Monday, November 18, 2024
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कुछ बेटियों से उनकी यातना के बारे में भी पूछो

एक अजन्मी अंतिमा की पीड़ा सुनों, 
मत उम्मीद रखो मुझसे की मेरी ज़िंदगी का अनुवाद तुम्हारी भावनाओं से जुड़ा हो “मैं अजन्मी अंतिमा हूँ एक छोटा सा अदम्य आक्रोशित किरदार” और तुम मुझे कभी नहीं समझ सकते। तुम्हें मुझे पढ़ने के लिए उस क्षितिज तक जाना होगा जहाँ से मेरी लिखी हर संज्ञा को महसूस कर सको। मेरे दर्द की कथोपकथन की सघनता को थामना किसी के बस में नहीं।
दर्द की आज्ञा का पालन करते मैंने शब्दों को थोड़ा सहलाया है, रेशमी एहसास के पन्नों पर मोतीयों की तरह पिरो कर लहू की स्याही से लिखी है एक दास्ताँ कहती हूँ।
मन तो करता है तलवार की धार से भी कंटीले शब्दों का इस्तेमाल करके उस माँ-बाप की मानसिकता को नंगा कर दूँ, बाप ने माँ की कोख में बो तो दिया मुझे पर बेटे की चाह में अंधे लिंग परिक्षण की बलि चढ़ा दिया मुझे।
खैर ये कहानी कहीं प्रकाशित नहीं होंगी अनकही, अनपढ़ो, अनसुनी ही रहेगी कहाँ वो शिद्दत वाली समझ किसी में, इस छोटी सी लड़की की मानसिकता को महसूस करें।
अनंत जन्मों से अलमारी में दीमक की खुराक होते पड़ी है, पड़ी रहेगी मेरी कहानी। किसी में हिम्मत नहीं पीले पड़ गए पन्नों से स्पंदन उकेरने की। जिसने भी छुआ इस कहानी की आग को ऊँगलियों के पोरे जल गए।
अजन्मी अंतिमा के छोटे-छोटे टुकड़ों की कहानी से ज्वालामुखी का धधकता स्त्रोत बहता है। तुम भी दूर रहो आरंभ से अंत तक ये कहानी एक लड़की के मन के अगम्य, अगोचर विश्व की तिलीस्मी और सिसकती व्याख्याओं की भरमार है, शाब्दिक युद्ध की श्रृंखला है समाज के विरुद्ध अभियान छेड़ रखा है।
कोख के कोने में जब रोपी गई थी मैं तभी से विवाद से घिरी हूँ। माँ को शायद प्यार है पर परिवार की अनमनी हूँ। माँ ने विद्रोह क्यूँ नहीं किया क्या उनको भी बेटे की ही उम्मीद थी? मेरे नन्हे कानों में वो कोलाहल गूँजता है मेरे जन्म पर इतना आतंक क्यूँ ? मेरा लड़की होने के पीछे मेरा क्या गुनाह, बीज हूँ जो बोओगे वही उगेगा फिर मेरे हर एक अंग का कत्ल क्यूँ?
दु:खवाद से लदी चिल्ला-चिल्ला कर मेरी कहानी के हर पन्ने से आर्तनाद उठता है, कोई मेरे दर्द की क्षितिज तक नहीं पहुँच पाता, नहीं छू पाता मेरी विडंबना को। तुम भी मत छुओ अब तो पन्नों से सिलन की, घुटन की बू आती होगी। छलनी ज़ख़्मों की वेदना को मत कुरेदो पड़ी रहने दो शांत इस कहानी को। है हिम्मत खोखले समाज की मानसिकता को बदलनेकी ? मेरे जन्म को महफ़िल में बदलनेकी। आख़री पन्नों पर चरम बिखरी है दर्द की सुनों,
कोख में ही टुकड़ों में बिखरी हूँ। जब हाथ पर आरि चली तब आह निकली, जब पैर कटे तब उफ्फ़, और जब हदय पर वार हुआ तब नफ़रत की आँधी उठी, देखो वो रौंदी गई नन्ही कली के आँसू मिश्रित रक्त रंजित नदी मेरी खूनी माँ के गुप्तांग से बह रही है। तिरस्कृत सी मेरे अनवरत घातों की पीड़ा वो कूड़े के ढ़ेर में मेरी बोटी पड़ी है सुवर और कुत्तों की दावत में सजी।
कौन लेगा मेरे खून का प्रतिशोध? इस कहानी को बदल पाओ सन्मानित सी समाज को अर्पण करते ? तब मेरे करीब आना। और जश्न मनाना बेटी दिवस का।
(भावना ठाकर,बेंगुलूरु)