Saturday, May 18, 2024
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लेख/विचार

बच्चों की शिक्षा के प्रति लापरवाही अब अभिभावकों को पड़ सकती है भारी

बच्चों को पढ़ाई से जोड़ने के लिए शिक्षकों के साथ अब अभिभावकों को भी अपना पूर्ण योगदान देने की आवश्यता है
“स्कूल अब शुरू हुए, शुरू हुई फिर पढ़ाई
दो साल बाद नन्ही बिटिया, स्कूल देख पाई
अब बच्चों के संग सब, स्कूल पढ़ने जायेंगे
नई गुरूजी की नई सीख, खूब सीखकर आयेंगे”
अप्रैल माह आते ही स्कूलों की घंटी एक बार फिर से बजने के लिए तैयार है । एक लम्बे समय के बाद पूर्व प्राथमिक विद्यालयों के बच्चों की किलकारी स्कूल के कमरों से सुनाई देने को तैयार है । देश में लॉकडाउन के दौर ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है तो वह है शिक्षा; और शिक्षा में पूर्व-प्राथमिक एवं प्राथमिक शिक्षा की दशा बिगाड कर रख दिया है । सरकारी विद्यालयों में जहाँ बच्चा 5 से 6 वर्ष की उम्र में स्कूल जाकर अपनी शिक्षा ग्रहण करने को तैयार हो जाता है वही निजी विद्यालयों में 4 वर्ष से प्री-प्राइमेरी कक्षाओं में दाखिला के साथ पढाई की शुरुआत हो जाती है । अभी तक पूरे 2 वर्षों का समय गुजर गया है कुछ बच्चे जो शुरूआती कक्षा में दाखिले के लायक थे उन्होंने तो स्कूल का मुख तक नहीं देख पाया है; और यदि किसी तरह इन उम्र के बच्चों का दाखिला विद्यालय में हो भी गया तो कोरोना महामारी के दर से बंद स्कूलों के दर्शन नहीं हो पाए है । इनके लिए स्कूल की पढ़ाई और वहाँ का मजा एवं सीख परियों की कहानी जैसा है । नए सत्र के प्रारंभ होते ही बच्चों की शुरूआती शिक्षा के लिए शिक्षक के पास एक नई चुनौती होगी, क्योकि 2 वर्षों के लर्निंग गेप को समझते हुए, आगामी कार्ययोजना तय करके सत्र के लिए तैयारी करनी होगी ।

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चस्का मुफ्तखोरी का

एक कहानी पढ़ी थी कि बहेलिये ने दाना डालकर जाल बिछाया हुआ था और फिर कबूतर दाना चुगने आए और जाल में फस गए। हमें इस कहानी से यह सबक सिखाया जाता था की लालच बुरी बला है। कुछ ऐसा ही आजकल का माहौल है करोना काल में शुरू की गई गरीबों के लिए मुफ्त राशन योजना को केंद्र सरकार ने तीन महीने के लिए आगे बढ़ा दिया है हालांकि यह स्पष्ट है कि यह घोषणा 2024 में लोकसभा चुनाव को मद्देनजर रखकर किया गया है। इस योजना की घोषणा मुख्यमंत्री की शपथ के अगले ही दिन कर दी गई और दावा किया गया है कि पंद्रह करोड़ लोगों को इस योजना का लाभ मिलेगा।

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आकर्षण को प्यार समझने की भूल मत करो

