बहुत देर मंथन करने पर मन भी कह देता है नहीं, क्योंकि जब आजतक बाकी औषधि संबंधी कानूनों का पालना नहीं हो रहा है, तो इसका कैसे होगा। औषधि कानूनों का मखौल हमारे भारत देश में ही उड़ाया जाता है। अत्यन्त पीड़ा होती है लेकिन क्या करें जब हमारा सिस्टम ही ऐसा है तो हम भी चुप पड़े रहते हैं। किन्तु जब बात आत्मसम्मान पर आती है तो अपनी भावनाओं को रोक पाना कठिन हो जाता है। पीड़ा उस समय और बढ़ जाती है जब फार्मासिस्ट द्वारा बनाई गई 10 पैसे की दवा गरीब को 10 रुपए में मिलती है। दवा की कीमत कई गुना बढ़ जाती है जो कि कतई न्याय संगत नहीं है। ऐसा क्यों होता है थोड़ा समझ लेते हैं। फार्मा कम्पनियां अपने फार्मासिस्ट साथियों को बाध्य करती हैं कि आप जाओ मार्केट में और इसकी मार्केटिंग करो लेकिन मार्केटिंग के स्वघोषित नियम इतने गंदे बना दिए हैं कि न चाहते हुए उन्हें वो सब करना पड़ता है जिसको न करने की शपथ भी वो लेता है। लेकिन इन लालच से परिपूर्ण फार्मा कम्पनियों के लिए उनको ऐसा करना पड़ता है क्योंकि रोजगार देकर आपको खरीद भी तो लिया है इन फार्मा कम्पनियों ने। आप नहीं करेंगे तो कोई और करेगा क्योंकि पहले तो बेरोजगार फार्मासिस्ट ही बहुत हैं और फार्मासिस्ट न भी मिले तो क्या किसी को भी बना देते हैं एमआर चाहें उसको दवा का ज्ञान ही न हो।
यहाँ भी मखौल बनता है हमारे औषधि कानूनों का-
जब कोई रोगी दिखाने जाता है तो उसको ब्रांड नेम से दवा लिखी जाती है उसको ये तक बता दिया जाता है कि दवा किस मेडिकल स्टोर पर मिलेगी और जहां ये दवा मिलती है वहां बैठा होता है फार्मासिस्ट के लाइसेंस का दलाल जो कि उस मरीज को कभी जेनेरिक दवा के बारे में नहीं बताता क्योंकि उसे फार्मूले की जानकारी ही नहीं होती है। यहां भी कानून का मखौल उड़ता है और पूरे देश में ये एक ऐसी जगह है जहां कानून सिर्फ पढ़ने के लिए है। मैं उन फार्मासिस्टों को भी बताना चाहता हूँ जो चंद रुपयों के लिए अपनी इज्जत गिरवी रखते हैं आप लोग भी पूरी तरह जिम्मेदार हो फार्मासिस्ट कौम की बदनामी करवाने में।
यदि ये पैसा फार्मा कंपनी ब्रांडिंग में खर्च न करके किसी गरीब के लिए खर्च करती तो आत्मसम्मान तो सुरक्षित रहता।
आज देश कोरोना जैसी भयावह बीमारी से जूझ रहा है। फार्मा कंपनी इस आपदा की घड़ी में कहां छुपकर बैठीं हैं, सामने आओ और बचा लो अपनी इज्जत क्योंकि आज आपके साथ-साथ फार्मासिस्ट भी अपने आपको ठगा सा महसूस कर रहा है।
ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती।
निंदक नियरे राखिए, ऑंगन कुटी छवाय।
बिन पानी, साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।।
फार्मासिस्टों को बर्बाद करने में अगर फार्मा कंपनी जिम्मेदार हैं तो कहीं न कहीं सरकार भी जिम्मेदार है, क्योंकि यह न तो अपने नियमों का पालन करवा पाती है और न ही बेरोजगार पंजीकृत फार्मासिस्टों को रोजगार देने में सक्षम है। सिर्फ उत्तर प्रदेश में लगभग 90 हजार पंजीकृत फार्मासिस्ट बेरोजगार घूम रहे हैं।
मैं तो कहता हूँ सरकार कोरोना के इस महासंग्राम में ही फार्मासिस्टों को उतार दे, किन्तु ऐसा करने में भी वह सक्षम नहीं दिख रही है और सेवानिवृत्ति पैरामेडिकल स्टाफ को पुनः नौकरी में आने के लिए आदेश जारी किया है। आखिर यह देश किस दिशा की ओर जा रहा है यह एक विचारणीय पहलू है।