करीब छह महीने से कोविड-19 से हर इंसान जूझ रहा है। शुरुआती दौर में डर और दहशत का माहौल था लेकिन लोग ज्यादा संक्रमित नहीं थे। दवाई ना होने की वजह से मृत्युदर बढ़ते जा रही थी फलस्वरूप लाकडाउन किया गया और बॉर्डर सीमाएं सील कर दी गई। कुछ कफ्र्य जैसा माहौल हो गया था मगर फिर भी हालत में कोई सुधार नहीं आया सो लड़ाई बदस्तूर जारी है अभी तक। इस महामारी से लड़ने में सिर्फ आमजन ही नहीं बल्कि साइलेंट रुप से एक योद्धा वर्ग भी काम कर रहा हैं और उनका जिक्र भी जरूरी हो जाता है क्योंकि युद्ध लड़ते लड़ते बहुत से योद्धा शहीद भी हो गए हैं। जी सही समझा, मैं डॉक्टरों की ही बात कर रही हूं। करीब 18 राज्यों में 200 के करीब डॉक्टरों की मौत हो चुकी है। अब तक मेडिकल एसोसिएशन के अनुसार तमिलनाडु में 43, महाराष्ट्र में 23, गुजरात में 23, बिहार में 19, पश्चिम बंगाल में 16, कर्नाटक में 15, दिल्ली में 12 और उत्तर प्रदेश में 11 डॉक्टरों की मौतें हो चुकी है।
एक डॉक्टर जिसे भगवान का दूसरा रूप माना जाता है। इस महामारी में ये डाक्टर्स अपनी जान जोखिम में डाल कर लोगों के जीवन की रक्षा कर रहे हैं और इसी बचाव कार्य में लगे रहने के कारण वो अपने घर परिवार और बच्चों से दूर रह रहे हैं। घर के अंदर उनको एंट्री नहीं मिलती, घर के बाहर कुछ मीटर की दूरी पर वह अपने परिवार, बच्चों और घर के अन्य सदस्यों को दूर से निहार कर संतोष कर लेते हैं। यह बहुत दुखदाई स्थिति है जहां व्यक्ति घर परिवार के साथ समय बिताता है, साथ रहता है वहां इस तरह की दूरी तकलीफदेह होती है। जो डॉक्टर इलाज करते हुए संक्रमित हो गए हैं, मेडिकल एसोसिएशन ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सभी डॉक्टर के लिए स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराने की मांग की है। कोरोना जंग लड़ रहे योद्धाओं के लिए यह जरूरी भी है कि उन्हें और उनके परिवार को स्वास्थ्य सुविधा मिले।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि डॉक्टरों के साथ-साथ स्वास्थ्य सेवा कार्य में उनका साथ उनके सहयोगी भी देते हैं। नर्स जिनका स्वास्थ्य सेवा में बड़ा योगदान रहता है, ट्रेंड नर्सेज एसोसिएशन ऑफ इंडिया के आंकड़ों के तहत महाराष्ट्र, गुजरात और पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक स्टाफ नर्स कोरोना से संक्रमित हैं और कोविड से सबसे ज्यादा नर्सों की मौत भी इन्हीं राज्यों में हुई है। यह दुखद है कि तमिलनाडु सरकार ज्यादा मौतों पर भरोसा नहीं कर रही है और अपने यहां हुई 43 मौतों को स्वीकार नहीं कर रही है और इनके प्रमाण मांग रही है। आई एम ए जूनियर विंग के चेयरमैन डा. अब्दुल हसन ने बताया कि शुरू में सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन नहीं हुई और पीपीई किट की क्वालिटी भी खराब थी, साथ ही बुखार और गैर बुखार वाले मरीजों को अलग-अलग रखने में भी कोताही बरती गई जिसका खामियाजा डॉक्टरों को भुगतना पड़ा। डॉक्टर और उनके परिजनों को बीमार होने के बाद भी अस्पताल में बेड और उचित स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिल पा रही है। इस बात को लेकर उनमें असंतोष व्याप्त है और अब डॉक्टर्स ‘मृत्यु की वजह के’ प्रमाण पत्र इकट्ठे कर सरकार को सौंपने की तैयारी कर रहे हैं।