इश्क की आँधी बहा ले जाती है जिनको कच्ची उम्र के पड़ाव पर, वह लड़कियां कहीं की नहीं रहती। छूट जाती है पढ़ाई और इश्क की आराधना करते कई बार हार जाती है अपनी ज़िंदगी।
यह उम्र ख़तरनाक होती है 15 से लेकर 20 साल के बीच का सफ़र विपरीत सेक्स के प्रति आकर्षण पैदा करता है। उस उन्माद को बच्चियाँ प्रेम समझकर एक ऐसी राह पर निकल जाती है, जहाँ फिसलन और पतन के सिवा कुछ नहीं होता।
न आजकल के लड़कें उस उम्र में इतने परिपक्व होते है। प्यार, इश्क, मोहब्बत को अपनी शारीरिक जरूरतें पूरी करने का ज़रिया समझते है। खासकर डिज़िटल युग में हर बच्चें मोबाइल का बेबाक उपयोग करते है, जिसमें अंगूठा दबाते ही पोर्नाेग्राफ़ी एप्स की भरमार मिलती है। बहुत कम उम्र में आजकल के बच्चे एडल्ट हो जाते हैं। हर माँ-बाप को अपने बच्चों की गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिए। बच्चे मोबाइल का उपयोग किस चीज़ के लिए करते हैं और बच्चों की मानसिकता का अध्ययन करते बातचीत से जानने की कोशिश करनी चाहिए की बच्चे किस दिशा में जा रहे हैं और हर माँ-बाप का कर्तव्य है की बेटे को यह संस्कार दें कि दूसरों की बेटी की इज्जत करें, सम्मान दें। प्यार के नाम पर कोई खेल खेलने से पहले सोचे की अपनी बहन-बेटी के साथ अगर कोई ऐसा करें तो?
कभी-कभी बच्चे आकर्षण को प्यार समझकर एक ऐसी राह पर निकल जाते हैं, जहाँ से बाकी सब पीछे छूट जाता है। पढ़ाई-लिखाई से भटक जाते हैं लक्ष्य को भूल जाते हैं।

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पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में लगातार वृद्धि के लिये केन्द्र सरकार ही नहीं बल्कि राज्य सरकारें भी हैं जिम्मेदार

खाने-पीने की चीजों से लेकर जिस तरह पेट्रोल, डीजल व रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोत्तरी हो रही है, वह चिंता की एक बड़ी वजह है। इसके लिये कहीं न कहीं केंद्र और राज्य सरकारों का मुनाफाखोर आचरण पूरी तरह से जिम्मेदार है। पांच राज्यों में सम्पन्न हुए चुनावी दौरान पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कोई बढ़ोत्तरी ना करने के पीछे मतदाताओं की नाराजगी से बचने हेतु एक मजबूरी थी और जैसे ही नतीजे आ गये, मतलब निकला तो मंशा उजागर हुई और परिणामतः पेट्रोलियम पदार्थाे में लगभग हर रोज बढ़ोत्तरी जारी है।
इसमें कतई दो राय नहीं कि पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ने का सीधा असर महंगाई पर पड़ता है और गरीब तबके व हाशिये पर मौजूद तबके के लिए ज्यादा मुश्किलें बढ़ती जातीं हैं। वर्तमान में देश में पेट्रोल, डीजल की कीमतें रोजाना बदलना व बढ़ना शुरू हो गई हैं। जो निरन्तर जारी रहने की उम्मीद है। वहीं पिछले वर्षाे की बात करें तो पूरी दुनियाँ में कोविड-19 महामारी के चलते क्रूड की कीमतें नीचे आई थीं लेकिन भारत में ईंधन के दाम कम नहीं किये गये थे।
केन्द्र सरकार एक तरफ तो बड़े उद्योगों व नौकरीपेशा के हित के लिए समय-समय पर राहत के पैकेज घोषित किया करती है लेकिन जिस पेट्रोल और डीजल की कीमतों की बढ़ोत्तरी के चलते समूची अर्थव्यवस्था प्राथमिक स्तर से ही प्रभावित होना शुरू हो जाती हैं उनके बारे में वह बेहद असंवेदनशीलता का परिचय दे रही है। इस असंवेदनशीलता का शिकार हर वर्ग हो रहा है लेकिन मध्यमवर्गीय तबका सबसे ज्यादा हुआ है और हो रहा है ?

