कोरोनाकाल में त्योहार और धार्मिक-सामाजिक आयोजन मर्यादित लोगों की उपस्थिति में आयोजित हो रहे हैं। ऐसे में लगता यही है कि इस साल शिक्षक दिवस भी शायद बंद स्कूलों और कालेजों के माहौल में विद्यार्थियों की प्रत्यक्ष उपस्थिति के बिना ही मनाया जाएगा। पर इससे गुरु-शिष्य के परस्पर के प्रेम और आदर में कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। जिनके जन्मदिन पर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, उन डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन को वैसे तो लोग देश के प्रथम उपराष्ट्रपति और द्वितीय राष्ट्रपति के रूप में जानते हैं। परंतु उनकी असली पहचान अद्वितीय और आजीवन शिक्षक के रूप में है। जब वह देश के राष्ट्रपति के रूप में चुने गए तो 1962 में उनके विद्यार्थी उनके जन्मदिन को मनाने का निवेदन ले कर उनके पास आए। तब डा0 राधाकृष्णन ने उनसे कहा कि अगर मेरा जन्मदिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाओगे तो मुझे विशेष खुशी होगी और तभी से राधाकृष्णन का जन्मदिन 5 सितंबर देश के शिक्षकों के लिए समर्पित दिन बन गया।
5 सितंबर, 1888 के तमिलनाडु की राजधानी चेन्नै से 40 किलोमीटर दूर गांव तिरुतानी में डा0 राधाकृष्णन का जन्म हुआ था। पूर्वजों का गांव सर्वपल्ली था, जो उनका कुलनाम बना रहा। निम्न ब्राह्मण परिवार के इस बच्चे के तहसीलदार पिता पढ़ाने के बजाय उसे मंदिर का पुजारी बनाना चाहते थे। पर वह पढ़-लिख कर हिंदू दर्शनशास्त्र के महान विद्वान और उच्चकोटि के दार्शनिक बन गए। डा0 राधाकृष्णन की लगभग समस्त शिक्षा क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल-कालेज में हुई। शायद यही वजह थी कि बाद में उन्होंने ‘द हिंदू व्यू आफ लाइफ’ जैसे ग्रंथ की रचना की, जिसमें क्रिश्चियन मिशनरी शिक्षण संस्थाओं के मुक्त वातावरएा का बखान किया गया है। वैसे मिशनरी स्कूलों में हिंदू धर्म को निम्न धर्म के रूप में पढ़ाया जाता था। किशोर-युवा राधाकृष्णन के मन पर इसका गहरा असर पड़ा। इसलिउ उन्होंने ‘द हिंदू व्यू आफ लाइफ की रचना की थी।
1904 से 1908 के दौरान उन्होंने मद्रास यूनीवर्सिटी से उच्च शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद दर्शनशास्त्र के महापंडित के रूप में प्रख्यात हुए राधाकृष्णन कालेज समय से ही दर्शनशास्त्र विषय की ओर आकर्षित हुए थे। उनका एक चचेरा भाई दर्शनशास्त्र से स्नातक था। छुट्टियों में उसकी किताबें राधाकृष्णन को मिलीं तो परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रख कर मुफ्रत में मिली किताबों की वजह से उन्होंने दर्शनशास्त्र को ही उच्च शिक्षा का विषय बनाया। एमए की डिग्री के लिए उन्होंने ‘वेदांत का नीतिशास्त्र’ पर शोध निबंध लिखा था।