लेख/विचार
जातिवाद का जहर बोते राजनेता
राजनीति में हमेशा खाने और दिखाने के दांत अलग-अलग होते हैं। राजनीतिक पार्टियां अक्सर कहती तो यह हैं कि हम जाति आधारित राजनीति नहीं करते हैं, पर इन राजनीतिक पार्टियों के ज्यादातर निर्णय जाति आधारित राजनीति के आसपास ही होते हैं। मुख्यमंत्री बनाना हो या फिर किसी राज्य का पार्टी अध्यक्ष बनाना हो या फिर विधानसभा चुनाव का टिकट देना हो, या फिर जिला, तहसील या पंचायत सदस्य के उम्मीदवार का चुनाव करना हो, इन तमाम निर्णयों के आसपास जातिगत राजनीति की जबरदस्त पकड़ होती है। जिस विधानसभा क्षेत्र में जिस जाति के वोट अधिक होते है, उस क्षेत्र में उसी जाति का उम्मीदवार उतारा जाता है या फिर जाति का काम्बिनेशन कर के उम्मीदवार पसंद किया जाता है। इस मामले में सारी योग्यताएं धरी की धरी जाती हैं। मात्र जातिगत योग्यता को महत्व दिया जाता है।
उत्तर प्रदेश में इस समय ब्राह्मण वोटरों को खुश करने के लिए राजनीतिक पार्टियों में होड़ चल रही है। इन दिनों ब्राह्मण शिरोमणि कहे जाने वाले परशुराम की मूर्ति लगवाने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के बीच होड़ लगी है। पिछले दिनों समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने पार्टी के तीन महत्वपूर्ण ब्राह्मण नेताओं अभिषेक मिश्रा, मनोज कुमार पांडेय और माताप्रसाद पांडेय से मुलाकात की। इस मुलाकात के बाद अभिषेक मिश्रा ने घोषणा की कि पार्टी की ओर से लखनऊ में 108 फुट ऊंची भगवान परशुराम की प्रतिमा लगवाई जाएगी। इस घोषणा के कुछ घंटे बाद ही उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने प्रेस कान्फ्रेंस कर के घोषणा की कि अगर बसपा-2022 में सत्ता में आती है तो परशुराम की 108 फुट से भी ऊंची मूर्ति लगवाएगी। इसके अलावा पार्कों एवं अस्पतालों के नाम भी परशुराम के नाम से किए जाएंगे।
बसपा नेता मायावती की इस घोषणा के बाद समाजवादी पार्टी के नेता भड़क उठे। पूर्व कैबिनेट मंत्री अभिषेक मिश्रा ने तो यहां तक कह दिया कि मायावती चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। तब उन्हें परशुरामजी की मूर्ति लगवाने की याद क्यों नहीं आई? सपा सरकार ने परशुराम जयंती पर छुट्टी की घोषणा की थी, जिसे बाद की सरकार ने रद्द कर दिया। समाजवादी पार्टी के एक अन्य नेता पवन पांडेय ने कहा कि तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार का नारा देने वाली बसपा की नेता मायावती को आज ब्राह्मणों की याद आ रही है और ब्राह्मणों के सम्मान की बात कर रही हैं। लेकिन अब परशुरामजी के वंशजों ने मन बना लिया है कि वे कृष्ण के वंशजों के साथ ही रहेंगे।
दूसरी ओर कांग्रेस आरोप लगा रही है कि कांग्रेस के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जतिन प्रसाद ने उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण चेतना संवाद की घोषणा की है। जतिन प्रसाद की इस घोषणा के बाद ही सपा और बसपा को ब्राह्मणों की चिंता सताने लगी है। जतिन प्रसाद का कहना है कि पिछले कुछ समय से ब्राह्मणों पर उत्तर प्रदेश में लगातार अत्याचार हातो रहा है और इन दोनों पार्टियों के नेता चुप बैठे रहे। उनका कहना है कि मूर्ति लगवाने की अपेक्षा जरूरत इस बात की है कि ब्राह्मणों को न्याय दिलाया जाए। इस समय की बीजेपी की सरकार में उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों पर खूब अत्याचार हुआ है। ऐसे में ब्राह्मण समाज का एक होना जरूरी है। कांग्रेस के नेता जतिन प्रसाद ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र लिख कर परशुराम जयंती पर रद्द की गई छुट्टी को फिर से बहाल करने की मांग की है। कांग्रेस के ब्राह्मण नेताओं जतिन प्रसाद सहित पूर्व सांसद राजेश मिश्रा लगातार ब्राह्मणों पर हो रहे अत्याचार का मुद्दा उठा कर पीड़ित ब्राह्मणों से मुलाकात कर रहे हैं। इसी तरह लखनऊ से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ चुके आचार्य प्रमोद कृष्णम् तथा उत्तर प्रदेश कांग्रेस के मीडिया पेनलिस्ट अंशु अवस्थी भी ब्राह्मणों के मुद्दे को जोर-शोर से उछालते हुए समाज में घूम-घूम कर सभी से मिल रहे हैं।
विश्वास पर आज भी अंधविश्वास है भारी
आज जबकि तकनीकी का युग है और इस युग में जहां चंद्रमा और सूर्य पर जाने की होड़ मची है और वैज्ञानिकों ने अपनी कार्यक्षमता और बुद्धि विवेक से सूर्य के विक्रम प्रकाश व किरणों तथा चंद्रमा पर प्लाट काटना, चंद्रमा पर व्यक्तियों का पहुंचना इतना सब कुछ अर्जित कर लिया है । लेकिन आज भी इस दुनिया और समाज में एक वर्ग ऐसा है जो इन तकनीकी दुनिया से हटकर और इन पर विश्वास ना करते हुए आज भी अंधविश्वास पर अपने आप को बलि चढ़ा रहा है ।
आज जहां घातक बीमारियों जैसे टीवी, कैंसर और भी कई बीमारियों का इलाज वैज्ञानिक पद्धति से लोग कराते हैं और बड़े-बड़े डॉक्टरों से ऐसी बीमारियों के लिए देश दुनिया के अस्पतालों में रहकर भारी भरकम पैसा खर्चा करते हैं । परंतु आज भी हमारे वर्ग में वैचारिक भ्रांतियाँ उत्पन्न है जो इंसानों की जान जोखिम में डाल रही है । तंत्र , मंत्र की यदि हम बात करें तो यह न केवल समाज के निम्न स्तर और अनपढ़ों की बीच में ही अपनी पैठ बनाए हुए हैं बल्कि यह हमारे समाज के बुद्धिजीवी, पढ़े लिखे और फिल्मी हस्तियों में भी इस पर विश्वास किया जाता है ।
नेता अपने चुनावी हथ कंडो को जीतने के लिए इसका प्रयोग करते हैं । घर में अगर किसी प्रकार की लगातार विपत्तियां आती है तब भी घर के लोग अंधविश्वास की और अपने आप को ढाल लेते हैं क्या आज हमारे समाज में परमात्मा और वैज्ञानिक युग में विश्वास पर अंधविश्वास अपनी जड़ें मजबूत करे हुए हैं । यही कारण है कि यदि किसी गांव, शहर या परिवार में किसी जीव, जंतु, बिशेष कर साँप के द्वारा काटा जाता है तो सबसे पहले ऐसे लोग जड़ी बूटियां झाड़-फूंक पर विश्वास करते हैं और ऐसे लोगों की तलाश की जाती है जो मंत्रों के द्वारा