देश या प्रदेश सभी सरकारों को अधिकारी गुमराह तो कर ही रहे हैं, साथ ही आमजन का दर्द अनदेखा कर सीएम व पीएम के सपनों को पलीता लगा रहे हैं। इसकी पुष्टि उत्तर प्रदेश में की जा सकती है। देश के पीएम ने देश की जनता की समस्याओं को सुनने व उनका निस्तारण करने के लिए पोर्टल चालू किया जिससे कि लोग अपनी शिकायतों को आॅन लाइन दर्ज करवा सकें और उनका निस्तारण उन्हें घर बैठे प्राप्त हो जाये लेकिन यह कटु सत्य है कि आम जन की ज्यादातर शिकायतों का निस्तारण गुणवत्तापरक नहीं किया जा रहा है। कमोवेश यहीं हाल उत्तर प्रदेश के सीएम पोर्टल/आईजीआरएस पोर्टल का है जिसमें आम जन शिकायतें तो खूब दर्ज करवा रहे और अपनी समस्या का निस्तारण होने का इन्तजार करते रहते हैं। लेकिन आमजन को निराशा उस समय हांथ लगती है जब उसकी शिकायत का निस्तारण करने के नाम पर जांच करने वाला अधिकारी खाना पूर्ति कर अपनी जादुई कलम से उच्चाधिकारियों को गुमराह कर देते हैं और भ्रष्टाचारियों को बचा रहे हैं। यही हाल लगभग हर विभाग का है। वहीं खास बात यह भी है कि जिस अधिकारी की शिकायत की जाती है, जांच भी उसी अधिकारी को सौंपी जाती है जिससे साफ जाहिर होता है कि शिकायत कर्ता की समस्या को तो नजरअन्दाज किया ही जा रहा है साथ ही सरकार को भी गुमराह किया जा रहा है। आॅन लाइन शिकायतों का गुणवत्तापरक हल ना होना जहां एक ओर आम आदमी को निराश तो कर ही रहा है साथ ही दूसरी ओर सरकारों के प्रति नाराजगी भी आमजन के मन में बढ़ाने का कार्य भी स्थानीय अधिकारियों द्वारा किया जा रहा है। शिकायतों के निस्तारण सम्बन्धी आख्याओं को देख कर यह कहना कदापि अनुचित नहीं है कि जांच करने के नाम पर सरकार को गुमराह किया जा रहा है।
सम्पादकीय
अस्मिता की लड़ाई कोरे गांव
कोरे गांव में बिगत दिनों घटित बवण्डर को लेकर पूरे देश की मीडिया ने इस घटना को जिस तरह से पेश करने की कोशिश की है उसमें राजनीति ‘बू’ पैदा होने की अपार सम्भावनाएं पनप गईं। जबकि उस पर वर्तमान में विचार करने की जरूरत है कि तत्कालीन ऐसा वातावरण क्यों पनप गया कि महार जाति के योद्धाओं को विदेशियों का साथ देना पड़ा? ऐसे लोगों को न्यूज रूम में स्थान दे दिया गया जिन्हें शायद कोरेगांव का इतिहास ही ना मालूम हो। हां इतना तो जरूर है कि वो मीडिया के माध्यम में समाज में जहर उगलने का कार्य कर सकते हैं। जबकि एक कटु सच्चाई 1818 का घटनाक्रम बयां करता है कि कोरेगांव का वह युद्ध देश विरोधी कृत्यों को नहीं बल्कि एक अस्मिता की लड़ाई को बयां करता है। विचारणीय तथ्य यह है कि ऐसे हालात क्यों पनपने दिए गए थे कि अपनो को अपनों के विरुद्ध युद्ध लड़ना पड़ा था। अतीत पर नजर डालेे तो कोरेगांव का युद्ध उन पाॅच सौ महार दलित योद्धाओं की बहादुरी को व्यक्त करता है जिन्होंने बाजी राव पेशवा के अट्ठाईस हजार सैेनिकों को युद्ध में छक्के छुड़ा दिये थे। उस घटनाक्रम को इस नजरिये से देखा जाना उचित है कि आज हीं बल्कि उस समय भी अस्मिता के लिए संघर्ष करने वाले बहादुरों की कमी नहीं थी।
गौरतलब हो कि 19वीं सदी में भारत की दलित जातियों में शुमार महारों पर कानून लागू किया था जिसमें महारों को कमर पर झाड़ू बाँध कर चलना होता था ताकि उनके दूषित और अपवित्र पैरों के निशान उनके पीछे घिसटने इस झाड़ू से मिटते चले जाएँ. उन्हें अपने गले में एक मटका भी लटकाना होता था ताकि वो उसमें थूक सकें और उनके थूक से कोई उच्चवर्णीय प्रदूषित और अपवित्र न हो जाए। असहनीय यातनाओं व तत्कालीन नियमावली से महार उकता गए थे। और ऐसा उकताना किसी के लिए आज भी संभव है जिसका जीना बद से बदतर कर दिया जाये चाहे फिर वह महार हो या अन्य कोई भी वर्ग या सम्प्रदाय। इसीलिए तत्कालीन व्यवस्था में अपनी अस्मिता को बचाने के लिए अंग्रेजों के साथ हो गए थे। एक तरफ ब्रिटिश अधिकारियों की नजर महारों पर टिकी थी जो कद काठी में अच्छे खासे थे।
निर्वाचन आयोग कुत्ते की दुम !