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बदतर होते हालातों में श्रीलंका

चीन के कर्ज में फंसे श्रीलंका के हालात दिन प्रतिदिन बदतर होते जा रहे हैं। पूरे देश में खाद्य सामग्री का संकट इतना गहरा हो गया है कि जनता के लिए अपना पेट भरना मुश्किल हो गया है। गौरतलब यह है कि चीन सहित अनेक देशों के कर्ज तले दबा श्रीलंका अब दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गया है। उसका विदेशी मुद्रा भंडार काफी अधिक घट गया है। इस कमी के कारण देश में ज्यादातर सामानों सहित दवाइयां, पेट्रोल व डीजल आदि का विदेशों से आयात नहीं हो पा रहा है। इस कारण मंहगाई की मार से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। ताजा हालातों की बात करें तो एक ब्रेड का पैकेट 0.75 डॉलर यानि कि 150 रुपये में खरीदना पड़ रहा है। इसी तरह सब्जियों के दाम भी आसमान पर पहुंच गए हैं। श्रीलंका में इन दिनों एक किलोग्राम चीनी 290 रुपये, एक किलोग्राम चावल 500 रुपये, 400 ग्राम मिल्क पाउडर 790 रुपये, एक लीटर पेट्रोल 254 रुपये, एक लीटर डीजल 176 रुपये एवं रसोई गैस का सिलेन्डर 4149 रुपये में मिल रहा है।

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सुशासन या विकल्पहीनता ने दिलायी भाजपा को जीत

उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर की जनता ने एक बार फिर भाजपा को सत्ता सौंपी तो पंजाब में आप की झाड़ू ने कमाल कर दिखाया| अब बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर बहस शुरू हो गयी है कि चार राज्यों में भाजपा की सत्ता में वापसी तथा पंजाब में पराजय के प्रमुख कारण कौन-कौन से रहे| कुछ लोग चार राज्यों में भाजपा की वापसी का प्रमुख कारण उसके सुशासन को मानते हैं तो कुछ बुद्धिजीवी इसे विकल्पहीनता का परिणाम बता रहे हैं| क्योंकि महंगाई और बेरोजगारी जैसे ज्वलन्त मुद्दे भी भाजपा को सत्ता में वापसी से नहीं रोक पाये| खासतौर से उत्तर प्रदेश में|

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“द कश्मीर फ़ाइल्स एक सत्य कथा”

‘द कश्मीर फाइल्स’ एक ऐसी फ़िल्म है, एक ऐसी सत्य कथा है जिसे हर हिन्दुस्तानी को देखनी चाहिए। देश की बहुत सारी जनता इस जघन्य कृत्य से अन्जान है। इस फ़िल्म को देखने वाले दर्शकों को फ़िल्म का कथानक सदियों तक याद रहेगा। 19 जनवरी 1990 के दिन कश्‍मीर के इतिहास का सबसे काला अध्‍याय लिखा गया। अपने ही घर से कश्‍मीरी पंडितों को बेदखल कर दिया। सड़कों पर नारे लग रहे थे, ‘कश्‍मीर में अगर रहना है, अल्‍लाहू अकबर कहना है’। और अफ़सोस की बात ये है की उस वक्त की स्‍थानीय सरकार पंगु थी। द कश्मीर फ़ाइल्स इसी कथानक पर आधारित फ़िल्म है जिसमें अनुपम खेर की एक्टिंग की तारीफ़ में शब्द ही नहीं। 90 के दशक में कश्मीर में हुए कश्मीरी पंडितों और हिंदुओं के नरसंहार और पलायनवाद की कहानी को दर्शाया गया है। इस फिल्म में अनुपम खेर, मिथुन चक्रवर्ती जैसे धुरंधर कलाकार के साथ फिल्म में पल्लवी जोशी और दर्शन कुमार जैसे मंझे हुए कलाकारों ने एक छाप छोड़ी है।