उस जीव जंतु के जहर को उतार सकें । जबकि यथार्थ में ऐसा संभव नहीं है क्योंकि वैज्ञानिक पद्धति में यदि हम बात करते हैं तो हमारे शरीर की रक्त मांसपेशियां , रक्त को हृदय के पंपिंग के द्वारा या तो शरीर में ऊपर या नीचे की ओर नियमित रूप से संचार करती रहती है । जिसके द्वारा हमारे अंगों का नियमित रूप से काम करना, चलाना, तारतम्यता बनी रहती है । यदि हमारे किसी भी अंग में हमारे रक्त और ऑक्सीजन नहीं पहुंचती है, तो वह अंग हमारा वैज्ञानिक पद्धति से काम करना बंद कर देता है अर्थात् जिसे हम लकवा या अंग का शून्य हो जाना कहते हैं ।
न्याय में देरी न्याय से वंचित होना है -प्रियंका सौरभ
आज के दिन सुप्रीम कोर्ट में 60,450 मामले लंबित है। उच्च न्यायालयों में 45,12,800 मामले लंबित हैं, जिनमें से 85% मामले पिछले 1 साल से लंबित हैं। 2,89,96000 से अधिक मामले, देश के विभिन्न अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं।
सुप्रीम कोर्ट से लेकर निचली अदालतों तक मामलों की पेंडेंसी बढ़ने से उपराष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू ने चिंता व्यक्त की है। उपराष्ट्रपति नायडू ने सरकार और न्यायपालिका से तेज न्याय सुनिश्चित करने का आग्रह किया है। नायडू ने न्याय की गति तेज और सस्ती व्यवस्था करने की आवश्यकता को रेखांकित किया। लंबे समय तक मामलों के स्थगन का हवाला देते हुए, उन्होंने कहा कि न्याय महंगा हो रहा है “न्याय में देरी न्याय से वंचित होना है” उपराष्ट्रपति ने टिप्पणी की कि पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशंस व्यक्तिगत, आर्थिक और राजनीतिक हितों के लिए निजी हित याचिका नहीं बननी चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लंबित मामलों को लेकर पिछले काफी समय से बहस जारी है।
आज के दिन सुप्रीम कोर्ट में 60,450 मामले लंबित है। उच्च न्यायालयों में 45,12,800 मामले लंबित हैं, जिनमें से 85% मामले पिछले 1 साल से लंबित हैं। 2,89,96000 से अधिक मामले, देश के विभिन्न अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित हैं। इनमे सिविल मामलों की तुलना में आपराधिक मामले अधिक हैं। जो अपने आप में एक बड़ी चिंता है
हिंदी भाषा वैज्ञानिक भाषा है
हिंदी में वैज्ञानिक भाषा समाहित है। अंग्रेजी भाषा में ये खूबी देखने को नही मिलती। इसमें शब्दों के उच्चारण सर के अंगों से निकलते है। जैसे कंठ से निकलने वाले शब्द, तालू से, जीभ से जब जीभ तालू से लगती, जीभ के मूर्धा से, जीभ के दांतों से लगने पर, होठों के मिलने पर निकलने वाले शब्द । अ, आ आदि शब्दावली से निकलने वाले शब्द इसी प्रक्रिया से बनकर निकलते है। इसी कारण हमें अपनी भाषा पर गर्व है। शुद्ध हिंदी खोने लगी । हिंदी के सरलीकरण के लिये अंग्रेजी व अन्य भाषाओँ की घुसपैठ हिंदी भाषा को धीरे-धीरे कमजोर बनाकर उसे गुमनामी के अंधेरों में जा कर छोड़ देगी और हम हिदी दिवस का राग अलापते हुए हिंदी की दुर्दशा पर हम आँसू बहाते नजर आएँगे। सवाल ये भी उठता है कि क्या हिंदी शब्दकोश खत्म हो गया ?