यूपी में निकाय चुनाव का दौर चल रहा है। इस दौरान कहीं ईवीएम मशीन में गड़बड़ी तो कहीं लोगों के नाम मतदान सूची से गायब होने की तमाम खबरें आई। आलम यह देखने को मिल रहा है कि शेषजन (आम नागरिक) ही नहीं बल्कि वीआईपी यानीकि विशेष जनों तक के नाम मतदाता सूची में गायब होने की खबरें मिलीं। मतदाता सूची से सांसद, मंत्री, मेयर तक के नाम गायब मिले। पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा देवरिया से बीजेपी सांसद कलराज मिश्र, साक्षी महाराज, उन्नाव जिले की चर्चित नेता अन्नू टंडन, सपानेता चो. सुखराम सिंह के साथ-साथ उत्तर प्रदेश पुलिस के मुखिया सुलखान सिंह का नाम मतदाता सूची से गायब मिलने की बात कही गई। इनके साथ ही वाराणसी में पीएम नरेंद्र मोदी के प्रस्तावक रहे वीरभद्र निषाद का नाम भी मतदाता सूची में शामिल नहीं है। ऐसे में सवाल उठता है कि सालदर साल चुनाव सम्पन्न कराने का जिम्मेदार आयोग यानि की निर्वाचन आयोग ‘कुत्ते की दुम’ क्यों बना हुआ है? लोकतन्त्र के महाकुम्भ में ऐसा कोई चुनाव सम्पन्न नहीं हो पाया है जिसमें हजारों मतदाताओं से उनका अधिकार छिन नहीं गया हो।
मतदाता सूची की गड़बड़ियों को ठीक करने के लिए आयोग द्वारा जारी किए गए तमाम दिशा निर्देशों की अवहेलना होती देखी जा सकती है, इसी लिए जब भी चुनाव का वक्त आता है तो ऐसा दिखता है कि चुनाव आयोग उस बूढ़े कुत्ते के जैसा ही दिखेगा जो दांत रहित होता है और वह सिर्फ भौंक सकता है लेकिन काट नहीं सकता है। नतीजन तमाम दिशा निर्देशों के बावजूद सभी दलों के प्रत्याशी आचार संहिता का उल्लंघन करने से जरा भी हिचकिचाते हैं वहीं चुनाव को सम्पन्न कराने में जुटी सरकारी मशीनरी भी लापरवाही करने से नहीं चूकती।
कोई खुश तो कोई मायूस
सूबे में नगर निकायों/नगर निगमों की चुनावी सरगर्मी की बयार में कुछ खुश तो कुछ मायूस चेहरे देखने को मिल रहे हैं। वहीं लगभग सभी दलों में देखने को मिल रहा है कि पार्टी के लिए वफादारी करने वाले कार्यकर्ताओं को कहीं तो तवज्जो मिली तो कहीं मौका परस्तों का बोलबाला दिख रहा है। इसके अलावा यह भी चर्चा आम है कि इस माहौल में ‘बाप बड़ा ना भैया…सबसे बड़ा रुपइया…।’
नगर निगम या निकाय चुनावों में प्रत्याशिता का दावा करने वाले जिन कार्यकर्ताओं को मौका नहीं दिया गया वो खुलकर बोल रहे है कि दावेदारी में काम नहीं बल्कि रुपया बोला है। इसके साथ ही मायूसी भरे चेहरे में अपनी खीज मिटाते हुए बोले कि भाई अब तो लगभग सभी दल एक जैसे ही दिख रहे हैं। क्योंकि टिकट तो उन्हीं को मिला है जो या तो जोड़तोड़ यानी कि ‘साम-दाम-दण्ड-भेद’ से काम करने में कामयाब रहे या फिर ‘प्रत्याशिता की बोली’ बोलने में।
