नए साल पर बुंदेलखण्ड से एक बड़ा संदेश आया है। प्यास और भुखमरी का पर्याय बन गए बुंदेलखण्ड की धरती पर एक अनूठा संकल्प साकार हुआ। कुओं की पूजा और तालाबों के उद्धार की मुहिम छेड़ने वाले बांदा के जिलाधिकारी हीरालाल ने युवाओं के समूह के साथ आधी रात को केन नदी के तट पर नए साल का स्वागत किया। नदी संरक्षण का समवेत संकल्प लिया गया। एक नई उम्मीद के साथ, एक नई ऊर्जा के साथ। औरों से अलग, अनूठे रूप में जल संरक्षण का जो पाठ जिलाधिकारी ने बाँदा में शुरू कराया है, वह एक बेहतर भविष्य की तरफ इशारा करता है। केन नदी की पूजा के साथ ही उसके तट वाले 22 गांवों में एक साथ चौपाल लगवाई गई और वहाँ जलवायु परिवरतन के खतरे बताये गए। ग्रामीणों से पूछा कि नदी का दुश्मन कौन? जवाब मिला कि नदी में हुआ भारी खनन और खत्म हुए जंगलात के कारण नदी की दुर्दशा हुई है। राज और समाज का संकल्प हुआ कि सब मिलकर केन को बचायेंगे। उसका जंगल वापस लाएंगे। उसको पानी देने ताल-तलैया और कुओं को फिर भरेंगे। कैसे होगा यह सब? इन चौपालों में तय हुआ कि बारिश का पानी खेत में, तालाब में, कुओं में रोककर भूजल भंडार बढ़ाएंगे और पौधे लगाएंगे। जिले में तालाबों और कुओं को ठीक करने का काम पहले से भी चल रहा था, मगर नए साल से इसे जनांदोलन की शक्ल देने का रास्ता तय हो गया है। जिलाधिकारी ने राज और समाज को एक साथ लाकर खड़ा कर दिया। नए साल के पहले हफ्ते में ही एक और अनूठी मुहिम शुरू हुई। गुरु गोविंद सिंह जी के प्रकाश पर्व पर जिलाधिकारी ने सभी श्रद्धालुओं को प्रसाद के रूप में पौधे दिये। गुरुद्वारा कमेटी ने अब हर रोज प्रसाद में पौधे देने का कर्म शुरू कर दिया है। यह काम मंदिरों में भी शुरू हुआ है। जन मानस में यह बात बैठी है कि प्रसाद में मिले पौधों का अनादर न हो। ऐसे में प्रसाद में मिले पौधे का रोपा जाना और उसकी देखभाल तय है। रोपने वाला परिवार समेत इसकी देखरेख भी करता रहेगा; इसी विश्वास के साथ बुंदेलखण्ड की धरती में एक नई मुहिम शुरू हुई है। यह सिर्फ तुलसी के पौधों तक सीमित नहीं। प्रसाद में नीम, बेर, नींबू, मीठी नीम से लेकर फूल और छायादार पौधे दिये जा रहे हैं। बुंदेलखण्ड की हालत किसी से छिपी नहीं है। वीरों की यह भूमि दशकों से जल संकट से जूझ रही है। खेती बन्जर और पथरीली है। यह धरती अकाल, दुष्काल झेलती आई है। कई छोटी-मझोली नदियाँ सूख गई है, बाक़ी सूखने की कगार पर हैं। ऐसे में इनको बचाने की जन मुहिम जरूरी है और यह काम यहाँ के लोग पुरातन काल में मिलकर करते भी आये हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि ओरछा के एक मंदिर में भोग के रूप में पान का बीड़ा चढ़ाया जाता है। ऐसे में पौधों का प्रसाद यहां लोक चलन में जल्द ही शामिल हो जाएगा। बाँदा में ही कालिंजर का ऐतिहासिक अभेद दुर्ग है जहाँ वीरता के किस्सों के साथ जल बचाने के प्रयोग अभी तक देखे जा सकते हैं। वहाँ का नीलकण्ठ ताल बारिश के जल को संरक्षित करता आया है, आज भी वह ताल पानी से लबरेज रहता है। पूरे दुर्ग में बारिश के जल को सहेजकर रखे जाने के इंतजाम देखे जा सकते हैं। वहाँ बारिश का जल इतना संगृहीत रहता है कि वहाँ से एक धारा लगातार बहती है। श्रद्धालु मृगधारा के नाम से इसी जल का आचमन भी करते हैं। भारतीय जल संस्कृति को फिर से जिंदा करने की जो कोशिश बाँदा में आकार लेती हुई दिखी है, उसके जनांदोलन बनने के सभी कारण मौजूद हैं। इस अभियान की नींव डेढ़ साल पहले रखी गई थी। नाम दिया गया भूजल बढ़ाओ, पेयजल बचाओ अभियान। इस काम में योजनाएं तो पुरानी ही थी मगर संकल्प नया था। तालाब, कुआं और पोखरों पर काम शुरू हुआ तो भूजल स्तर में सुधार आया और बंदा को रास्ट्रीय स्तर पर जल संरक्षण का पुरस्कार मिला और बीते पखवारे केंद्रीय जल शक्ति मंत्री ने जिलाधिकारी को सम्मानित किया और ‘लिम्का बुक आफ रिकार्ड’ ने भी इस काम को देखने के लिए अपनी टीम लगाई है। पानी के साथ संवेदनशील रिश्ता बनाने के लिए जिलाधिकारी ने स्थानीय समुदाय के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर केन नदी की साप्ताहिक पूजा शुरू की है। अब प्रसाद में पौधा देने का अभियान शुरू हुआ है। इन कोशिशों को सम्मान और समर्थन मिलना आवश्यक है। जो बुंदेलखण्ड पिछले दशक में अवैध खनन और किसानो की आत्महत्या के लिए कुख्यात हो गया था, वहाँ से ऐसी सकारात्मक खबरें आना सुखद है।
यह कोशिश बताती है कि कार्यपालिका का कुछ हिस्सा अपने दायित्यों को बेहतर तरीके से समझ रहा है। ऐसी कोशिशें बुंदेलखण्ड से बाहर निकलकर विदर्भ और मेवात तक पहुचनी चाहिए। देश के अलग अलग हिस्सों में जल संरक्षण के बेहतर काम भी हो रहे हैं, इन्हें आम लोगों के बीच पहुचाने की जरूरत है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग जल को बचाने और उसके सदुपयोग के लिए स्वयंसेवक बन सकें। नया साल और यह नया दशक हमारे लिए बड़ी चुनौतियां लेकर आया है। इस दशक में हमें क्लाइमेट चेंज के खतरों से परिचित भी होना है, उनसे लड़ने के लिए अपने तौर तरीकों को भी दुरुस्त करना है। पूरी दुनिया के सामने यह कठिन चुनौती है कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान को कैसे कम किया जाए? जो उपाय हमारे सामने हैं; उनमें बाँदा में शुरू हुई मुहिम बड़ी कारगर साबित होगी। अगर हम भारत के सभी जिलों में ऐसा कर पाएं तो न सिर्फ जल संकट से निपट पाएंगे बल्कि क्लाईमेट चेंज से होने वाले खतरे भी कम होंगे। देश ने देखा कि किस तरह से रेगिस्तानी इलाकों में पिछले सालों में मूसलाधार बारिश हुई और बर्फ से ढके रहने वाले प्रदेशों के तमाम शहरों में गर्मी ने तेवर दिखाये। यह सब क्लाइमेट चेंज का ही नतीजा है। भारत ने भी विश्व के अन्य देशों के साथ देश का औसत तापमान दो डिग्री कम करने का संकल्प लिया है। ऐसे में बाँदा जैसी तमाम कोशिशें ही इस संकल्प को पूरा करने का जरिया बन सकती हैं। हमारे देश में औसत बारिश ठीक होती है। इस जल को तालाब, कुओ के जरिये भूजल में शामिल करना है। इसके लिए हमें खाली जमीन पर तालाब बनाकर बारिश का जल रोकना होगा। नदी, तालाब, झील के किनारों से लेकर शहरों के अंदर तक पौधरोपण करना होगा। प्रदूषण उत्सर्जन कम करने की तमाम कोशिशों के बीच पानी का काम आगे बढ़ाने के लिए युवाओं कमान सम्भालनी होगी। पानी का बचना ही जीवन को बचाने का एक मात्र विकल्प है। जिस देश, प्रांत, शहर के पास अपना पानी होगा, पर्याप्त और साफ पानी होगा वही समृद्ध हो पाएगा। यह बात बुंदेलखण्ड के बांदा और दूसरे जिलों के लोगों से बेहतर कौन जानता है। पानी के अभाव ने वहां अकाल पैदा किया है। सूखे से जूझे बुंदेलों की वीरता वाली संस्कृति को भी इसी पानी की कमी ने आघात दिए हैं। यहाँ गाँव के गाँव खाली ही हैं। पानी का मोल समझना है तो बुंदेलखण्ड की एक कहावत सुनिये और गुनिये… “खसम मर जाए पर गगरी न फूटे” यानी पानी के मूल्य की तुलना पति के प्राणों के साथ इस तरह की गई है। ऐसे में केन किनारे से आई पानी प्रेम की यह खबर भविष्य के लिए आश्वस्त करती है।
भारत का नागरिक समाज अपने जल संसाधनों का सदुयोग करेगा, यही पुरुषार्थ भी है और यही परमार्थ भी। केन के बहाने बुंदेलखण्ड अपनी दूसरी नदियों के लिए भी उठ खड़ा होगा। केन को कुदरत ने ऐसी नेमत बख़्शी है कि उसके जल में, रेत में दुनिया का सबसे महंगा पथर सज़र मिलता है। हर नदी अपनी जैव विविधता के साथ लोगों की प्यास बुझाते हुए, धन धान्य से लबरेज करती हुई बहती है। न सिर्फ केन, बेतवा, मंदाकिनी, पय श्वनि, बागे, चन्द्रावल जैसी तमाम नदियां, झीलें बुंदेलखण्ड को सरसब्ज़ करती रही हैं। मगर विकास की अराजक परिभाषाओं ने नदी का जीवन छीन लिया, हमारा लालच जंगल के जंगल चर गया। अब बुंदेलखण्ड में गायें अन्ना घूम रहीं हैं। उनके थन सूखे हैं। अब बांदा ने मन बनाया है तो आकाश गंगा से झरने वाली एक एक बूंद को धरती की कोख मे भरा जा सकता है। ऐसा हो गया तो वह दिन दूर नहीं जब इन गायों के थन से दूध के फव्वारे फूट पड़ेंगे। (लेखक: वरिष्ठ पत्रकार/ सामाजिक कार्यकर्ता हैं)