सन् 1909 के अप्रैल महीने में 21 साल की उम्र में वह मद्रास के प्रेसीडेंसी कालेज में दर्शनशास्त्र के व्याख्याता के रूप में नियुक्त हूए। इसी के बाद शुरू हुआ उनका अध्यापकीय और अध्यापन कार्य, जो हमेशा चलता रहा। मैसूर विश्व विद्यालय में वह 1918 से 1921 तक दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक रहे। इसके बाद पूरा एक दशक तक उन्होंने कोलकाता यूनीवर्सिटी में दर्शनशास्त्र और नैतिक विज्ञान पढ़ाया। सन् 1932 में वह आंध्र यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर बने। इसके बाद अधिक अध्ययन-अध्यापन के लिए उन्होंने विदेश की राह पकड़ी। इंग्लैंड की ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में उन्होंने लंबे समय तक अध्यापन कार्य किया। विद्याप्रीति के कारण उन्हें अमेरिका औ यूरोप में भी प्रसिद्धि और ख्याति मिली। दूसरे विश्वयुद्ध के समय वह भारत लौट आए। इस बीच सन् 1942 में वह बनारस विश्व विद्यालय के उपकुलपति बनाए गए। उस समय तक वह अध्यापन के अलावा लोकजीवन और सांस्कृतिक जीवन में भी सक्रिय रूप से रुचि लेने लगे थे।
डा0 राधाकृष्णन अच्छे विद्वान या नीरस शिक्षक ही नहीं थे। सही रूप में वह विद्यार्थीप्रिय शिक्षक थे। क्या देश में, क्या विदेश में, वह सदैव विद्यार्थियों के प्रियपात्र रहे। कठिन से कठिन मुद्दे और जटिल से जटिल विषय वह आसानी से, रुचिपूर्वक विद्यार्थियों को समझा सकते थे। शायद यही वजह थी कि उनका क्लास हमेशा विद्यार्थियों से ठसाठस भरा रहता था। शिक्षा और समाज डा0 राधाकृष्णन के जीवन के साथ हमेशा जुड़े रहे। जब वह उपराष्ट्रपति थे, तब एक दीक्षांत समारोह के अवसर पर उन्होंने अपने वक्तव्य में कहा था- ‘मेरे जीवन के 40 से अधिक साल एक शिक्षक के रूप में बीते हैं। इसी अनुभव के आधार पर अब मैं आप सभी से भी यही कहना चाहता हूं कि विद्यार्थियों में कोई बुनियादी खराबी नहीं होती, सही बात तो यह है कि हम खुद उन्हें मौका नहीं देते, जो उनका अधिकार है। बड़े-बड़े बांध बनाने का कोई मतलब नहीं है, जब तक हमारे पैदा किए हुए आदमी छोटे रहेंगे।’
उनका कहना था कि ‘बौद्धिक अभिप्राय का रूपांतरण प्रज्वलित स्थिर प्रतीति में होनी चाहिए। यह जीवंत श्रद्धा बनी रहनी चाहिए। दीया कैसा है इसका महत्व नहीं है, ज्योति कैसी प्रत्वलित है और प्रकाश कैसा देदीप्यमान है, यह महत्वपूर्ण है। इस तरह का प्रकाश फैलाने और प्राप्त करने का अपना लक्ष्य होना चाहिए। सच्ची शिक्षा लेकतांत्रिक मन को रचती है।’
उनकी विद्वता की गवाही उनके लिखे डेढ़ सौ से अधिक ग्रंथ हैं। जिनमें इंडियन फिलॉस्फी, द हिंदू व्यू आफ लाइफ, द रिलीजन वी नीड, ईस्ट एंड वेस्ट इन रिलीजियन एजूकेशन, पॉलिटिक्स एंड वार आदि मुख्य हैं। डा राधाकृष्णन के ये ग्रंथ हिंदू धर्म, उनके तत्वज्ञान, हिंदू धर्म में जीवन कैसे जिएं आदि की पहचान कराते हैं। वह धर्मगुरु नहीं थे, पर अच्छे शिक्षक जरूर थे। अपनी दलीलों को तर्क के आधार पर वह धर्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण को स्पष्ट कर देते थे। भारत के राष्ट्रपति के पद से निवृत्ति होने के बाद वह तमिलनाडु वापस चले गए थे, जहां बाकी की जिंदगी वाचन, मनन और चिंतन में बिताई। 86 साल की उम्र में 17 अप्रैल, 1975 को वह हम के बीच से हमेशा हमेशा के लिए विदा हो गए।
-वीरेन्द्र बहादुर सिंह