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रूस-यूक्रेन युद्ध और भारत

सोवियत संघ के समय मित्र रहे दो प्रान्त रूस और यूक्रेन के बीच जबर्दस्त जंग छिड़ी हुई है। जिसमें यूक्रेन को भारी क्षति उठानी पड़ रही हैद्य इस युद्ध का शिकार अब न केवल निर्दाेष और निहत्थे यूक्रेनी हो रहे हैं बल्कि वहाँ रहने वाले भारत सहित अन्य देशों के नागरिकों की भी जान जोखिम में पड़ी हुई है। रुसी हमले में एक भारतीय छात्र की हुई मृत्यु ने यूक्रेन में रह रहे अपने नागरिकों के प्रति भारत सरकार की चिन्ता बढ़ा दी है।
नवम्बर 2013 में यूक्रेन और रूस के बीच तनाव शुरू हुआ था। जिसका प्रमुख कारण रूस समर्थित यूक्रेन के तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच का कीव में विरोध होना था। अमेरिका-ब्रिटेन समर्थित प्रदर्शनकारियों के जबर्दस्त विरोध के कारण फरवरी 2014 में यानुकोविच को देश छोड़कर भागना पड़ा था। यह बात रूस को नागवार गुजरी और उसने दक्षिणी यूक्रेन के क्रीमिया शहर पर कब्ज़ा करके वहाँ के अलगाववादियों को समर्थन देना प्रारम्भ कर दिया। इन अलगाववादियों ने बाद में पूर्वी यूक्रेन के एक बड़े हिस्से पर कब्ज़ा करने में कामयाबी हासिल की। इसके बाद अलगाववादियों तथा यूक्रेनी सेना के बीच लगातार संघर्ष चलता रहा। इससे पूर्व सन 1991 में सोवियत संघ से यूक्रेन के अलग होने के बाद क्रीमिया को लेकर दोनों देशों में कई बार टकराव हुआ था। दोनों देशों के बीच तनाव कम करने के लिए 2014 के बाद पश्चिमी देश सक्रिय हुए और फ़्रांस तथा जर्मनी ने 2015 में बेलारूस की राजधानी मिन्स्क में रूस और यूक्रेन के बीच शान्ति एवं संघर्ष विराम का समझौता करवा दिया। अब नये विवाद की जड़ यूक्रेन का नाटो देशों से दोस्ती गांठना बताया जा रहा है। सन 1949 में तत्कालीन सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए ‘उत्तर अटलांटिक सन्धि संगठन’ अर्थात नाटो का गठन किया गया था। अमेरिका और ब्रिटेन समेत दुनियाँ के 30 देश नाटो के सदस्य हैं। यदि कोई देश किसी अन्य देश पर हमला करता है तो नाटो के सदस्य देश एकजुट होकर उसका मुकाबला करते हैं। रूस प्रारम्भ से ही नाटो के विस्तार का विरोधी रहा है।

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युद्ध धर्म नहीं, शांति कामना धर्म है

