड़े लोगों ने ठेले पर रखकर मटके बेचने भी बंद कर दिए हैं।
नसलवाद एक मानसिकता
प्रकृति मां जब इंसान को अपना खज़ाना लुटाने के वक्त रंग और नस्ल में भेदभाव नहीं करती- जैसे सूरज की किरने रोशनी देती हैं वायु शुद्ध हवा देती हैं नदियां शीतल जल देती हैं सब सामान दृष्टि रखते हैं। पुरातन समय से विचित्र मानवीय कथाएं जातीय भेदभाव व अलगाव और अत्याचार प्रकाश में आ रहे हैं, जिससे चिंगारी भड़की और वेदनाओ व भावनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। अमेरिका में अफ्रीकी मूल के अमेरिकी नागरिक 46 वर्षीय जॉर्ज फ्लोएड को 25 मई 2020 को एक सफ़ेद मूल के पुलिस वाले व उसके सहकर्मियों ने निष्ठुर, निर्दई व निर्मम हत्या की। जो यह प्रदर्शित करता है कि यह वर्ष मार्टिन लूथर की 50वीं पुण्यतिथि, का समय है परंतु आज भी हम उसी वक्त में रुके हुए हैं। इस वाक्य ने अमेरिकी नागरिकों, को जो पहले से कोविड-19 की महामारी झेल रहे हैं, इस पर विरोध करने पर मजबूर हो गए हैं और मानो समुद्र की भांति पूरे देश की सड़कों से लेकर प्रेसिडेंट हाउस तक जाम कर रखा है। तथापि, कई लोगों का ये भी मानना है कि ये पुलिस की बर्बरता व नृशंसता तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वर्षों से दिमाग की अनुकूलता व प्रवृत्ति है जो फ्लोएड के आखरी शब्दों का प्रतीकात्मक रोष है “लेट मी ब्रीथ” क्योंकि काले मूल के अस्तित्व का दमन हुआ है।
बाल श्रम से कैसे बच पायेगा भविष्य- डॉo सत्यवान सौरभ
संयुक्त राष्ट्र बाल श्रम को ऐसे काम के रूप में परिभाषित करता है, जो बच्चों को उनके बचपन, उनकी गरिमा और क्षमता से वंचित करता है, जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। बच्चों के स्कूली जीवन में हस्तक्षेप करता है। बाल श्रम आज दुनिया में एक खतरे के रूप में मौजूद है। आज के बच्चे कल के भविष्य हैं। देश की प्रगति और विकास उन पर निर्भर है। लेकिन बाल श्रम उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चोट करता है। कार्य करने की स्थिति, और दुर्व्यवहार, समय से पहले उम्र बढ़ने, कुपोषण, अवसाद, नशीली दवाओं पर निर्भरता, शारीरिक और यौन हिंसा, आदि जैसी समस्याओं के कारण ये बच्चे समाज की मुख्य धारा से अलग हो जाते है। यह उनके अधिकारों का उल्लंघन है। यह उन्हें उनके सही अवसर से वंचित करता है जो अन्य सामाजिक समस्याओं को ट्रिगर कर सकता है।