वर्तमान में हिंदी के बोलने, लिखने में अंग्रेजी व अन्य भाषाओं की मिलावट होने से उसे अब अलग करने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हिंदी के लिये अभियान चलाने वालों के इसे अलग करना दुष्कर कार्य होगा । शुद्ध हिंदी बोलने और लिखने की आदत सभी को डालना होगी तभी हिंदी दिवस की सार्थकता सही होगी। वर्तमान में अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में से निकालना यानि बड़ा ही दुष्कर कार्य है। सुधार का पक्ष देखे तो हिंदी में व्याकरण और वर्तनी का भी बुरा हाल है। कोई कैसे भी लिखे, कौन सुधार करना चाहता है ? भाग दौड़ की दुनिया में शायद बहुत कम लोग ही होंगे जो इस और ध्यान देते होंगे। सवाल ये भी उठता है कि क्या हिंदी शब्दकोश खत्म हो गया? वर्तमान मे हिंदी के बोलने, लिखने में अंग्रेजी व अन्य भाषाओं की मिलावट होने से उसे अब अलग करने मे काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हिंदी के लिये अभियान चलाने वालों के इसे अलग करना दुष्कर कार्य होगा। शुद्ध हिंदी बोलने और लिखने की आदत सभी को डालना होगी तभी हिंदी दिवस की सार्थकता सही होगी। सुधार हेतु जाग्रति लाने की आवश्यकता है। जैसे कोई लिखता है कि लड़की ससुराल में ‘सूखी’ है। सही तो ये है कि लड़की ससुराल में ‘सुखी’ है। ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जाएंगे।
बच्चों की पूरी सुरक्षा के बाद ही स्कूल खोले जाने चाहिए
चीन से पैदा हुई महामारी ने पूरी दुनिया की नींद उड़ा कर मानवजीवन के सामने गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। भारत भी इससे बचा नहीं है। देश में कोरोना के मामले इतनी तेजी से बढ़ रहे हैं कि सुन कर डर लगने लगा है। 20 लाख से अधिक मामले देश में हो गए हैं। 40 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। देश में लगभग सभी राज्यों की स्थिति एक जैसी है। इनमें महानगरों की स्थिति कुछ ज्यादा ही खराब है।
कोविड-19 महामारी हमारे स्वास्थ्य पर सीधा हमला करती है। ‘सोशल डिस्टेसिंग और मास्क’ महामारी से बचने के एकमात्र रामबाण इलाज हैं। फिर भी लोगों की लापरवाही ने पूरे देश को चिंता में डाल दिया है। मानवजीवन के अनेक क्षेत्रें पर महामारी का सीधा असर दिखाई दे रहा है। अर्थव्यवस्था और रोजी-रोजगार सब चैपट हो गया है। गरीबों और मेहनत-मजदूरी करने वाले लोगों का जीना मुहाल हो गया है। मध्यमवर्ग भी अनेक समस्याओं से जूझ रहा है।
महामारी से सबसे अधिक प्रभावित शिक्षा का क्षेत्र हुआ है। साढ़े चार, पांच महीने से देश में पढ़ाई-लिखाई पूरी तरह बंद है। स्कूल-कालेज खोलना केंद्र और राज्य सरकार के लिए भी चिंता का विषय बना हुआ है। छात्र और उनके माता-पिता भी चिंतित हैं। ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था थोड़ा राहत जरूर दे रही है, पर जहां मोबाइल, इंटरनेट की व्यवस्था नहीं है, उस तरह के ग्रामीण इलाकों में गरीब मां-बाप के बच्चे पढ़ाई-लिखाई से पूरी तरह वंचित हैं। यह भी एक तरह की समस्या ही तो है।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि 16 साल से कम उम्र के बच्चे अगर दो घंटे से अधिक फोन का उपोग करते हैं तो उनकी स्मरण शक्ति पर गंभीर असर पड़ता है। ऑनलाइन पढ़ाई से कुछ बच्चों को सिरदर्द की शिकायत होने लगी है। ऐसे बच्चों को डाक्टर ऑनलाइन पढ़ाई और टीवी देखने से मना कर देते हैं। क्योंकि घर में रहने से बच्चे टीवी भी लगातार देख रहे हैं। अब ऐसे बच्चों की पढ़ाई का क्या होगा?
