आम इंसान अक्सर संवेदनशील होते है, वह अपने पसंदीदा कलाकार, लेखक, रमतवीर या चाहे कोई भी प्रसिद्ध व्यक्ति के साथ भावनात्मक रूप से जुड़े हुए होते है। खासकर फ़िल्म इंडस्ट्री और क्रिकेट जगत से जुड़ी हर कड़ी से आम इंसान का लगाव शिद्दत वाला दिखता है। कुछ समय पहले सुशांत सिंह राजपूत की मौत ने समाज के हर वर्ग को और समस्त फ़िल्म इन्डस्ट्री को झकझोर कर रख दिया था। हर कोई अंदाज़ा लगाते अपने तर्क लगा रहे थे स्यूसाइड या मर्डर? आज तक गुत्थि नहीं सुलझी, केस बंद भी हो गया और सब भूल भी गए।
लेख/विचार
क्यूँ देश को अपना नहीं समझते
क्यूँ अल्पसंख्यकों का एक वर्ग पूर्वाग्रह से ग्रसित है? क्यूँ इन लोगों को लगता है की भारत के हिन्दू हमारे दुश्मन है, क्यूँ इस देश में हर मुद्दे को हिन्दु मुस्लिम के रंग में रंग कर राजनीति चालू हो जाती है। जब की आज़ादी के बाद से 75 सालों से एक ही सरजमीं साझा करते हिन्दु मुस्लिम पडोसी बनकर रह रहे है। धर्मांधता जब तक ख़त्म नहीं होगी ये देश कभी उपर नहीं उठेगा। और ये अलगाव वाद फैलाने वाले और मुस्लिमों को हिन्दु के ख़िलाफ़ भड़काने और उकसाने वाले नवाब मलिक और असदुद्दीन ओवैसी जैसे लोग जब तक देश में है तब तक ये खाई बढ़ती ही जाएगी।
त्योहारों पर फिजूल खर्च कितना जरूरी
बेशक त्यौहार हमारे जीवन में आनंद उत्साह और ऊर्जा भरते है। नये कपड़े, पटाखें, मीठाई और रंगों से भरी दिवाली इस साल हर त्यौहार की तरह फ़िकी ही लगेगी क्यूँकि कोरोना की वजह से पूरा देश आर्थिक मंदी से जूझ रहा है। पर एक बात गौरतलब है की इन सारे त्यौहारों पर हर बार हम कितना फ़िज़ूल खर्च कर देते है। यहाँ तक की महीने भर का बजट हिल जाता है। पर जहाँ एक ओर जमाने के बदलते स्वरूप के साथ कदम मिलाना हमारे लिए जरूरी है। वहीं अपनी मेहनत की कमाई को फिजूलखर्ची से बचाना भी उतना ही अत्यावश्यक है। क्या दो साल पहले ली हुई हैवी साड़ी दोबारा इस दिवाली पर नहीं पहन सकते?
अहोई अष्टमी व्रत संतान की मंगलकामना का पर्व
भारत में हिन्दू समुदाय में करवा चौथ के चार दिन पश्चात् और दीवाली से ठीक एक सप्ताह पहले एक प्रमुख त्यौहार ‘अहोई अष्टमी’ मनाया जाता है, जो प्रायः वही स्त्रियां करती हैं, जिनके संतान होती है किन्तु अब यह व्रत निसंतान महिलाएं भी संतान की कामना के लिए करती हैं। ‘अहोई अष्टमी’ व्रत प्रतिवर्ष कार्तिक कृष्ण अष्टमी को किया जाता है। स्त्रियां दिनभर व्रत रखती हैं। सायंकाल से दीवार पर आठ कोष्ठक की पुतली लिखी जाती है। उसी के पास सेई और सेई के बच्चों के चित्र भी बनाए जाते हैं। पृथ्वी पर चौक पूरकर कलश स्थापित किया जाता है। कलश पूजन के बाद दीवार पर लिखी अष्टमी का पूजन किया जाता है।
संकीर्ण विचारधारा का बोझ
पार्वती की शिक्षा ग्रहण करने और दायित्वों के निर्वहन के साथ नौकरी पाने में अत्यधिक विलंब हुआ, पर जीवन की अभिलाषाओं का कोई अंत नहीं। शिक्षा, कैरियर और अब विवाह की बारी। पार्वती की अत्यधिक उम्र होने के कारण अब उसे विवाह में आने वाली कठिनाइयों से जूझना पड़ रहा था। परिवार को पैसो की अत्यधिक आवश्यकता थी इसलिए पार्वती ने नौकरी को पहले प्राथमिकता दी और विवाह को बाद में। अब सरकारी नौकरी के बाद शुरू हुआ विवाह तय करने का सिलसिला। पार्वती नौकरी के चलते ही ट्रान्सफर के बारे में भी सोचा करती थी। इसी कारण उसने यह प्रक्रिया भी शुरू कर रखी थी।
असंभव को संभव बनाने का नाम है रजनीकांत