आजकल देश और दुनिया में एक ही बात की चर्चा हो रही है कि क्या अब रूस दुनिया का नया शहंशाह बनने वाला है, क्या अब अमेरिका और यूरोप की बादशाहत खत्म होने वाली है? एक भविष्यवाणी के अनुसार पुतिन अब यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया के सबसे ताकतवर इंसान बनने वाले हैं, और रूस दुनिया पर राज करेगा। पर किसीने सोचा है की इस बादशाहत उनको किस कीमत पर मिलेगी। कितने परिवारों को अनाथ करके, कितने लोगों को तबाह करके और कितने खून और आँसूओं की नदियाँ बहेगी तब युद्ध ख़त्म होगा, फिर कितने सारे मकबरों पर पुतिन अपनी बादशाहत का महल खड़ा करेंगे।
क्यूँ इतना वैमनस्य पालना है दो गज ज़मीं की जरूरत है आख़री अंजाम की ख़ातिर हर इंसान को, फिर क्यूँ अहंकार को अपना अस्तित्व समझकर पूरे देश को खतरे में ड़ालना है।
अंग्रेजी में कहावत है everything is fair in love and war अर्थात प्यार और युद्ध में सब जायज़ है। जायज़ तब होता जब राजा प्रजा के हितों को और देश की उन्नति को ध्यान में रखकर युद्ध का ब्यूगुल बजाता, युद्ध करने वाले न आगाज़ सोचते है न अंजाम। पर जब युद्ध का ऐलान होता है तब मानवता को नुकसान पहुंचता है। आम इंसान की हालत खस्ता होती है, देश दस साल पीछे चला जाता है और आर्थिक स्थिति डावाँडोल हो जाती है। युद्ध की परिस्थिति बड़ी विचलित करने वाली होती है, युद्ध में शहीद होने वाले सिपाहियों के परिवारों की आहें, सिसकियाँ, बम धमाके और गोला बारूद की गूँज से क्षत-विक्षत इंसान, वीभत्स द्रश्यों से मानसिक हालत अवसाद ग्रस्त हो जाती है। दूसरे देशों से काम या पढ़ाई के सिलसिले में आए लोगों की मनोदशा असहनीय होती है। जब युद्ध होते है तब युद्ध में अस्त्रों शस्त्रों के प्रयोग से मानवता नष्ट होकर प्रलय की स्थिति तक आ सकती है। दुनिया के बड़े देशों के पास ऐसे अस्त्रों का भण्डार पड़ा है, जिसका उपयोग हुआ तो तबाही के ऐसे मंज़र दिखेंगे की कभी किसीने सोचा नहीं होगा। अच्छा है इस मामले में सब एक-दूसरे से डरते हैं। उनके बीच समझौता ही संसार को बचा सकता है।

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गुनहगार कौन???

याद आ रही हैं वो कहानी जो छुटपन में मां सुनाया करती थी। एक चोर था ,पूरे राज्य में चोरी करके आतंक मचाया हुआ था।गरीब हो या अमीर सब की संपतियों पर उसके नजर रहती थी और मौका मिलते ही हाथ साफ कर लेते उसे देर नहीं लगती थी। एक सिफत की बात थी कि पकड़ा नहीं जाता था। पहले तो सिपाहियों ने बहुत कोशिश की किंतु उसे पकड़ने में सफल नहीं हो पाए। दिन-ब-दिन उसकी हिम्मत बढ़ती जा रही थी। और अब राजा को भी लगा कि उसे पकड़ना बहुत जरूरी था वरना राजमहल भी सलामत नहीं होगा।और अब सिपाही की जगह सिपासलार को ये काम सुपुर्द हो गया। बहुत सारे लोग घात लगा जगह जगह बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करते रह जाते और शहर दूसरे हिस्से में घरफोड चोरी हो जाती थी। अब सभी मंत्रियों ने मिल राजा से सलाह मशवरा करके एक जल बिछाया जिसमे प्रजा को भी शामिल किया गया और पूरे शहर में सब जगह जगह छुप कर बैठ गए। कोई पेड़ पर बैठा तो कोई किसके घर की छत या दीवार पर बैठा ऐसे सब फेल गए और सोचा कि अब जायेगा कहां। लेकिन रानी भवन में चोरी हो गई ,रानी के सारे गहने गायब थे और पूरे राज्य में कोहराम मच गया। प्रजा ने भी बोलना शुरू कर दिया कि राजभवन ही सुरक्षित नहीं हैं तो आम नागरिकों का क्या? और अफरातफरी का माहोल बन गया । अब राजा ने खुद भेस बदलकर रात्रि भ्रमण कर जगह जगह जा हालातों का जायजा लिया और एक बहुरूपिए के बारे में पता चला,अब बहुरूपिए के पर नजर रखी गई और उसका असली रूप सामने आया।अब पहचान तो हो ही गई थी उसकी अब पकड़ने भी देर नहीं लगी। हथकड़ी लगा कर उसे कारागार में डाल दिया गया।राजा तो नाराज था ही,और प्रजा से जनमत लिया गया।

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