हालांकि उनकी बात सच भी दिख रही है क्योंकि जो कार्यकर्ता ‘दावेदारी’ की लालसा में पार्टी के लिए दिनरात एक किए रहे उन्हें ऐन वक्त पर ‘दूध में गिरी मक्खी’ की तरह फेंक दिया गया और ऐसा लगभग सभी दलों में देखने को मिल रहा है। वहीं सुनहरा मौका उन्हें मिल गया जो पार्टी के कार्यक्रमों में कभी दिखे ही नहीं। साथ ही यह भी देखने को मिल रहा है कि जो लोग अपनी शराफत को लिए घूमते रहे उन्हें नजरअन्दाज कर दिया गया और जो दबंगता की आड़ ले ‘मनीराम’ का झोला थमाने में आगे रहे उन्हें ही प्रत्याशी बना दिया गया। तमाम लोग ऐसे भी दिखे जिनके नाम मतदाता सूची से गायब पाये गए तो उन्होंने विरोधियों पर आरोप लगाया कि ‘उनका’ नाम कटवा गया क्योंकि विरोधी जानते थे कि ‘फलाने’ ही जीत सकता है। मतदाता सूची में नाम गायब होने के चलते जो लोग दावेदारी नहीं कर सके उनका चेहरा भी देखने लायक ही था।
स्वच्छ भारत एक अभियान
देश के प्रधानमंत्री श्री मोदी जी की सरकार के स्वच्छता अभियान-स्वच्छ भारत अभियान के तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। वहीं मोदी सरकार ने महात्मा गांधी की 150वीं जन्मशती के अवसर पर दो अक्टूबर, 2019 तक खुले में शौच से मुक्त भारत का महत्वकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया है। तीन वर्ष की इस अवधि में इस दिशा में कुछ कुछ सफलता दिखने लगी है। लेकिन खुले में शौच से मुक्त के लिए क्रियान्वित करने में बनाये जा रहे शौचालय भी भ्रष्टाचार के गारे में संलिप्त हैं। खासबात यह भी है इस प्रकरण पर आने वाली शिकायतों को अधिकारी व कर्मचारी पूरी तरह से नजरअन्दाज भी करते रहते हैं। शायद उनकी मंशा यहीी है कि मोदी सरकार की वापसी पुनः ना होने पावे। इससे यह भी लगता है कि भारत सरकार को 2019 तक हर घर में शौचालय उपलब्ध कराने का लक्ष्य एक भ्रष्ट मार्ग से ही गुजर पायेगा। आंकड़ों की माने स्वच्छ भारत अभियान के तहत दो अक्टूबर 2014 तक 4.90 करोड़ शौचालय बन चुके थे। वहीं पेयजल एवं स्वच्छता मंत्रालय के अनुसार 24 सितंबर 2017 तक 2.44 लाख गांव और 203 जिले खुले में शौच से मुक्त घोषित कर दिए गए हैं। बताते चलें कि 2012 में केवल 38 प्रतिशत क्षेत्र स्वच्छता कवरेज से जुड़े थे। अब यह बढ़कर 68 प्रतिशत हो गया है। लेकिन अब भी बहुत कुछ करना बाकी है क्योंकि इससे जुड़े तमाम पहलू आज भी फोटो खिचाऊ कार्यक्रम ही साबित हो रहे हैं। कई नजारे तो ऐसे देखने को मिल रहे है कि देखा देखी में उन्हीं के अनुयायी कूड़ा-कचरा को इकट्ठा कर खबरों में आने का माध्यम बना रहे हैं जबकि उन्हें इस अभियान से शायद ईमानदारीपूर्ण लगन नहीं है।
स्वच्छता पर जोर