दिल्ली में विज्ञान भवन में 25 अक्तूबर को आयोजित 67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू द्वारा सिनेमा जगत के ‘थलाइवा’ अभिनेता और दक्षिण भारत के सुपरस्टार रजनीकांत को 51वें दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस अवसर केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने रजनीकांत को 67वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में भारत का सर्वाेच्च फिल्म सम्मान ‘दादासाहेब फाल्के पुरस्कार’ प्राप्त करने पर बधाई देते हुए कहा कि रजनीकांत न केवल एक महान् प्रतीक हैं बल्कि भारतीय सिनेमा की दुनिया के लिए एक संस्था हैं।
समीक्षा की परिभाषा क्या है
किसी भी लेखन को पढ़ कर उसके बारें में बताना समीक्षा कहलाता है। समीक्षक द्वारा की गई टिप्पणी पाठकों को पुस्तक पढ़ने या ना पढ़ने के लिए प्रेरित करती है। किसी किताब, लेख, कहानी पर आपकी प्रतिक्रिया होती है जो अच्छी या बुरी हो सकती है। समीक्षा से पाठकों को लेखन के विभिन्न पहलुओं की जानकारी मिलती है। समीक्षा मतलब समालोचना, किसी भी लेखन की समीक्षा व्यवहारिक आलोचना का एक सशक्त रूप होती है। लेकिन लगता है कि आज यह काम कुछ व्यवहारिक बन है, आजकल रचना और लेखों की समीक्षा निजी संबंधों को निभाने के तौर पर की जाती है, मतलब लेखक को खुश करने का ज़रिया। समीक्षा की स्थिति आज दायित्वहीनता की परकाष्ठा तक पहुंच चुकी है। समीक्षाएं आज विशुद्ध लेन-देन का जरिया बन चुकी है।
अंध मातृ-पितृ भक्त बनने से बचे (लघुकथा)
कहते है जीवन में साक्षात भगवान का स्वरूप माता-पिता होते है और यह सच भी है कि बच्चे के लालन-पालन में माता-पिता स्वयं ही खर्च हो जाते है। माता-पिता बनने के बाद उनकी केवल एक ही अभिलाषा रह जाती है कि मेरे बच्चे का कभी अहित न हो। भवानी को अपनी शिक्षा और इंटर्नशिप के कारण अपने गुरु के घर जाकर भी कभी-कभी अध्ययन में आने वाली परेशानियों के समाधान हेतु उनसे परामर्श लेना पड़ता था क्योंकि गुरुजी अत्यंत व्यस्त रहते थे। वे धन के अत्यंत ही लोभी थे इसलिए अतिरिक्त जिम्मेदारियों को भी लेने के लिए हमेशा तैयार रहते थे क्योंकि इससे उनकी आमदनी में इजाफा होता था। यहीं स्वभाव उनकी पत्नी में भी था। चापलूसी और चाटुकारिता भी उनका पीछा छोड़ नहीं पाई।
आज की लड़की डिवोर्स और सेप्रेशन से नहीं घबराती
उनकी स्वायत्तशासी का स्वीकार करो पितृसत्ता के पक्षधरों, अपनी लकीरों में खुद खुशियाँ भरना सीख गई है, आज की नारी प्रताड़ित होते देहरी के भीतर आँसू बहाना भूल गई है। था एक ज़माना जब महिलाएं कमज़ोर, बेबस, लाचार कहलाती थी। किसी और के तय किए हुए दायरे में सिमटी आज़ादी को तरसती, कोई भी निर्णय लेने से डरती हर हाल में जी लेती थी। तलाक और सेप्रेशन जैसे शब्दों से परहेज़ करती जैसे पति और ससुराल वालें रखें रह लेती थी। पर आज की लड़की मुखर हो गई है ज़िंदगी जीने का द्रष्टिकोण ही बदल लिया है। दहलीज़ के बाहर कदम धरने की फिराक में सदियों की जद्दोजहद से जूझते ख़्वाहिशों को परवाज़ देने कि हिम्मत बटोर ली है। नहीं घबराती अब ज़िंदगी की चुनौतियों से मर्द की प्रतिस्पर्धी बनकर उभर रही है।
न्यायपालिका में 50% महिला आरक्षण कितना जरूरी?
भारत के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमन्ना ने महिला वकीलों को 50% आरक्षण की मांग उठाने की बात कही। अभी कुछ समय से महिलाओं ने वकालत के पेशे में अच्छी पहचान बनायी है। जिससे शहरों में अब लोग उन्हें जानने लगे हैं लेकिन गांव और पंचायत में उन्हें अभी भी पहचान नहीं मिल पा रही है। अभी भी वकील की नजर से देखने के बजाय “महिला” की नजर से ज्यादा आंकते हैं लोग। एक मानसिकता बनी हुई है कि यह महिला है और यह केस कैसे लड़ेगी? मतलब कि उसकी काबिलियत पर शक किया जाता है। उच्च न्यायालयों में 11.5% महिला जज है और सुप्रीम कोर्ट में 11. 12% महिला जज हैं 33 में से चार। देश में 17 लाख वकील है उनमें से सिर्फ 15% महिलाएं हैं।