ऑनलाइन पढ़ाई परंपरागत पढ़ाई का स्थान नहीं ले सकती। स्कूल-कालेज की व्यवस्था छात्रें को केवल पढ़ने के लिए ही नहीें है, सर्वांगीण विकास और उत्तम जीवन को गढ़ने के अति आवश्यक है। पाठ्य पुस्तकों के अलावा जो ज्ञान स्कूल-कालेजों में मिलता है, वह घर में कदापि नहीं मिल सकता। अध्यापकों का स्नेहिल व्यवहार, प्रेम-लगाव, प्रोत्साहन छात्रें को पढ़ने के लिए प्ररित कर रुचि उत्पन्न करता है। बच्चे अध्यापकों की छत्रछाया में भयमुक्त हो कर हंसी-खुशी से पढ़ते हैं। छात्र और शिक्षक के बीच अध्ययन प्रक्रिया अधिक फलदायी और परिणाम देने वाली बनती है। कोरोना महामारी को आए साढ़े चार महीने से अधिक हो गए हैं। तब से स्कूल-कालेज लगातार बंद हैं। इससे साफ है कि सब से अधिक प्रभावित शिक्षा का ही क्षेत्र है। सबसे ज्यादा युवा वाले अपने देश में लंबे समय तक शिक्षा की अवहेला नहीं की जा सकती। कोरोना महामारी कब खत्म होगी, यह भी अभी अनिश्चित है। ऐसे माहौल में स्कूल-कालेज खोलने के बारे यक्ष प्रश्न राज्य सरकार और भारत सरकार के लिए चिंता का विषय है। चिंता और परेशानी का विषय बना हुआ है। चारों तरफ गहरी खाई है। इधर जाएं या उधर, समझ में नहीं आ रहा। कोरोना का विषचक्र लगातार चल रहा है।
क्यों सबको प्रिय हैं राम !
जिस राममंदिर का हिंदुओं को सदियों से इंतजार था, आखिर 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हाथों उसका शिलान्यास हो ही गया यानी मेंदिर की नींव पड़ गई। 5 अगस्त, 2020 का दिन भारतीय इतिहास में अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास होने के दिन के रूप में जाना जाएगा। देश में करोड़ो लोगों के हृदय में इष्टदेव के रूप में राम विराजमान हैं। परंतु देश की सबसे बड़ी विडंबना यह थी कि राम जन्मभूमि पर राममंदिर तोड़ दिया गया था। सैकड़ो वर्षों से दिल में यह कसक ले कर देश के करोड़ो लोग रामजी का जन्मदिन रामनवमी मनाते थे। परंतु सभी के हृदय में यह बात खटकती थी कि हमारे भगवान की जन्मभूमि पर मंदिर क्यों नहीं बन रहा। 5सौ सालों से यह कसक देश के करोड़ो हिंदुओं में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही थी।
इतिहासकार कनिंगम ने लखनऊ गजट में लिखा है कि 1लाख 74हजार हिंदुओं का कत्लेआम करने के बाद बाबर का सेनापति मीरबाकी अयोध्या का राममंदिर तोपों से उड़ाने में सफल हुआ था। उसके बाद उस मंदिर पर बाबरी मस्जिद का निर्माण हुआ और तब से मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए बलिदानों का सिलसिला शुरू हुआ। इतिहास कहता है कि श्रीराम जन्मभूमि पर फिर से मंदिर बनाने के लिए बाबर के ही समय में करीब छह युद्ध हुए। हुमायूं के समय में लगभग 12 युद्ध हुए। अकबर के समय में 24 और औरंगजेब के शासनकाल में करीब 36 छोटी-बड़ी लड़ाईयां राम जन्मभूमि को वापस पाने के लिए लड़ी गईं। देश का आत्मसम्मान वापस दिलाने के लिए हुए युद्धों में लाखों लोग खप गए। अंग्रेजों के समय में भी यह सिलसिला चलता रहा। सत्ताधारी अंग्रेज डिवाइड एंड रूल की पॉलिसी में विश्वास करते थे। 