उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 में एक नए वोटिंग पैटर्न के संकेत
लखनऊ, बीनू सचान। पुख्ता हो गए हैं. पटेल और पंडित एक दिशा में चल पड़े हैं. धार्मिक आधार पर इन दोनो जातियों में एकता नहीं है पर सत्ता के लिए जो ललक दिखती है उसका धरातल एक है।जातियों के जंगल से होकर जाने वाले सत्ता पर आते जाते लोगों को जरा गौर से देखिये. आजादी के 75 साल में कोई पटेल मुख्य मन्त्री की कुर्सी में नहीं बैठा. किंग मेकर होने का ‘परसेप्शन’ लिए घूम रहे पंडितों यानी ब्राहमणों में से कोई व्यक्ति चार दशक से मुख्य मन्त्री की कुर्सी तक नहीं पहुंचा. 2022 के चुनाव पिछड़ों/ दलितों पर केंद्रित हैं. उस पर भी न किसी पटेल के 5 कालीदास मार्ग तक जाने की कोई पुख्ता सम्भावना दिखती है न पण्डित की. यह हालात क्यों हैं?
आइये जरा चुनावी सफर देखें. अब इन जातियों के वोटिंग पैटर्न पर नजर डालना भी जरूरी है।
उत्तर प्रदेश में इस वक्त या यूं कहें कि इस विधानसभा चुनाव में गैर यादव पिछड़ी जातियों पर सभी दलों का फोकस है। खासकर भारतीय जनता पार्टी बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने भी इसी ताने-बाने के साथ अपना चुनावी समर सजाया है.उत्तर प्रदेश में यादवों के बाद कुर्मी जाति आबादी के लिहाज से करीब 13 फ़ीसदी है. इसका वोट किसे मिले? कैसे अपने पाले में लाया जाए? इसके लिए अलग अलग तरीके से ताना-बाना बुना गया है. उत्तर प्रदेश में कुर्मी बिरादरी का कोई मुख्यमंत्री आजादी के बाद से अब तक नहीं बना है।
मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद से पिछड़ी जातियों में जिस तरह से अपना नेता चुनने और सत्ता के शीर्ष पर अपनी जाति के नेता को बैठाने की ललक बढ़ी है. उस ललक में डूबे हुुुए पटेल समाज के लोगों का सपना पूरा करने का हल्ला मचाकर 1995 में डॉक्टर सोनेलाल पटेल ने कुर्मीयों के नाम पर एक दल अपना दल का गठन किया था।एक दो चुनाव में कुर्मीयों का कुछ हिस्सा अपना दल के साथ खड़ा हुआ. पर नेगेटिव राजनीति के कारण जल्दी पटेल समाज का भरोसा सोनेलाल पटेल की कार्यप्रणाली से उठ गया. शुरुआती दौर में 4 विधायक जीतने के बाद एक दशक से भी अधिक समय तक दल को कोई पॉलीटिकल माइलेज नहीं मिला। इसी वक्त समाजवादी पार्टी ने बेनी प्रसाद वर्मा के जरिए और बाद में नरेश उत्तम पटेल के जरिए सपा के साथ कुर्मियों को जोड़ने की मुहिम चलाई. बहुजन समाज पार्टी ने भी आधा दर्जन नेताओं को संगठन और मंत्रिमंडल में शामिल किया. आप देखेंगे कि जैसे ही दिल्ली में नरेंद्र मोदी सत्ता में आए. उसकी तैयारी के सिलसिले में जब उत्तर प्रदेश के जाति दलों को देखा गया तो अपना दल के भाग्य बनारस और उसके आसपास के जिलों में खुल गए। अपना दल को गठबंधन में शामिल करके भाजपा ने कुर्मीयों का वोट अपने साथ लाने की कोशिश की. कुछ तक भाजपा इसमें सफल भी हुई लेकिन 5 साल की सत्ता के बाद भी पटेलों को भारतीय जनता पार्टी अपने साथ पूरी तरह जोड़ नहीं पाई. भाजपा ने अपनी पार्टी के अंदर कुर्मी लीडरशिप को भी खड़ा किया।