देश के प्रधानमंत्री के आहवाहन पर पूरे देश में मनाये जा रहे स्वच्छता पखवाड़े से स्वच्छ भारत अभियान को काफी गति मिलती दिख रही है। साफ-सफाई को विशेष बल देने वाले सरकारी कार्यक्रमों से आम लोगों की जागरूकता में एक ओर कई गुणा बढ़ोतरी हुई है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोग भी पिछले तीन वर्षों में स्वच्छता और साफ-सफाई को लेकर काफी जागरूक हुए है लेकिन यह कहना उचित ही होगा कि कई जगहों पर यह कार्यक्रम फोटो खिचाऊ अभियान तक ही सीमित है। महानगरों में तमाम नजारे आज भी दिखते हैं जो पीएम के स्वच्छता अभियान को मुंह चिढ़ाते नजर आते हैं। प्रधानमंत्री ने वर्ष 2014 में गांधी जयंती के अवसर पर इस महत्वाकांक्षी अभियान का शुभारंभ किया था। सुरक्षित पेयजल और साफ-सुथरे शौचालय के प्रति लोगों में जागरूकता बढ़ी है और इससे स्वच्छता को एक नया अर्थ मिला है। लेकिन शौचालय योजना जहां एक ओर लोगों को खुले में शौच करने से बचाव का माध्यम बनी है तो दूसरी ओर शौचालय योजना में भी भ्रष्टाचाररूपी ईंटगारे का बोलबाला दिख रहा है और यह योजना भी जेब भरने का माध्यम बनती दिखी है।
शौचालय अभियान के तहत बड़ी संख्या में शौचालयों का निर्माण हुआ है। फिर भी यह कहना अनुचित नहीं कि जो परिणाम आने चाहिए वो लाख प्रयासों के बावजूद नहीं आये क्योंकि कागजी हकीकत कुछ और है और जमीनी हकीकत कुछ और।
उपेक्षा का शिकार हिन्दी
कहा जाता है कि ज्ञान जितना अर्जित किया जाये उतना ही कम होता है फिर चाहे वह किसी क्षेत्र का हो, सांस्कृतिक हो या भाषायी। लेकिन भाषायी क्षेत्र की बात करें तो हिन्दी भाषा को सम्मान व उचित स्थान दिलाने के लिए हर वर्ष पूरे देश में 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। बावजूद इसके हिन्दी को उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है। ज्यादातर सरकारी विभागों में सिर्फ हिन्दी दिवस का बैनर लगाकर हिन्दी पखवाड़ा मनाकर इति श्री कर ली जाती है। यह एक श्रृद्धान्जलि ही हिन्दी के प्रति कही जा सकती है। वहीं न्यायालयी क्षेत्र की बात करें तो वहां भी सिर्फ लकीर ही पीटी जाती है। लिखा पढ़ी में अंग्रेजी प्रयोग करने वाले व्यक्तियों को ज्यादा बुद्धिमान माना जाता है अपेक्षाकृत हिन्दी लिखने व बोलने वालों के। यह नारा भी सिर्फ मुंह चिढ़ाने के अलावा कुछ नहीं दिखता कि ‘हिन्दी में कार्य करें, हिन्दी एक….।।’ लेकिन क्या आप जानते हैं कि 14 सितम्बर के दिन ही हिन्दी दिवस क्यों मनाया जाता है? कहा जाता है कि जब वर्ष 1947 में भारत से ब्रिटिश हुकूमत का पतन हुआ तो देश के सामने भाषा का सवाल एक बड़ा सवाल था क्योंकि भारत देश में सैकड़ों भाषाएं और हजारों बोलियां थीं और उस दौरान भारत का संविधान तैयार करने के लिए संविधान सभा का गठन हुआ। संविधान सभा के अंतरिम अध्यक्ष सच्चिदानंद सिन्हा बनाए गए। बाद में डाॅक्टर राजेंद्र प्रसाद को इसका अध्यक्ष चुना गया। वहीं डाॅ0 भीमराव आंबेडकर संविधान सभा की ड्राफ्टिंग कमेटी (संविधान का मसौदा तैयार करने वाली कमेटी) के चेयरमैन थे। संविधान सभा ने अपना 26 नवंबर 1949 को संविधान के अंतिम प्रारूप को मंजूरी दे दी। इसके बाद भारत का अपना संविधान 26 जनवरी 1950 से पूरे देश में लागू हुआ।
Read More »कौशल विकास एक मिशन!