1857 में हिंदू-मुस्लिमों ने एक हो कर अंग्रेजो को भगाने के लिए गदर किया था। तब मुस्लिम नेता अमीरअली ने मुसलमानों से अपील की थी कि अंग्रेजों से यु( में हिंदू भाइयों ने कंधे से कंधा मिला कर साथ दिया है, इसलिए अपना फर्ज बनता है कि हमें खुद हिंदुओं को रामचंद्रजी की जन्मभ्रूमि सौंप देनी चाहिए। अंग्रेज अमीरअली की इस बात से चैंके। अंग्रेज हिंदू-मुस्लिम एकता सहन नहीं कर सकते थे। परिणामस्वरूप अंग्रेजों ने राम जन्मभूमि का विवाद खत्म करने की आवाज उठाने वाले मुस्लिम नेता मौलाना अमीरअली और हनुमान गढ़ी के महंत रामचंद्रदास को 18 मार्च, 1858 को अयेध्या में हजारों हिंदुओं और मुसलमानों के सामने कुबेर टेकरा पर फांसी पर लटका दिया था। इस घटना के बारे में अेंग्रेज इतिहासकार मार्टिन ने लिखा है। इस तरह खुलेआम फांसी देने से फैजाबाद और आसपास के गदर में शामिल लोगोें की कमर टूट गई और अंग्रेजों का खौफ उस क्षेत्र में फैल गया।
अंग्रेजों के समय भी इस विवाद का हल नहीं हो सका। आजादी के बाद सभी को उम्मीद थी कि यह विवाद हल हो जाएगा। क्योंकि जब देश आजाद होता है और नए राष्ट्र का निर्माण होता है तो राष्ट्र से जुड़ी गुलामी और अन्याय की यादों को हटा दिया जाता है। भगवान सोमनाथ के मंदिर के बारे में आजादी के बाद यह संभव हो सका। सन 1024 में मुहम्मद गजनी ने सोमनाथ मंदिर को तोड़ा, उसके बाद फिर मंदिर बना, फिर टूटा, ऐसा 7 बार हुआ। आखिर आजादी के बाद 13 नवंबर, 1047 को भारत के उप प्रधानमंत्री सरदार बल्लभभाई पटेल ने सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की प्रतिज्ञा ली और आखिर 11 मई, 1951 को सोमनाथ की प्राणप्रतिष्ठा भारत के प्रथम राष्ट्रपति डा0 राजेन्द्र प्रसाद के हाथों हुई। आजादी के बाद गुलरात के सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण संभव हो सका। पर अयोध्या के रामजन्म भूमि मंदिर के साथ ऐसा नहीं हो सका।
कोरोना से जंग जीतनी ही होगी
ये बात कभी जेहन में नहीं आई थी कि इंसान… इंसान से डरने लगेगा। उसके मन में यह डर बैठ जाएगा कि अगर किसी दूसरे इंसान ने उसे छू लिया तो वह बीमारी का शिकार होकर वह मर जाएगा। यह बातें अकल्पनीय है लेकिन सच है। मास्क पहनने के बाद भी व्यक्ति खुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहा है। हर एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से दूरी बनाए हुए है। आज पूरा देश कोविड 19 से जूझ रहा है। इस महामारी में और इस उपजी परिस्थितियों ने जनजीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया हुआ है। जीवन मे घटित कुछ ऐसे पहलू जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। जब लॉक डाउन हुआ तो मजदूर वर्ग बिना सोचे समझे काम छोड़कर नंगे पैर, भूखे प्यासे अपने घर की ओर पलायन करने लगे। बहुत से मृत्यु का ग्रास बन गये, बहुतों ने बहुत तकलीफ उठाई और अब भी बहुत से श्रमिक वर्ग बदहाली का जीवनयापन कर रहे हैं। छोटे उद्यमियों की स्थिति ज्यादह खराब है। खोमचे वाले गोलगप्पे वाले जो रोज ₹200 तक कमा लेते थे आज उनकी आमदनी का जरिया बंद है। यदि वह काम नहीं करेंगे तो परिवार का भरण पोषण कैसे करेंगे? यह बात रोता हुआ एक सब्जी वाला कहता है।