आज आप देखेंगे उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष समाजवादी पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष पटेल बिरादरी का है. पटेल वोट किसके साथ है? यह कह पाना मुश्किल है. अखिलेश यादव ने समाजवादी पार्टी के साथ डॉक्टर सोनेलाल पटेल के की पत्नी कृष्णा पटेल और उनकी दूसरी बेटी पल्लवी पटेल को खड़ा कर लिया है। अब पटेल समाज पूरी तरह कन्फ्यूजन का शिकार है. एक तरफ पारिवारिक विवाद और दौलत के चक्रव्यूह में फंसे डॉक्टर सोनेलाल की पत्नी, उनकी दो दो बेटियां और दलों को ‘दहेज’ के सामान की तरह इस्तेमाल कर रहे दो दो दामाद हैं तो दूसरे दलों में कुर्मी बिरादरी के सामान्य और सशक्त नेता ऐसे में वोटिंग पैटर्न देखना दिलचस्प होगा। कुर्मी बिरादरी के संगठनों के सोशल मीडिया पर व्हाट्सएप ग्रुप, उनके फैमिली ग्रुप और उनकी राजनीतिक जातीय बैठके कन्फ्यूजन का शिकार हो गई हैं। कहीं पर वह भाजपा के समर्थन में बात करते हैं. कहीं पर वह समाजवादी पार्टी के समर्थन में बात करते हैं । एक वर्ग ऐसा है जो परिवार वादी और दौलत वादी लोगों को छोड़कर सीधे समाजवादी पार्टी, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस या बसपा के बारे में अपने स्वतंत्र फैसले ले रहा है। यानी कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के कई दशकों बाद पटेल समाज चौराहे पर आ खड़ा हुआ है,इसे यूं भी कह सकते हैं कि वह किसी का बंधुआ नहीं. अति जागरूक है. राजनीतिक चेतना चरम पर है. वह अब न किसी जाति, संगठन का ‘थोक वोटर’ यानी वोट बैंक नहीं दिखता है. न ही किसी एक से बंधा हुआ नजर आता है. ना ही चेतना शून्य नजर आता है, पटेलों की चेतना व्यक्ति और प्रत्याशियों पर टिकी है. यह वर्ग की राजनीति के लिए संपूर्ण जाति की राजनीति करने वालों को चौकन्ना करने वाले हालात हैं. ऐसे लोगों को वैचारिक दायरे बढ़ाने के संकेत हैं. कुछ लोग कह सकते हैं कि यह हालात जातीय राजनीति के लिए हितकारी नहीं. क्योकि जाति की राजनीति तभी हो सकती है जब सब किसी भय, लोभ या सपने के लिए एकजुट हों. कुर्मीयों में ऐसा संकेत नहीं दिखता. उनका वोटिंग पैटर्न और सपना अलग अलग रास्तों पर है।चौराहे पर आ खड़ा हुआ पटेल समाज इस चुनाव में व्यक्तियों की चिंता करता नजर आ रहा है. और उसके रणनीतिकार उसे किंग मेकर बताने की कोशिश में जुटे हुए हैं. यह परसेप्शन क्रिएट किया जा रहा है कि कुर्मी ही इस चुनाव में किंग मेकर होगा। ऐसे ही कुछ दशा उत्तर प्रदेश की सियासत में पंडित यानि ब्राह्मण समाज की रही है.नारायण दत्त तिवारी के बाद से नारायण दत्त तिवारी के बाद से उत्तर प्रदेश की कुर्सी पर कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बैठ पाया.यह मलाल ब्राह्मण समाज को अब तक सालता है. लेकिन वह लगातार खुद को किंग मेकर की भूमिका में देखकर खुश होता रहा। भारतीय जनता पार्टी पर कभी ब्राह्मणों और बनियों की पार्टी होने का ठप्पा लगा था.लेकिन समय और नरेंद्र मोदी के आगमन के साथ भारतीय जनता पार्टी अब सर्व समाज की पार्टी ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा लेकर चुनावी मैदान में है। भाजपा ने यह छवि तैयार करने की मुकम्मल कोशिश की है कि भाजपा किसी जाति की नहीं राष्ट्रवादी, राष्ट्र प्रेमियों की पार्टी है और सभी जातियों का समावेश करती है सिवाय मुस्लिम धर्म मानने वालों के. और सपा की छवी उसने मुस्लिम तुष्टीकरण की राजनीति करने वाली पार्टी की बनाई है। उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण कभी बहुजन समाज पार्टी की सरकार बनाते दिखता है. और नारा लगता है ब्राहमण शंख बजाएगा…हाथी नहीं गणेश है ब्रह्मा विष्णु महेश है.और कभी वह परशुराम प्रतिमा के लिए अखिलेश यादव के साथ खड़ा दिखाई पड़ता है, तो कहीं अपने प्रत्याशी की जात देखकर वह कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी के साथ..
