प्रयागराज में आयोजित महाकुम्भ-2025 के सन्दर्भ में कहा जा रहा है कि यह अवसर 144 वर्ष बाद आया है और आगे 144 वर्ष बाद ही आयेगा। जिसके कारण देश विदेश से करोड़ों श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाने पहुँच रहे हैं। कुम्भ मेला कब प्रारम्भ हुआ, इस बारे में कोई सटीक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। परन्तु अधिकांश विद्वान इसकी शुरुआत का श्रेय आदि शंकराचार्य को देते हैं। आदि शंकराचार्य का जन्म ईसा पूर्व सन 507 (युधिष्ठिराब्द 2631) में बैशाख शुक्ल पक्ष की पंचमी को केरल राज्य (तब मालाबार प्रान्त) में एर्णाकुलम जनपद के कालड़ी ग्राम में हुआ था। कुछ विद्वान इनका जन्म आठवीं शताब्दी में होना बताते हैं। इनके पिता का नाम पण्डित शिवगुरु भट्ट तथा माता का नाम आर्याम्बा था। पण्डित शिवगुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। आदि शंकराचार्य को महादेव शिव का अवतार माना जाता है, जो उनकी विलक्षण प्रतिभा से सिद्ध भी होता है। मात्र आठ वर्ष की आयु में श्री गोविन्द नाथ भगवत्पाद से सन्यास की दीक्षा लेकर सन्यासी हो जाना। उसके बाद वाराणसी होते हुए बदरिकाश्रम तक पैदल यात्रा करना। सोलह वर्ष की आयु में ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना। सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करनाद्य दरभंगा जाकर तत्कालीन ख्यातिलब्ध विद्वान मण्डन मिश्र को शास्त्रार्थ में पराजित करने के बाद सन्यास की दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाना। भारतवर्ष में व्याप्त तत्कालीन कुरीतियों एवं धार्मिक आडम्बरों को समाप्त कर समभावदर्शी वैदिक धर्म की पुनः स्थापना करना उनके शिवत्व को दर्शाता है।
महर्षि पाणिनी, महर्षि पातंजलि, महाराज मनु, महर्षि भृगु, दैत्यगुरु शुक्राचार्य, देवगुरु वृहस्पति, महर्षि प्रचेता, महर्षि यास्क, महर्षि क्रतु, महर्षि पुलह, महर्षि पुलस्त, महर्षि अत्रि, महर्षि वशिष्ठ, महर्षि जाबालि, ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, महर्षि यमदग्नि, महर्षि दत्तात्रेय, महर्षि अगस्त, महर्षि मार्कण्डेय, महर्षि भरद्वाज, महर्षि याज्ञवल्क्य, महर्षि अष्टावक्र, महर्षि गौतम, महर्षि पाराशर, महर्षि मैत्रेय, महर्षि गर्ग, महर्षि सान्दीपनि, महर्षि शाण्डिल्य, महर्षि कात्यायन, महर्षि सांकृत, महर्षि उपमन्यु, वेद व्यास, रोमहर्षण सूत तथा महर्षि शौनक आदि अनगिनत मनीषियों द्वारा पल्लवित पुष्पित भारतीय संस्कृति जिसे कालान्तर में वैदिक धर्म, सनातन धर्म और अब हिन्दू धर्म के नाम से पहचान प्राप्त है, जो व्यक्ति को जन्म से नहीं अपितु कर्म से मनुष्य बनाने के लिए जानी जाती है। जिसके मूल में त्याग, तपस्या, सदाचार और अन्त में परम गति अर्थात मोक्ष की प्राप्ति निहित है। जीव की स्वाभाविक वृत्ति भोग का पग-पग पर निषेध ही इसका परम सिद्धान्त है। भारतीय भू-भाग पर जन्मी मानव सभ्यता हजारों नहीं अपितु लाखों वर्षों से इसी संस्कृति को धारण किये हुए है। परन्तु विभिन्न कालखण्डों में जीव की स्वाभाविक वृति भोग भी समाज पर हावी होती रही है। जिसे भोगवादी आसुरी या दानवी वृत्ति का नाम दिया गया। जब-जब यह कुवृत्ति समाज पर हावी हुई तब-तब किसी न किसी विलक्षण प्रतिभा ने जन्म लेकर इसको समाप्त किया और वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की। भारतीय मनीषियों ने ऐसी सभी प्रतिभाओं को ईश्वर के अवतार रूप में प्रतिष्ठा देकर सम्मानित किया है। आदि शंकराचार्य भी उन्हीं प्रतिभाओं में से एक हैं।
ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व भारतीय संस्कृति के सापेक्ष न केवल कई सम्प्रदाय अस्तित्व में आ चुके थेद्य अपितु विदेशी आक्रमणकारी भी यहाँ की सम्पदा लूटने के लिए आने लगे थे। भोगवादी वृत्ति, कुरीतियों तथा धार्मिक आडम्बरों के बढ़ते प्रभाव से भारतीय संस्कृति के मूल स्वरुप पर निरन्तर कुठाराघात हो रहा था। इसी बीच जन्में आदि शंकराचार्य ने उन सभी कुरीतियों और आडम्बरों को समाप्त करके वैदिक धर्म की पुनर्स्थापना का संकल्प लिया। इस हेतु उन्होंने वेद, वेदांग, वेदान्त और पुराणों का आद्योपान्त अध्ययन करके वैदिक ग्रन्थों तथा मान्यताओं को पुनः परिभाषित किया, ताकि धार्मिक आडम्बरों एवं कुरीतियों को समाप्त कर वैदिक धर्म पुनः प्रतिष्ठित हो सके। परन्तु यह कार्य इतना सरल नहीं था। अतः उन्होंने तत्कालीन धर्माचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित करना प्रारम्भ किया। जिसके बाद मण्डन मिश्र जैसे देश के अनेक धर्माचार्य उनके साथ खड़े हो गये। परन्तु इससे बड़ी चुनौती राजशाही को अपने पक्ष में करना था। जिसके सहयोग के बिना भारतीय संस्कृति के नवीन स्वरुप को समाज में लागू करना सम्भव नहीं था। अतः उन्होंने संसार से विरक्त परन्तु धर्म और संस्कृति के लिए प्राण प्रण से जूझने वाले सशस्त्र योद्धाओं की सेना बनाने का निर्णय लिया, ताकि जो शास्त्र से न माने उन्हें शस्त्र से मना सके। दूरदर्शी आचार्य शंकर ने भारतवर्ष के चारो कोनों में एकदृएक मठ अर्थात धर्मपीठ की स्थापना की तथा पीठाधीश्वर रूप में शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित अपना प्रतिनिधि प्रतिष्ठित किया। पूर्व दिशा में पुरी (ओडिशा) में ऋग्वेद से सम्बन्धित श्रीगोवर्धन मठ, दक्षिण में रामेश्वरम (कर्नाटक) में यजुर्वेद से सम्बन्धित श्रीश्रृंगेरी मठ, पश्चिम में द्वारिकापुरी (गुजरात) में सामवेद से सम्बन्धित श्रीशारदा मठ तथा उत्तर में बद्रीनाथ (उत्तराखण्ड) में अथर्ववेद से सम्बन्धित श्रीज्योतिर्मठ। जिनके प्रथम पीठाधीश्वर शंकराचार्य के रूप में क्रमशः पद्मपा महाभाग, हस्तामल्काचार्य, सुरेश्वर महाभाग (मण्डन मिश्र) तथा त्रोटकाचार्य महाभाग को पदारूढ़ किया थाद्य उसके बाद चारो ही पीठों के अधीन सेना का गठन प्रारम्भ करवाया। इस हेतु नवयुवकों को समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं आडम्बरों के प्रति जागरूक करके उन्हें धर्म के लिए लड़ने हेतु उत्साहित किया जाता, जो युवक इस हेतु तैयार हो जाते उन्हें ब्रम्हचर्य व्रत के साथ नागा सन्यासी की दीक्षा देकर अखाड़ों में मल्ल युद्ध तथा तीर तलवार आदि शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगा। धीरे-धीरे चारों पीठों के अधीन नागा योद्धाओं की एक बड़ी सेना तैयार हो गयी। जो बड़ी से बड़ी राजसी सेना का मुकाबला करने में सक्षम थी। जिसका प्रभाव यह रहा कि भारतवर्ष की राजशाही आदि शंकराचार्य के समक्ष नत मस्तक होने लगी और उनके द्वारा