आदिवासी दिवस के बहाने अलगाववाद की राजनीति
वैश्विक परिदृश्य में कुछ घटनाक्रम ऐसे होते हैं जो अलग अलग स्थान और अलग अलग समय पर घटित होते हैं लेकिन कालांतर में अगर उन तथ्यों की कड़ियाँ जोड़कर उन्हें समझने की कोशिश की जाए तो गहरे षड्यंत्र सामने आते हैं। इन तथ्यों से इतना तो कहा ही जा सकता है कि सामान्य से लगने वाले ये घटनाक्रम असाधारण नतीजे देने वाले होते हैं। क्योंकि इस प्रक्रिया में संबंधित समूह स्थान या जाति के इतिहास से छेड़ छाड़ करके उस समूह स्थान या जाति का भविष्य बदलने की चेष्टा की जाती है। आइए पहले ऐसे ही कुछ घटनाक्रमों पर नज़र डालते हैं।
घटनाक्रम 1.
2018, स्थान राखीगढ़ी, लगभग 6500 साल पुराने एक कंकाल के डी.एन.ए के अध्य्यन से यह बात वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो गई कि आर्य बाहर से नहीं आए थे।बल्कि वे भारतीय उपमहाद्वीप के स्थानीय अथवा मूलनिवासी थे। यहीं उन्होंने धीरे धीरे प्रगति की, जीवन को उन्नत बनाया और फिर इधर उधर फैलते गए। इस शोध को देश विदेश के 30 वैज्ञानिकों की टीम ने अंजाम दिया था जिसका दावा है कि अफगानिस्तान से लेकर बंगाल और कश्मीर से लेकर अंडमान तक के लोगों के जीन एक ही वंश के थे।
भारत त्यौहार और उत्सावों का जीता जागता स्वरूप है, हर दिन मानाे त्यौहार
सभी धर्म के लाेग मिल जुल कर सभी त्यौहार को पूरे उत्साह और उमंग के साथ मनाते है हमारे यहाँ अनेकाे त्यौहार मनाए जाते हैं और सभी त्यौहार के प्रति सबके मन में श्रद्धा और प्यार भी हाेता है और सभी का अपना महत्व भी है। पर हम बात करे एक ऐसे अनाेखे त्यौहार की जाे सबसे अलग और प्यारा है। जाे सावन मास की पूर्णिमा काे मनाया जाता है। वह है, रक्षाबंधन जाे दाे शब्द से मिल कर बना है रक्षा+बंधन, जिसका मतलब हैं बंधन रक्षा का, ये एक ऐसा बंधन है जहाँ रिश्तों काे धागाे मे पिराेया जाता है।
ये धागा मामूली धागा सूत्र नहीं हाेता है। इस धागे की महत्व सबसे अलग हाेता है। ये एक ऐसा धागा है जहाँ हम सभी धागों के जरिये रिश्तों में बंध जाते हैं। ये एक ऐसा त्यौहार है जहाँ बहन अपने भाई के कलाई पर रक्षा सूत्र जिसे हम राखी कहते हैं पूरे वचनों के साथ बांधती है और साथ ही अपने भाई को ढेरों आशीर्वाद देती है और उसकी लंबी उम्र की कामना करती है, तथा भाई भी उसे पूरे मन से जीवन भर रक्षा कवच के भांति उसकी सुरक्षा, सम्मान, हर सुख – दुख में साथ देने का वचन देता है। पर रक्षा सूत्र हम सिर्फ भाई काे ही नहीं बांधते है हम रक्षा सूत्र किसी काे भी बांध सकते हैं।