Monday, November 18, 2024
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युवा भाजपाइयों के भविष्य पर लग सकता है ‘ग्रहण’, यूपी में 2022 का चुनाव लड़ने को कमर कसे बैठे हैं निष्क्रिय व दलबदलू

हाथरस,जन सामना | नववर्ष का आगाज़ होने के साथ ही उत्तर प्रदेश में 2022 के विधानसभा चुनाव की भी गूंज सुनाई देने लगी है, क्योंकि योगी आदित्यनाथ ने 19 मार्च 2017 के दिन मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी। इस लिहाज से 2022 के प्रथम चरण में चुनाव प्रस्तावित हैं।
हर पांच साल के अंतराल पर लगने वाले इस चुनावी कुंभ में जनआकांक्षाओं से परे दूसरी पार्टी छोड़ कर आये व निष्क्रिय लोगों का एक वर्ग विशेष डुबकी लगाने को तैयार रहता है क्योंकि इसी पर टिका होता है उसका भविष्य और उसकी महत्वाकांक्षाएं।अगर बात यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव की करें तो वह चुनाव भाजपा ने पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर लड़ा, लेकिन 2021 आते-आते योगी आदित्नाथ ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि राजनीति पर केवल ‘नेताओं’ का एकाधिकार नहीं है। नेकनीयत और खुले दिमाग से यदि काम करने उतरा जाए तो गेरुआ वस्त्रधारी भी मठ से निकलकर अपनी लकीर अलग खींच सकता है।देखा जाए तो आज स्थिति यह हो गई है कि देश में मोदी तो यूपी में योगी का डंका बजता है।यही कारण है कि चुनाव किसी भी राज्य के क्यों न हों, परंतु वहां की संपूर्ण राजनीतिक धुरी मोदी के इर्द-गिर्द घूमती है। यूपी के मामले में इसके साथ एक नाम और जुड़ जाता है, और यह नाम है योगी आदित्यनाथ का।मोदी और योगी के इस कॉम्बिनेशन ने बेशक भाजपा के लिए चुनाव दर चुनाव जीत की राह आसान बनाने का काम किया है किंतु साथ ही कुछ दिक्कतें भी खड़ी की हैं। इनमें पहली दिक्कत तो है पार्टी के वर्तमान विधायकों में निष्क्रियता का भाव पैदा हो जाना और दूसरी है|युवा भाजपाइयों के भविष्य पर ग्रहण लगने की स्थिति पैदा होना।दरअसल, यूपी में भाजपा के अधिकांश वर्तमान विधायक यह मान बैठे हैं कि मोदी हैं तो मुमकिन है और योगी हैं तो उन्हें कोई काम करने की जरूरत ही क्या है। जो करना है, वह इन्हीं दोनों को करना है और इन्हीं के सहारे उनकी नैया पार लगना तय है।
विधायकों के मन में बैठ चुकी इस धारणा का ही परिणाम है कि प्रदेश के अंदर दूसरा कोई ऐसा नाम सुनाई नहीं देता जिसके काम की चर्चा होती हो या जिसके बारे में यह कहा जाए कि वह अपने बल-बूते चुनाव जीतने का माद्दा रखता है।दूसरी ओर पार्टी के युवा वर्ग में निराशा का भाव घर करता जा रहा है क्योंकि उसे अपना भविष्य दिखाई नहीं दे रहा। रटे-रटाए या कहीं से भी उठाए हुए चेहरे चुनाव में उतार दिए जाते हैं क्योंकि वोट तो मोदी और योगी के चेहरों पर मिलना है। उदाहरण के लिए 2017 के चुनाव में हाथरस सीट पर हरीशंकर माहौर व सिकंदराराऊ सीट पर वीरेंद्र सिंह राणा को उतार दिया गया जबकि इससे पहले हरीशंकर माहौर व वीरेंद्र सिंह राणा कभी यहां सक्रिय नहीं रहे। इसी कारण स्थानीय होने के बावजूद हरीशंकर माहौर व वीरेंद्र सिंह राणा का जमकर विरोध भी हुआ। बहरहाल, विरोध के बावजूद मोदी लहर में हरीशंकर माहौर व वीरेंद्र सिंह राणा चुनाव जीत गए। उनसे कहीं अधिक जनाधार वाले युवा नेताओं को नजरंदाज कर दिया गया था।
जनपद हाथरस तो एक प्रमाण है अन्यथा प्रदेशभर का यही हाल बताया जाता है क्योंकि 2017 के लिए यही नीति पूरे राज्य में अपनाई गई थी।
अब जहां तक सवाल 2022 का है तो ऐसा नहीं लग रहा कि प्रत्याशियों के मामले में पार्टी कोई बड़ा परिवर्तन करने जा रही है। यदि ऐसा होता तो सेकंड लाइन कहीं सक्रिय नजर आती। हो सकता है कि रस्म अदायगी के तौर पर 2022 में भी युवाओं के नाम आगे बढ़ाए जाएं परंतु फेरबदल की गुंजाइश कम रहेगी। फेरबदल होगा भी क्यों, जब पूरा चुनाव ही मोदी और योगी के सहारे लड़ा जाना है। जब फेरबदल नहीं होगा तो पार्टी का युवा वर्ग मन मारकर काम करने पर मजबूर होगा।माना कि सबको संतुष्ट करना किसी पार्टी के लिए संभव नहीं होता परंतु ये भी उचित नहीं कि पार्टी को पूर्ण समर्पित युवा वर्ग मुंह देखता रहे और नकारा नेता इसलिए बार-बार चुनाव लड़ने का मौका हासिल करते रहें कि वोट तो मोदी व योगी के चेहरे पर मिलना है। हो सकता है वर्तमान परिस्थितियों में पार्टी की यह नीति और रीति काम आ जाए किंतु आगे चलकर इससे बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है क्योंकि जिस पार्टी की युवा इकाई में हताशा एवं निराशा भरने लगती है, उसके सामने चुनौतियों के पहाड़ स्वतः खड़े हो जाते हैं।