प्रतिपादित वैदिक धर्म को सम्पूर्ण भारत में लागू करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। मात्र 32 वर्ष की आयु में अपने जीवन का अभीष्ट पूर्ण करके महाप्रयाण करने वाले आचार्य शंकर ने अपने सन्यासी शिष्यों को दस नाम वन, पर्वत, अरण्य, तीर्थ, आश्रम, गिरि, पुरी, भारती, सागर एवं सरस्वती से विभूषित किया था। ये सभी सन्यासी अपने-अपने क्षेत्र में विचरण कर वैदिक धर्म के प्रचार-प्रसार में जीवनपर्यन्त लगे रहे।
वैदिक धर्म के प्रति समाज को जागरूक करने, जन सामान्य के मध्य चारों पीठों की शक्ति एवं सामर्थ्य का प्रदर्शन करने तथा पाखण्डियों एवं आडम्बरी तत्वों में भय व्याप्त करने के उद्देश्य से देश के चार स्थानों नासिक, उज्जैन, हरिद्वार तथा प्रयागराज में आदि शंकराचार्य द्वारा एक निश्चित समय अन्तराल पर अर्धकुम्भ, कुम्भ एवं महाकुम्भ मेले के आयोजन का सूत्रपात किया गया। जिनमें चारो शंकराचार्य अपने सन्यासी शिष्यों के साथ शाही अन्दाज में पहुँचते और पूरे समय प्रवास करते। साथ ही यह नियम भी बना कि विशेष तिथियों पर सर्वप्रथम शंकराचार्य और उनके शिष्य ही स्नान करेंगे। उसके बाद ही अन्य लोगों को स्नान करने का अवसर मिलेगा। इसके पीछे का मूल उद्देश्य सम्भवतः तत्कालीन राजसत्ता पर वैदिक संस्कृति के प्रभुत्व को स्थापित करना ही रहा होगा। ताकि समाज का सामान्य वर्ग निर्द्वन्द होकर कुरीतियों एवं आडम्बरों का प्रतिकार करके सनातन संस्कृति को अपना सके। नागा सैनिकों ने कई बार अधर्मी तत्वों को धूल भी चटाई है। सन 1605 में जहाँगीर की सेना को प्रयागराज में तथा 1664 में औरंगजेब की सेना को वाराणसी में नागा सन्यासियों ने भीषण टक्कर देकर पराजित किया था।
प्राचीन युद्ध कला में पारंगत नागा योद्धाओं के संगठन को अखाड़ा नाम से जाना जाता है, जिनकी संख्या चार से बढ़कर 13 हो चुकी है। आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र भले ही त्याग दिया था। परन्तु राजशाही समाप्त करके स्थापित हुई लोकतान्त्रिक सरकार इन्हें एक बड़ी चुनौती के रूप में देख रही थी। नेहरु सरकार शंकराचार्यों एवं नागा सन्यासियों के गठजोड़ को तोड़ने का अवसर तलाश ही रही थी कि सन 1954 के कुम्भ मेले में मची भगदड़ और टकराव की ओट लेकर सरकार ने तेरह मान्यता प्राप्त अखाड़ों के दो-दो प्रतिनिधि लेकर अखाड़ा परिषद् की स्थापना करके नागा सन्यासियों को शंकराचार्यों के नियन्त्रण से मुक्त कर दिया। आज चारो शंकराचार्यों की पद प्रतिष्ठा भले ही बरकार हो परन्तु उनकी शक्ति सभी तेरह अखाड़े अपने स्वतन्त्र अस्तित्व के लिए जाने जाते हैं। जो कि आध्यात्मिक मार्ग का अनुसरण करते हुए वैदिक धर्म के प्रति निष्ठा एवं मोक्ष प्राप्ति का उद्देश्य लेकर चल रहे हैं, लेकिन इतना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं आडम्बरी तत्त्वों के बढ़ते प्रभाव से धर्म का स्वरुप निरन्तर विकृत हो रहा है। अतः आवश्यक है कि आदि शंकराचार्य की परिकल्पना के अनुरूप चारो शंकराचार्यों तथा नागा सन्यासियों का समन्वित स्वरुप पुनः स्थापित हो, ताकि आडम्बर फैलाकर समाज को लूटने वाले पाखण्डियों को मुहंतोड़ उत्तर देकर विकृत होती सनातन संस्कृति पुनः प्रतिष्ठित हो सके।
डॉ. दीपकुमार शुक्ल
(स्वतन्त्र टिप्पणीकार)