वर्तमान की बात करें हमारे देश में दुनियां की सबसे बड़ी युवाओं की आबादी है। भारत की कुल आबादी के लगभग पैंसठ प्रतिशत लोग 35 वर्ष से कम के हैं। सम्भवतः अगर देश की इतनी बड़ी आबादी को अगर कौशल से सुज्जित कर दिया जाए तो भारत देश दुनिया का सबसे दक्ष कार्यबल बन जाएगा। वर्तमान में रोजगार की तलाश में बाजार में दस लाख युवक आ रहे हैं लेकिन कौशल के अभाव में उनको उचित अवसर नहीं मिल पाता।
भारत को रोजगार सम्पन्न बनाने की भावना के अनुरुप कौशल विकसित करने के मुहिम को तेज किया जाना जरूरी है। इसके लिए मंत्रालय की ओर से रोजगार के अनुकूलमाहौल बनाने को प्राथमिकता देने के उद्देश्य से पीएमकेवीवाई का प्रशिक्षण केंद्र खोलकर स्थानीय स्तर पर कौशल विकास का काम हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में व्यापक स्तर पर शुरु किया जा चुका है। बीते महीनों तीनों राज्यों में प्रशिक्षण केंद्रों की बाढ़ सी आ जाने के कारण राष्ट्रीय स्कील डेवलपमेंट काॅउसिल (एनएसडीसी) को यह निर्णय लेना पड़ा कि मंत्रालय की ओर से यह तय किया गया कि इन राज्यों में पीएमकेवीवाई के किसी भी जाॅब के लिए फिलहाल कोई प्रशिक्षण केंद्र शुरु नहीं किया जाएगा। गौरतलब हो कि पीएमकेवीवाई के केंद्रों पर केंद्र सरकार की मदद से अठारह वर्ष से ज्यादा उम्र के नियमित पढ़ाई न करने वाले बेरोजगार व्यक्तियों को विभिन्न ट्रेड में मुफ्त कौशल प्रशिक्षण देने की सुविधा है। यह रोजगार प्राप्ति की दिशा में कौशल विकास परियोजनाओं की सफलता इतिहास रच सकती हैं। भारत में महज दो से तीन प्रतिशत लोगों का ही वर्क फोर्स है।
युवाओं को पथ से भटकने को रोकें
आधुनिकता के दौर में हमने हर क्षेत्र में उन्नति के झण्डे गाड़ने का कार्य किया है। लेकिन एक ओर जहां हमने विज्ञान को वरदान के रूप में अपनाया है तो दूसरी ओर अपराधों के क्षेत्र में भी अपराध कारित करने के तरीकों में आधुनिकता को अपनाते हुए विज्ञान को अभिशाप बनाने का भी काम किया है। पहले लोग कहा करते थे कि बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाना जरूरी है नहीं तो बड़े होकर गलत कामों को करेंगे। लेकिन, आज के दौर की बात करें तो बड़े बड़े अपराधों को कारित करने या उनमें संलिप्तता पाये जाने वालों की संख्या में शिक्षित नौजवानों की संख्या एक विचारणीय विषय है। पहले के दौर की बात करें तो कम पढ़े लिखे या अशिक्षित लोग ही लड़ने-झगड़ने, चोरी-छिनैती की घटनाओं को अंजाम देते हैं लेकिन आज के दौर में इस तरह की घटनाओं को अन्जाम ज्यादातर शिक्षित युवावर्ग दे रहा है।
शिक्षा का गिरता स्तर
शिक्षा का स्तर सुधारने में सरकारें असफल होती रहीं नतीजन लगभग सभी प्राथमिक विद्यालय सिर्फ नाम के विद्यालय रह गए। यह कहने में जरा भी संकोच नहीं रहा कि सरकारी शिक्षालय हमारे बच्चों को मजदूर जरूर बना रहे हैं और जिनसे आशा है कुछ वो हैं निजी शिक्षण संस्थान, जो शिक्षा को खुलेआम बेंच रहे हैं और सरकारें शिक्षा की बिक्री को रोकने में असहाय दिख रहीं हैं। शिक्षा क्षेत्र में सुधार लाने की बात तो मोदी सरकार कर रही है लेकिन कोई ठोस कदम उठाने में लाचार दिख रही है और स्पष्ट नहीं दिख रहा नजरिया इस ओर।
एक तरफ बच्चों को भविष्य का निर्माता कहा जाता है। लेकिन उनके साथ दुराभाव भी सरकार द्वारा ही किया जाता है। एक तरफ सभी सरकारें अच्छी शिक्षा दिलाने की वकालत करती है लेकिन शिक्षा के प्रति किसी भी सरकार का नजरिया स्पष्ट नहीं है।