बीते तीन दशक का चुनावी विश्लेषण करेंगे तो पटेल और पंडित का वोटिंग पैटर्न किसी एक दल विशेष के लिए न होकर अलग-अलग पार्टियों और प्रत्याशियों पर केंद्रित नजर आता है. इस तरीके के अपने फायदे और अपने नुकसान हैं. जिस तरह से उत्तर प्रदेश की राजनीति ने करवट ली है, उसमें किसी दल के साथ जब तक जाति का बड़ा हिस्सा नहीं होता उस जाति के मुख्यमंत्री का बन पाना बेहद मुश्किल है.उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने पिछड़ी जाति के नेता केशव प्रसाद मौर्य को आगे करके 2017 का विधानसभा चुनाव लड़ा और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को बनाया गया जो सन्यासी भी हैं और क्षत्रिय भी. जाति और धर्म के चोले में वे पिछड़े केशव पर भारी पड़ गये. आप देख सकते हैं कि 2022 के चुनाव में केशव मौर्य ने जाति के साथ अपना धार्मिक रूप भी चोखा किया. केशव ने नारा लगाया कि काशी मथुरा बाकी है… योगी आदित्य नाथ को भाजपा ने ही अयोध्या से चुनाव लड़ने नहीं भेजा. यानी अब केशव और योगी बराबर धरातल पर खड़े हैं। हर दल ने जाति देखकर टिकट दिया है। भाजपा ने सर्वाधिक टिकट ठाकुर और उसके बाद ब्राह्मणों को टिकट दिए। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने भी इसी तरह अपना अपना पैटर्न आगे बढ़ाया है। सियासी दृष्टि डालें इस वक्त उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद की दौड़ में योगी आदित्यनाथ, केशव प्रसाद मौर्य, अखिलेश यादव, मायावती या कांग्रेस (जिसकी की संभावना नजर नहीं आती) से भी कोई गैर पटेल नेता ही मुख्यमंत्री पद का दावेदार हो सकता है (या है). इसमें मुख्यमंत्री पद की दावेदारी करने का सपना पटेल और पंडित नहीं देख सकते। यानी कि 2022 के चुनाव में किसी पंडित या पटेल जाति के नेता के मुख्यमंत्री बनने के आसार नजर नहीं आते. पटेलों के लिए यह आजादी के 75 साल बाद की हालत है और ब्राह्मणों के लिए एनडी तिवारी के 40 साल बाद, वोटिंग का पैटर्न ब्राह्मणों और पटेलों को किस तरफ ले जाएगा? यह तो वक्त ही बताएगा. एक रोचक तथ्य ये है कि धार्मिक आधार पर अलग अलग खड़े रहने वाले पटेल और पंडित वोटिंग पैटर्न में एक साथ खड़े नजर आते हैं. किंग मेकर।