हिंदू धर्म में किसी भी व्यक्ति की मृत्यु की बारह दिन के पश्चात तेरहवें दिन मृत्यु भोज की प्रथा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। यह मृत्यु भोज तेरहवें दिन ही क्यों कराया जाता है इस प्रश्न का उत्तर हमें गरुड़ पुराण से मिल जाता है जिसमें यह विदित है की दिवंगत आत्मा को उसकी मृत्यु के पश्चात 13 दिन तक 13 गांव को पार करना होता है गरुड़ पुराण के अनुसार यह गांव बहुत भयानक होते हैं आनंददायक नहीं होते हैं यह जंगल कांटो और अग्नि से भरा हुआ गांव होता है जिसे पार करते हुए दिवंगत आत्मा को यमराज के समक्ष उपस्थित होना होता है। फिर उस दिवंगत आत्मा को अपने जीवन पर्यंत जाने अनजाने में किए गए पाप कर्मों के अनुसार उसे वहां दंडित किया जाता है। अतः इस 13 दिन तक दिवंगत आत्मा के परिवार के सदस्य सूतक में रहते हैं उनके घर चूल्हा नहीं जलता है। तथा उन्हें भोजन उनके गांव पड़ोस के लोगों को देना होता है जो कि वर्तमान समय में घटकर एक या दो दिन हो गया है उस आत्मा को अपने पाप कर्मों से मिलने वाले दंड को कम सहना पड़े इस हेतु साधु संत महात्मा तपस्वी ऋषि-मुनियों को बुला कर कुछ विशेष पूजन विधि करा कर और भोजन पका कर उस भोजन को भगवान को भोग लगाकर फिर उसका प्रसाद गांव पड़ोस के लोगों एवं रिश्तेदारों में वितरित करते हैं तो उस प्रसाद को जो जो लोग ग्रहण करते हैं तो उस दिवंगत आत्मा के इतने सारे पापों के थोड़े थोड़े भागी बनते हैं एवं इस तरह से उस दिवंगत आत्मा का पाप कम होता है किंतु आज के वर्तमान समय में यह मृत्यु भोज अपने उद्देश्य से हटकर एक विकृत रूप ले चुका है देखा जा रहा है अक्सर जीते जी किसी किसी इंसान को खाने को भोजन दिया जाए या नहीं उसको दवा दिया जाए अथवा नहीं किंतु उसकी मृत्यु उपरांत यदि उसके परिवार के सदस्य संपन्न है तो भी और गरीब है तो भी कर्ज लेकर के भी यह मृत्यु भोज की प्रथा निभाई जा रही है जिसमें कि गांव समाज के रिश्ते के बहुत सारे लोग एक साथ इकट्ठे होते हैं और इस दिन और तरह-तरह के पकवान मिठाई यहां तक कि आज के समय में मिनरल वाटर में भी खर्च बहुत हो रहा है और पंडित को बहुत सारा दान किया जा रहा है। इसमें बुराई यह देखा जा सकता है कि कुछ अमीर परिवार तो सभी रीति रिवाजों में कुछ बातें अथवा नियम अपनी सामर्थ्य के अनुसार खुद भी जोड़ लेते हैं मृत्युभोज में ढाई सौ 300 लोगों को बुलाकर बहुत शानदार ढंग से भोजन कराना जिसकी नकल कुछ गरीब परिवार भी करने लगते हैं और यह एक प्रथा से हटकर कुप्रथा बन चुका है क्योंकि इस प्रथा को निभाने में बहुत परिवार कर्ज में डूब जाते हैं तथा इसमें किसी शादी विवाह से कम खर्च नहीं लगता है।
किसी भी नियम या प्रथा में समय के साथ साथ परिवर्तन होता रहता है उदाहरणार्थ इस लॉकडाउन के समय में मृत्यु होने के उपरांत अंतिम संस्कार एवं शादी विवाहों के नियमों में बहुत सारे परिवर्तन देखे गए तो यह आवश्यक नहीं कि किसी व्यक्ति की मृत्यु के बाद उसके परिवार के सदस्य यह मृत्यु भोज कराने में कर्ज में डूब जाएं इससे मृत्यु भोज के पीछे जो उद्देश्य था जिसमें तपस्वी और कुछ गरीब लोगों को और सभी रिश्तेदारों को सिर्फ भगवान को चढ़ाया हुआ प्रसाद दिए जाने का रुप इतना विस्तृत और विकृत हो चुका है इस में परिवर्तन लाया जाना चाहिए मृत्यु भोज कराना अनुचित नहीं है किंतु इसके परिवर्तित रूप में बुराई है यह अपने नियम पूर्वक ढंग से शास्त्रों के अनुसार निभाया जाना चाहिए।
बीना राय, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश